नन्दीश्वर बोले- हे महामुने। अब आप शम्भुके एक और चरित्रको प्रेमपूर्वक सुनिये, जिसमें शंकरजी धर्म [की स्थापना ] के लिये दुर्वासा होकर प्रकट हुए थे 1 ॥
ब्रह्माके परम तपस्वी एवं ब्रह्मवेत्ता अत्रि नामक पुत्र हुए वे बड़े बुद्धिमान्, ब्रह्माजीकी आज्ञाका पालन करनेवाले एवं अनसूयाके पति थे ॥ 2 ॥
वे किसी समय ब्रह्माजीके निर्देशानुसार पुत्रकी इच्छासे पत्नीसहित तप करनेके लिये त्र्यक्षकुल नामक पर्वतपर गये॥ 3 ॥
उन मुनिने निर्विन्ध्या नदीके तटपर अपने प्राणोंको रोककर निर्द्वन्द्व हो सौ वर्षपर्यन्त विधिपूर्वक महाघोर तप किया ll 4 ll
उन्होंने अपने मनमें निश्चय किया कि जो एकमात्र अविकारी अनिर्वचनीय महाप्रभु ईश्वर हैं, वे मुझे श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करेंगे ॥ 5 ॥
इस प्रकार उत्कृष्ट तपमें प्रवृत्त हुए उन महर्षिका बहुत समय व्यतीत हो गया। तब उनके शरीरसे अत्यन्त पवित्र और बहुत बड़ी अग्निज्वाला प्रकट हुई ॥ 6 ॥उस ज्वालासे सम्पूर्ण लोक प्रायः जलने लगा और इन्द्रादि सभी देवता श्रेष्ठ मुनिगण तथा समस्त सुरर्षिगण भी पीड़ित हो उठे ॥ 7 ॥
हे मुने! इसके बाद इन्द्र आदि सभी देवता एवं मुनिगण उस ज्वालासे अतीव पीड़ित होकर शीघ्र ही ब्रह्मलोक गये ॥ 8 ॥
हे तात! देवताओंने नमस्कार एवं स्तुतिकर ब्रह्मदेवके समक्ष अपना दुःख प्रकट किया। तब ब्रह्माजी उन देवताओंको लेकर शीघ्रता से विष्णुलोकको गये ॥ 9 ll
हे मुने! वहाँ देवताओंके साथ जाकर लक्ष्मीपतिको नमस्कार करके तथा उनकी स्तुतिकर अनन्त भगवान् विष्णुसे ब्रह्माजीने दुःख निवेदन किया ॥ 10 ॥
तदनन्तर भगवान् विष्णु भी ब्रह्मा एवं देवताओंको लेकर शीघ्र स्खलोक गये और वहाँ पहुँचकर परमेश्वर शिवजीको प्रणाम करके उनकी स्तुति की ॥ 11 ॥
बहुत स्तुति करनेके बाद भगवान् विष्णुने शिवजीसे अपना सारा दुःख निवेदन किया कि अत्रिके तपसे एक ज्वाला उत्पन्न हुई है ॥ 12 ॥
हे मुने! तदुपरान्त उस स्थानपर एकत्रित हुए ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वरने मिलकर संसारके हितसाधनके लिये आपसमें मन्त्रणा की ॥ 13 ॥
इसके बाद ब्रह्मा आदि वरदश्रेष्ठ वे तीनों देवता उन मुनिको वर देनेके लिये शीघ्र ही उनके आश्रमपर पहुँचे ॥ 14 ll
अपने-अपने [हंसादि वाहनोंके] चिह्नोंसे चिह्नित उन देवगणोंको देखकर मुनिश्रेष्ठ अत्रिने उन्हें प्रणाम किया और प्रिय वाणीसे आदरपूर्वक उनकी स्तुति की ॥ 15 ॥
तत्पश्चात् हाथ जोड़े हुए वे विनीतात्मा ब्रह्मपुत्र अत्रि उन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवसे विस्मित होकर कहने लगे- ॥ 16 ॥
अत्रि बोले- हे ब्रहान्। हे विष्णो हे शिव! आप सब तीनों लोकोंके पूज्य, प्रभु, ईश्वर और उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करनेवाले माने गये हैं ॥ 17 ॥मैंने तो सपत्नीक (तपोनिरत होकर] पुत्रकी कामनासे केवल एकमात्र जो इस सारे जगत्के ईश्वर हैं, उन्हींका ध्यान किया था। किंतु वरदाताओंमें श्रेष्ठ आप तीनों देवता यहाँ कैसे उपस्थित हुए हैं; मेरे इस संशयको दूरकर मुझे अभीष्ट वर दीजिये ॥ 