नन्दीश्वर बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! हे विप्र ! अब मैं शिवजीके उस अवतारका वर्णन करूँगा, जिसे [ किसी] नारीके सन्देहका निवारण करनेके लिये उन्होंने अपने भक्तपर दया करके ग्रहण किया था, उसे आप सुनिये ॥ 1 ॥
विदर्भनगरमें धर्मात्मा, सत्यशील तथा शिवभक्तोंसे प्रेम करनेवाला सत्यरथ नामक एक राजा था ॥ 2 ॥ हे मुने! धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करते एवं शिवधर्मसे सुखपूर्वक निवास करते हुए उस राजाका बहुत समय बीत गया ॥ 3 ॥
किसी समय उसके नगरको अवरुद्ध करनेवाले, बहुत-सी सेनासे युक्त तथा बलसे उन्मत्त शाल्वसंज्ञक क्षत्रिय वीरोंके साथ उस राजाका घोर युद्ध हुआ ॥ 4 ॥
उन शाल्ववीरोंके साथ भयानक युद्ध करके नष्ट हुए पराक्रमवाला वह विदर्भराज दैवयोगसे उनके द्वारा मार दिया गया। शाल्वोंके द्वारा रणभूमिमें उस राजाके मारे जानेपर उसके बचे हुए सैनिक भयसे व्याकुल होकर मन्त्रियोंके साथ भाग गये ॥ 5-6 ॥
हे मुने! उसके बाद उस राजाकी गर्भवती रानी | शत्रुओंके द्वारा घिरी होनेपर भी रात्रिके समय बड़े यत्नसे नगरसे बाहर चली गयी। शोक सन्तप्त वह रानी [राजधानीसे] निकलकर शिवके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई पूर्व दिशाकी ओर बहुत दूर चली गयी ॥ 7-8॥इस प्रकार शिवजीकी दयासे [सुरक्षित हुई] वह रानी नगरसे बहुत दूर जा पहुँची और उसने प्रातः कालके समय [वहाँपर] एक स्वच्छ सरोवरको देखा ॥ 9 ॥
वहाँ आकर राजाकी उस सुकुमार पत्नीने शोकसे व्याकुल हो विश्रामके लिये उस सरोवरके तटपर एक छायादार वृक्षका आश्रय लिया। वहाँपर रानीने दैववश शुभ ग्रहोंसे युक्त मुहूर्तमें सर्वलक्षणसम्पन्न दिव्य पुत्रको जन्म दिया ।। 10-11 ।।
उसी समय भाग्यवश प्याससे व्याकुल हुई उस सद्योजात शिशुकी माता वह रानी ज्यों ही जल लेनेके लिये सरोवरमें उतरी कि जलमें स्थित ग्राहने उसे पकड़ लिया। भूख एवं प्याससे अत्यधिक व्याकुल तथा पिता एवं मातासे रहित वह नवजात बालक सरोवर के किनारे रोने लगा ।। 12-13 ।।
हे मुने! [उत्पन्न होते ही भूख-प्याससे व्याकुल हो] रोते हुए उस नवजात शिशुपर सर्वान्तर्यामी तथा सर्वरक्षक व महेश्वर दयाई हो उठे ॥ 14 ॥
उसी समय कष्ट दूर करनेवाले भगवान्के द्वारा मनसे प्रेरित की गयी एक भिखारिन वहाँ अकस्मात् आ पहुँची। अपने एक वर्षके पुत्रको लिये हुए उस विधवाने उस रोते हुए अनाथ बच्चेको वहाँ देखा ।। 15-16 ।।
हे मुने! उस बालकको निर्जन वनमें देखकर वह ब्राह्मणी अत्यन्त आश्चर्यचकित हो अपने हृदयमें बहुत विचार करने लगी ॥ 17 ॥
अहो! मैंने इस समय बहुत बड़ा आश्चर्य देखा, जो असम्भव एवं मन तथा वाणीसे सर्वथा अकथनीय है। तेजस्वियोंमें श्रेष्ठ इस बालकका अभीतक नालच्छेदन नहीं हुआ है और यह मातृविहीन हो रोता हुआ अकेला ही पृथिवीपर लेटा हुआ है ।। 18-19 ।।
यहाँ तो इसकी सहायता करनेवाले इसके माता पिता आदि कोई नहीं हैं, इसमें क्या कारण हो सकता है, अहो, दैवबल बड़ा प्रबल है ! ॥ 20 ॥