18-19 उनकी यह बात सुनकर उन तीनों देवताओंने कहा- हे मुनिराज ! जैसा आपने संकल्प किया था, वैसा ही हुआ है, हम ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश तीनों ही समानरूपसे इस जगत्के ईश्वर हैं, इसलिये वर देनेके लिये उपस्थित हुए हैं, अतः हमलोगोंके अंशसे आपके तीन पुत्र उत्पन्न होंगे। वे सभी जगत्में प्रसिद्ध होकर माता एवं पिताको कीर्तिको बढ़ानेवाले होंगे। ऐसा कहकर वे तीनों देवता प्रसन्न हो अपने-अपने धामको चले गये ॥ 20-22 ॥ हे मुने! ब्रह्मानन्दके प्रदाता अत्रि मुनि भी वर प्राप्तकर हर्षित हो अनसूयाके साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानपर चले आये ॥ 23 ॥
तब अनेक लीलाओंको करनेवाले वे ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव प्रसन्न हो पुत्ररूपसे अनसूयाके गर्भसे उत्पन्न हुए। समय पूर्ण होनेपर मुनीश्वरके द्वारा अनसूयासे ब्रह्माके अंशसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए, किंतु देवताओंके द्वारा समुद्र में डाल देनेके कारण वे पुनः समुद्रसे उत्पन्न हुए 24-25 ।। हे मुने! विष्णुके अंशसे अत्रिके द्वारा उन अनसूयासे दत्तात्रेय उत्पन्न हुए, जिन्होंने सर्वोत्तम संन्यासपद्धतिका संवर्धन किया ।। 26 ।। हे मुनिसत्तम! अत्रिके द्वारा उन अनसूयासे शिक्के अंशसे श्रेष्ठ धर्मका प्रचार करनेवाले मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा उत्पन्न हुए। रुद्रने दुर्वासाके रूपमें प्रकट होकर ब्रह्मतेजको बढ़ाया और दयापूर्वक बहुतोंके धर्मकी परीक्षा भी ली ॥ 27-28 ॥ हे मुनीश्वर सूर्यवंशमें उत्पन्न जो अम्बरीष नामक राजा थे, उनकी परीक्षा दुर्वासाने ली थी; उस आख्यानको आप सुनिये ॥ 29 ॥ वे नृपश्रेष्ठ अम्बरीष सात द्वीपोंवाली पृथ्वीके स्वामी थे। एकादशीके व्रतमें स्थित होकर वे दृढ़ नियमका पालन करते थे। उन राजाका यह दृढ़ संकल्प था कि मैं एकादशीव्रतकर द्वादशीको पारण करूंगा ll 30-31 ॥शंकरजीके अंशसे उत्पन्न हुए मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा उनके उस नियमको जानकर अपने अनेक शिष्योंको साथ ले उनके समीप गये ॥ 32 ॥
उस दिन स्वल्प द्वादशी जानकर राजाने [पारण करनेके लिये] ज्यों ही भोजन करनेका विचार किया, उसी समय शिष्यों सहित दुर्वासा वहाँ आ पहुँचे, तब राजाने उन्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया ॥ 33 ॥
इसके बाद मुनि दुर्वासा शिष्योंके साथ स्नान करनेके लिये चले गये और राजाकी परीक्षा लेनेके लिये उन्होंने वहाँ बहुत विलम्ब कर दिया ॥ 34 ॥
तब धर्ममें विघ्न जानकर राजा शास्त्रकी आज्ञासे जलका प्राशन करके दुर्वासाके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे ।। 35 ।।
इसी बीच महर्षि दुर्वासा यहाँ आ पहुँचे और राजाको जलप्राशन किया जानकर उनकी परीक्षा लेनेके लिये [महर्षिने भयानक] आकृति धारण कर ली और अत्यन्त क्रुद्ध हो गये। शिवके अंशसे उत्पन्न हुए वे दुर्वासा धर्मकी परीक्षा करनेके उद्देश्यसे राजासे कठोर वचन कहने लगे ।। 36-37 ll
दुर्वासा बोले- हे अधम नृप ! तुमने मुझे निमन्त्रण देकर बिना भोजन कराये ही जल पी लिया। मैं तुम्हें उसका फल दिखाता हूँ; क्योंकि मैं दुष्टोंको दण्ड देनेवाला हूँ ॥ 38 ll
इतना कहकर क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले वे ज्यों ही राजाको भस्म करनेके लिये उद्यत हुए, इतनेमें ही राजाके भीतर रहनेवाला ईश्वरका चक्र उनकी रक्षाके लिये शीघ्रतासे प्रकट हो गया ।। 39 ।।
वह सुदर्शन चक्र शिवमायासे विमोहित शिवस्वरूप मुनि दुर्वासाको न जानकर उन्हें जलानेके लिये भयंकर रूपमें जल उठा। इसी समय अशरीरी आकाशवाणीने विष्णुप्रिय ब्राह्मणभक्त महात्मा अम्बरीषसे कहा- ॥ 40-41 ॥
आकाशवाणी बोली- हे राजन् शिवजीने ही यह सुदर्शन चक्र विष्णुको प्रदान किया है; दुर्वासाको जलाने के लिये प्रचलित चक्रको इस समय शीघ्र शान्त कीजिये ।। 42 ।।ये दुर्वासा साक्षात् शिव हैं इन्होंने ही विष्णुको यह चक्र प्रदान किया है। हे नृपश्रेष्ठ! इन्हें सामान्य मुनि मत समझिये। ये मुनीश्वर आपके धर्मको परीक्षाके लिये आये हैं, अतः शीघ्र ही इनकी शरणमें जाइये, नहीं तो प्रलय हो जायगा ।। 43-44 ।।।
नन्दीश्वर बोले- हे मुनीश्वर ऐसा कहकर आकाशवाणी शान्त हो गयी, तब वे अम्बरीष भी शिवके अंशस्वरूप उन मुनिको स्तुति आदरसे करने लगे ।। 45 ।।
अम्बरीषजी बोले- यदि मैंने दान किया है, इष्टापूर्त किया है, अपने धर्मका भलीभाँति अनुष्ठान किया है और हमारा कुल ब्रह्मण्य है, तो विष्णुका यह अस्त्र शान्त हो जाय ll 46 ll
यदि मेरे द्वारा सेवित भक्तवत्सल भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं तो यह सुदर्शनचक्र विशेष रूपसे शान्त हो जाय ।। 47 ।।
नन्दीश्वर बोले- हे मुनीश्वर इस प्रकार रुद्रांशभूत दुर्वासाके आगे अम्बरीषके स्तुति करनेपर [आकाशवाणीसे] प्रेरित बुद्धिवाला वह शैव सुदर्शन चक्र उन्हें शिवांश जानकर पूर्ण रूपसे शान्त हो गया ॥ 48 ll
इसके बाद उन राजा अम्बरीषने अपनी परीक्षाके निमित्त आये हुए उन मुनिको शिवावतार जानकर उन्हें प्रणाम किया ।। 49 ।।
तदनन्तर शिवजीके अंशसे उत्पन्न वे मुनि अत्यन्त प्रसन्न हो गये और भोजन करके अभीष्ट वर प्रदानकर अपने स्थानको चले गये। हे मुझे मैंने अम्बरीषकी परीक्षामें दुर्वासाका चरित्र कह दिया। हे मुनीश्वर! अब आप उनका दूसरा चरित्र सुनिये ।। 50-51 ॥
तत्पश्चात् उन्होंने दशरथपुत्र रामकी नियमसे परीक्षा ली। काल जब मुनिका रूप धारणकर श्रीरामचन्द्रजीसे भेंट करनेके लिये पहुँचा, तब उसने रामसे एक अनुबन्ध किया [ और कहा-मैं आपसे कुछ बात करूंगा। किंतु यदि उस समय कोई तीसरा पहुँचा तो वह आपका वध्य | होगा। रामचन्द्रजीने तथास्तु कहकर लक्ष्मणको पहरेपर नियुक्त कर दिया और कालसे एकान्तमें बातचीत करने लगे। इसी बीच वहाँ दुर्वासा पहुँचे।] उन्होंने लक्ष्मणसे कहा- मैं आवश्यक कार्यसे रामचन्द्रसे मिलना चाहताहूँ। लक्ष्मणजीने इधर रामकी प्रतिज्ञा, उधर दुर्वासाका शाप - इस प्रकार दोनों ओरसे असमंजसमें पड़कर विचार किया कि ब्रह्मशापसे दग्ध होना अच्छा नहीं, अतः उन्होंने दुर्वासाके आनेका समाचार श्रीरामको दे दिया। हे मुगे। इस प्रकार दुर्वासा द्वारा हठपूर्वक भेजे जानेपर श्रीरामने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार तत्क्षण लक्ष्मणको त्याग दिया ॥ 52-53 ॥