यह न जाने किसका पुत्र है, इसे जाननेवाला भी यहाँ कोई नहीं है, जिससे इसके जन्मके विषयमें मैं पूछूं। मुझे तो इसपर बहुत ही दया आ रही है ॥ 21 ॥मैं अब इस बालकका अपने औरसपुत्रकी भाँति पालन करना चाहती हूँ, परंतु इसके कुल और जन्म आदिका ज्ञान न होनेसे इसे छूनेका साहस नहीं होता ॥ 22 ॥
नन्दीश्वर बोले- जब वह श्रेष्ठ ब्राह्मणी अपने मनमें इस प्रकारका विचार कर रही थी, उसी समय भक्तवत्सल शिवजीने बड़ी दया की ॥ 23 ॥
सदैव महान् लीलाएँ करनेवाले, स्वयं उपाधिरहित तथा भक्तोंको हर प्रकारका सुख देनेवाले उन महेश्वरने [उस समय] भिक्षुकका रूप धारण कर लिया ॥ 24 ॥ भिक्षुकरूपधारी वे परमेश्वर वहाँ सहसा आये, जहाँ उस बालकके विषयमें जाननेकी इच्छावाली सन्देहग्रस्त ब्राह्मणी विद्यमान थी ॥ 25 ॥
तब अविज्ञातगति तथा दयासागर उन भिक्षुक रूपधारी भगवान् शंकरने हँसकर उस ब्राह्मणपत्नीसे कहा- ॥ 26 ॥
भिक्षुश्रेष्ठ बोले- हे ब्राह्मणी! तुम अपने मनमें शंका मत करो और दुखी मत होओ, तुम अपने पुत्रतुल्य इस पवित्र बालककी प्रसन्नतापूर्वक रक्षा करो थोड़े ही समयके उपरान्त इस बालकसे तुम्हारा परम कल्याण होनेवाला है, अतः सब प्रकारसे इस महातेजस्वी शिशुका पालन-पोषण करो ॥ 27-28 ।। नन्दीश्वर बोले- भिक्षुरूप धारण करनेवाले करुणासागर शिवजीने जब इस प्रकार कहा, तब ब्राह्मणीने प्रेमके साथ आदरपूर्वक उनसे पूछा- ॥ 29 ॥
ब्राह्मणी बोली- मैं आपकी आज्ञासे अपने पुत्रके समान इस बालककी रक्षा करूँगी तथा भरण-पोषण करूँगी, इसमें सन्देह नहीं है, आप मेरे भाग्यसे ही यहाँ पधारे हैं। फिर भी मैं आपसे सत्य-सत्य विशेष रूपसे जानना चाहती हूँ कि यह कौन है, यह किसका पुत्र है और यहाँ आये हुए आप कौन हैं ? ॥ 30-31 ll
हे भिक्षुवर! हे प्रभो ! मुझे बारंबार ऐसा ज्ञात हो रहा है कि आप दयासागर भगवान् शिव हैं और यह शिशु पूर्वजन्ममें आपका भक्त था ॥ 32 ॥
किसी कर्मके दोषसे यह इस अवस्थाको प्राप्त हुआ है, उसे भोगकर आपकी कृपासे यह पुनः परम कल्याणको प्राप्त करेगा ॥ 33 ॥आपकी मायासे मोहित हुई मैं अपना मार्ग भूलकर इधर आ गयी, [जिससे ज्ञात होता है कि] इसके पालन करनेके लिये आपने ही मुझे यहाँ भेजा है ll 34 ll
नन्दीश्वर बोले- शिवजीके दर्शनसे ज्ञानको प्राप्त हुई तथा विशेषरूपसे जाननेकी इच्छावाली उस ब्राह्मणीसे भिक्षुरूपधारी शिवने कहा- ॥ 35 ॥
भिक्षुवर बोले हे विप्रपत्ति इस सर्वमान्य बालकका पूर्वकालीन इतिहास तुमसे प्रसन्नतापूर्वक कह रहा हूँ। हे अनघे! तुम प्रेमपूर्वक इसे सुनो ॥ 36 ॥
यह [बालक] शिवभक्त, बुद्धिमान् तथा अपने धर्ममें निरत रहनेवाले विदर्भराज सत्यरथका पुत्र है ॥ 37 ॥
[हे ब्राह्मणी[] सुन, राजा सत्यरथ शत्रु शाल्वोंद्वारा युद्धमें मार डाले गये, जिससे अत्यन्त भयभीत हुई उनकी पत्नी रात्रिमें शीघ्रतासे अपने घर से निकल गयीं ॥ 38 ॥