महर्षियोंने यह कथा बहुधा कही हैं, जिसके कारण यह लोकमें प्रसिद्ध है। अतः इसे विस्तारसे नहीं कहा; क्योंकि बुद्धिमान् लोग तो इस कथाको जानते ही हैं ॥ 54 ॥
महर्षि दुर्वासा उनके इस अत्यन्त दृढ़ नियमको देखकर सन्तुष्ट हुए और प्रसन्नचित्त हो उन्हें वर प्रदान किया ॥ 55 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! उन्होंने श्रीकृष्णके नियमकी भी - परीक्षा लो थी मैं उस कथाको कह रहा हूँ, आप उसे सुनिये। ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे पृथ्वीका भार उतारनेके लिये एवं साधुओंकी रक्षा करनेके लिये भगवान् विष्णु वसुदेवके पुत्ररूपमें अवतरित हुए ॥ 56-57 ll
श्रीकृष्ण नामवाले विष्णुने ब्रह्मद्रोही खलों, दुष्टों एवं महापापियोंका संहार करके समस्त साधुओं एवं ब्राह्मणोंकी रक्षा की ॥ 58 ॥
वे वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण ब्राह्मणों के प्रति अत्यधिक भक्ति रखते थे और प्रतिदिन बहुत से ब्राह्मणोंको सरस भोजन कराते थे ॥ 59 ॥
'श्रीकृष्ण ब्राह्मणोंके विशेषरूपसे भक्त हैं' जब वे इस प्रसिद्धिको प्राप्त हुए, तब हे मुने! उन्हें देखनेकी इच्छासे वे (दुर्वासा) मुनि कृष्णके पास पहुँचे ॥ 60 ॥ उन्होंने श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणीको रथमें जोत दिया और उस रथपर स्वयं सवार होकर [उन्हें] हाँकने लगे। श्रीकृष्ण [ एवं रुक्मिणी] ने बड़ी प्रसन्नताके साथ उस रथका वहन किया ॥ 61 ॥
[ब्राह्मणके विषयमें] उन दोनोंकी इतनी बड़ी दृढ़ता देखकर रथसे उतरकर मुनिने प्रसन्न हो उन्हें वज्रके समान अंगवाला होनेका वर दिया ॥ 62 ॥
हे मुने! एक समय गंगाजीमें स्नान करते हुए मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा नग्न हो गये थे; उस समय वे कौतुकी मुनि लज्जाका अनुभव करने लगे ।। 63 ।।उस समय वहाँ स्नान कर रही द्रौपदीने यह जानकर अपना आँचल फाड़कर तथा उसे आदरपूर्वक प्रदान करके उनकी लज्जाको ढंक दिया था ।। 64 ।।
इस प्रकार प्रवाहके द्वारा अपने समीप आये उस वस्त्रको लेकर वे मुनि अपने गुह्य अंगको उससे ढँककर उस [ द्रौपदी ] पर प्रसन्न हुए और उन्होंने द्रौपदीको उसके आँचलके बढ़ने का वर दिया। समय आनेपर उसी वरदानके प्रभावसे द्रौपदीने पाण्डवोंको सुखी बनाया ।। 65-66 ।।
हंस एवं डिम्भ नामक महाखल कोई दो राजा थे। उन्होंने दुर्वासाका अनादर किया। तब इन्हीं दुर्वासाने श्रीकृष्णको सन्देश देकर उनका नाश करवाया ॥ 67 ॥ उन्होंने पृथ्वीपर विशेषरूपसे ब्रह्मतेज और शास्त्रकी रीतिके अनुसार संन्यासपद्धतिकी स्थापना की ।। 68 ॥ उन्होंने अत्यन्त सुन्दर उपदेश देकर बहुतों का उद्धार किया और विशेष रूपसे ज्ञान देकर बहुतोंको मुक्त भी कर दिया ॥ 69 ॥
इस प्रकार उन दुर्वासाने अनेक विचित्र चरित्र किये। [दुर्वासाका] यह चरित्र श्रवण करनेवालेको धन, यश तथा आयु प्रदान करनेवाला और सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है ॥ 70 ॥
जो दुर्वासाके इस चरित्रको प्रीतिपूर्वक सुनता है। अथवा जो प्रसन्नतापूर्वक दूसरोंको सुनाता है, वह इस लोकमें एवं परलोकमें सुखी रहता है ॥ 71 ॥