उन्होंने इस वनमें आकर प्रातःकाल होते-होते इस पुत्रको जन्म दिया, किंतु प्यास लगनेसे वह सरोवरमें उतरीं, तब दुर्भाग्यसे ग्राहने उन्हें अपना ग्रास 'बना लिया ॥ 39 ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार उन्होंने बालककी उत्पत्ति, उसके पिताका संग्राममें मरण एवं ग्राहद्वारा उसकी माताकी मृत्युके विषयमें उससे कहा ॥ 40 ll
हे मुनीश्वर तब वह ब्राह्मणी अत्यन्त विस्मित हुई और उसने जानी तथा सिद्धस्वरूप उन भिक्षुकसे पुनः पूछा- ॥ 41 ॥
ब्राह्मणी बोली हे भिक्षो इस राजपुत्रका श्रेष्ठ पिता उत्तमोत्तम भोग करते हुए भी इन क्षुद्र शाल्वोंके द्वारा किस प्रकार मारा गया और ग्राहने इस शिशुकी माताको शीघ्र क्यों ग्रास बना लिया, जिसके कारण यह जन्मसे अनाथ एवं बन्धुरहित हो गया है ? ।। 42-43 ।।
हे भिक्षो मेरा यह पुत्र भी परम दरिद्र तथा भिक्षुक क्यों हुआ? किस उपायसे मेरे ये दोनों पुत्र सुखी होंगे, यह बताइये ll 44 ll
नन्दीश्वर बोले- उस ब्राह्मणीका यह वचन | सुनकर भिक्षुरूपधारी उन परमेश्वरने प्रसन्नचित्त होकर हँसते हुए उससे कहा- ।। 45 ।।भिक्षुवर्य बोले हे विप्रपत्नि! मैं तुम्हारे सभी प्रश्नोंका उत्तर विशेषरूपसे दे रहा हूँ, तुम सावधान होकर इस उत्तम चरित्रका श्रवण करो ॥ 46 ॥
विदर्भ देशका राजा, जो इस बालकका पिता था, वह पूर्वजन्ममें पाण्ड्य देशका श्रेष्ठ राजा था ॥ 47 ॥ सम्पूर्ण उपद्रवोंका नाश करनेवाला वह शिवभक्त राजा सम्पूर्ण पृथ्वीका पालन करता हुआ अपनी प्रजाको प्रसन्न रखता था ॥ 48 ॥ किसी समय उसने दिनमें निराहार रहकर नक्तव्रत करते हुए त्रयोदशीके प्रदोषकालमें शिवकी पूजा की। जब वह प्रदोषकालमें शिवजीका पूजन कर रहा था, तभी नगरमें बड़ा भयानक शब्द हुआ ।। 49-50 ।। उस [भयावह] ध्वनिको सुनकर वह राजा शत्रुके आक्रमणकी आशंकासे शिवार्चनका परित्यागकर घरसे बाहर निकल पड़ा ॥ 51 ॥
इसी समय उसका महाबली मन्त्री भी शत्रुता करनेवाले सामन्तको साथ लेकर राजाके निकट आ गया ।। 52 ।।
अत्यधिक क्रोधसे व्याकुल राजाने उस शत्रु सामन्तको देखकर बिना धर्माधर्मका विचार किये निर्दयताके साथ उसका सिर कटवा दिया ॥ 53 ॥
उस शिवपूजाको समाप्त किये बिना ही अपवित्र तथा नष्ट बुद्धिवाले राजाने रातमें प्रेमपूर्वक भोजन किया, जिससे वह मंगलहीन हो गया ॥ 54 ll
उसके पश्चात् इस जन्ममें वह विदर्भ देशका शिवभक्त राजा हुआ, किंतु [पूर्वजन्ममें] शिवार्चनमें होनेवाले पापके कारण शत्रुओंने राज्यसुखभोगके समय ही उसका वध कर दिया ।। 55 ।।
पूर्वजन्ममें जो उसका पुत्र था, वह ही इस जन्ममें भी हुआ है, किंतु शिवपूजाके व्यतिक्रमसे यह सारे ऐश्वर्यसे रहित है ॥ 56 ॥
इसकी माताने पूर्वजन्ममें अपनी सौतको छलसे मरवा दिया था, उस पापसे इस जन्ममें उसे ग्राहने निगल लिया ॥ 57 ॥
[ हे ब्राह्मणी!] मैंने इन सबका सारा वृत्तान्त तुमसे कह दिया, भक्तिपूर्वक शिवकी अर्चना न करनेवाले मनुष्य दरिद्र हो जाते हैं ll 58 llतुम्हारा यह पुत्र पूर्वजन्ममें श्रेष्ठ ब्राह्मण था, इसने यज्ञादि सुकर्म किये नहीं; केवल प्रतिग्रहोंको लेनेमें ही अपना जीवन बिता दिया। है ब्राह्मणी! इसीलिये तुम्हारा पुत्र दरिद्र हुआ है, उन दोषोंको दूर करनेके लिये तुम शंकरकी शरणमें जाओ और इन दोनों बालकोंको लेकर शिवजीकी पूजा करो। इन दोनोंका यज्ञोपवीत हो जानेके पश्चात् शिवजी कल्याण करेंगे ।। 59-61 ll
नन्दीश्वर बोले- उसे ऐसा उपदेश देकर भिक्षुरूपधारी भक्तवत्सल भगवान् शिवने उसे अपना उत्कृष्ट स्वरूप दिखाया ॥ 62 ॥
इसके बाद वह ब्राह्मणी उन भिक्षुश्रेष्ठको शिव जानकर उन्हें भलीभाँति प्रणाम करके प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीमें उन प्रभुकी स्तुति करने लगी ॥ 63 ॥
उसके बाद विप्रपत्नीके देखते-देखते भिक्षुरूपधारी वे भगवान् शिव शीघ्र ही वहीं अन्तर्धान हो गये ।। 64 ।। भिक्षुकके चले जानेपर ब्राह्मणीको विश्वास हो गया और उस लड़केको लेकर वह अपने पुत्रसहित घर चली गयी ॥ 65 ॥
एकचक्रा नामक रमणीय ग्राममें निवास करती हुई वह ब्राह्मणी उत्तम अन्नोंसे अपने पुत्र तथा राजपुत्रका पालन करने लगी ॥ 66 ॥
पुनः ब्राह्मणोंने उन दोनोंका यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न किया, वे दोनों शिवपूजामें तत्पर हो अपने घरमें बढ़ने लगे ॥ 67 ॥ हे तात! वे दोनों ही शाण्डिल्य मुनिकी आज्ञासे नियममें तत्पर होकर शुभ व्रत करके प्रदोषकालमें शिवजीका पूजन करने लगे ॥ 68 ॥
किसी समय ब्राह्मणपुत्रके बिना ही नदीमें स्नान करनेके लिये गये हुए राजपुत्रने धनसे परिपूर्ण एक सुन्दर कलश पाया ॥ 69 ॥
इस प्रकार शिवजीकी पूजा करते हुए उन राजकुमार और ब्राह्मणकुमारके सुखपूर्वक चार महीने बीत गये ॥ 70 ॥
इसी रीतिसे अत्यन्त प्रसन्नतासे पुनः शिवजीका पूजन करते हुए उन दोनोंका उस घरमें एक वर्ष व्यतीत हुआ ॥ 71 ॥हे मुने! एक वर्ष बीत जानेपर वह राजपुत्र एक दिन उस ब्राह्मणपुत्रके साथ सर्वव्यापक शिवकी कृपासे वनप्रान्तमें जा पहुँचा और अकस्मात् वहाँपर आयी हुई तथा उसके पिताद्वारा प्रदत्त गन्धर्वकन्यासे विवाह करके अकण्टक राज्य करने लगा ।। 72-73 ॥
जिस ब्राह्मणीने अपने पुत्रके समान उसका पालन-पोषण किया था, वही उसकी माता हुई तथा | वह ब्राह्मणपुत्र उसका भाई हुआ ॥ 74 ॥
इस प्रकार शिवजीकी आराधना करके धर्मगुप्त नामक वह राजपुत्र विदर्भनगरमें उस रानीके साथ सुखोपभोग करने लगा ॥ 75 ॥
[हे मुने!] इस समय मैंने शिवजीके भिक्षुवर्यावतारका
वर्णन आपसे कर दिया, जो धर्मगुप्त नामक राजपुत्रको
सुख देनेवाला था ॥ 76 ॥
यह आख्यान निष्पाप, पवित्र, पवित्र करनेवाला, महान् धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षका साधन एवं सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला है ॥ 77 ॥
जो सावधान होकर इसे नित्य सुनता अथवा सुनाता है, वह समस्त इच्छित भोगोंको भोगकर अन्तमें | शिवपुरको जाता है ॥ 78 ॥