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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 44 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 44

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शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना

ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] चेतना प्राप्तकर शैलप्रिया सती मेना अत्यन्त क्षुब्ध होकर विलाप करने लगी और सबका तिरस्कार करने लगीं। उन्होंने व्याकुल होकर सर्वप्रथम अपने पुत्रोंको निन्दा की और इसके बाद वे अपनी पुत्रीको दुर्वचन कहने लगीं ॥ 1-2 ॥मेना बोली- हे मुने! पहले आपने ही कहा था कि यह पार्वती शिवको वरण करेगी। तत्पश्चात् हिमवान्से कहकर आपने उसे तपस्याके कार्य में लगाया ॥ 3 ॥

उसका तो प्रतिकूल एवं अनर्थकारी परिणाम दिखायी पड़ा, यह सत्य है। हे दुष्टबुद्धिवाले मुने! आपने मुझ अधमको सर्वथा धोखा दिया ॥ 4 ॥

हे मुने! उसने मुनियोंके द्वारा असाध्य परम दुष्कर जो तप किया, उसका यह फल प्राप्त हुआ, जो देखनेवालोंको भी दुःख देनेवाला है। अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ? कौन मेरे दुःखको दूर करेगा, मेरा कुल आदि नष्ट हो गया, मेरा जीवन भी नष्ट हो गया ।। 5-6 ।।

वे दिव्य ऋषि कहाँ गये ? मैं उनकी दाढ़ी-मूँछ उखाड़ लूँ। जो वसिष्ठपत्नी तपस्विनी है, वह धूर्त यहाँ स्वयं आयी थी ॥ 7 ॥

किनके अपराधसे मेरा सब कुछ नष्ट हो गया-ऐसा कहकर पुत्रीकी ओर देखकर वे कटु वचन कहने लगीं ॥ 8 ॥

हे सुते! हे दुष्टे! तुमने मुझे दुःख देनेवाला कर्म क्यों किया ? तुझ दुष्टने स्वयं सोना देकर काँच ले लिया ! ।। 9 ।।

चन्दनको छोड़कर तुमने अपने शरीरमें कीचड़का लेप कर लिया! हंसको उड़ाकर तुमने पिंजड़े में कौआ ग्रहण कर लिया ! ॥ 10 गंगाजलको दूर छोड़कर तुमने कुएँका जल पी लिया और सूर्यको छोड़कर प्रयत्नपूर्वक जुगनू ग्रहण कर लिया ! ll 11 ॥

चावलोंका त्यागकर भूसी खा ली और घीको छोड़कर आदरपूर्वक कारण्डका तेल पी लिया ! ॥ 12 ॥ सिंहकी सेवा छोड़कर तुमने शृगालकी सेवा की और ब्रह्मविद्याका त्यागकर तुमने कुत्सित गाथा सुनी ! ll 13 ॥

हे पुत्रि ! तुमने घरकी परम मांगलिक यज्ञविभूतिको छोड़कर अमंगल चिताभस्मको धारण किया ! ll14 ॥विष्णु आदि परमेश्वरों तथा श्रेष्ठ देवगणोंको छोड़कर तुमने कुबुद्धिसे शिवके निमित्त ऐसा तप किया! ॥ 15 ll

तुम्हें तथा तुम्हारी बुद्धिको धिक्कार है, तुम्हारे रूप तथा आचरणको धिक्कार है, तुम्हें उपदेश देनेवालेको धिक्कार है और तुम्हारी उन सखियोंको भी धिक्कार है! हे पुत्रि ! जो तुमको जन्म देनेवाले हैं-ऐसे हम दोनोंको धिक्कार है। हे नारद! आपकी बुद्धिको धिक्कार है और कुबुद्धि देनेवाले सप्तर्षियोंको धिक्कार है! ॥ 16-17 ॥

कुलको धिक्कार है, तुम्हारी कार्यकुशलताको धिक्कार है, तुमने जो कुछ किया, उस सबको धिक्कार है, तुमने घरको नष्ट कर दिया, अब तो मेरा मरण ही है ॥ 18 ॥

ये पर्वतराज मेरे निकट न आयें और स्वयं सप्तर्षिगण भी मुझे अपना मुँह न दिखायें ॥ 19 ॥ सब लोगोंने मिलकर यह क्या किया, जिससे मेरा कुल ही नष्ट हो गया। मैं वन्ध्या क्यों न हुई, मेरा गर्भ क्यों नहीं गिर गया। मैं ही क्यों नहीं मर गयी अथवा मेरी पुत्री ही क्यों नहीं मर गयी। आकाशमें [ ले जाकर ] राक्षसोंने उसे क्यों नहीं खा लिया ? ll 20-21 ॥

आज मैं तुम्हारा सिर काट डालूँ, अब मुझे इस शरीरसे क्या करना है, किंतु क्या करूँ, तुम्हें त्यागकर भी कहाँ जाऊँ? हाय! मेरा जीवन ही नष्ट हो गया ।। 22 ।।

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर वे मेना मूर्च्छित हो पृथिवीपर गिर पड़ीं। वे शोक तथा रोष आदिसे व्याकुल होनेके कारण पतिके पास न जा सर्की ॥ 23 ॥

हे मुनीश्वर ! उस समय सारे घरमें हाहाकार मच गया, फिर सब देवता बारी-बारीसे वहाँ उनके समीप आये ॥ 24 ॥

हे देवमुने! पहले मैं स्वयं ही [उनके समीप ] आया तब हे ऋषिश्रेष्ठ! मुझे देखकर आप उनसे यह वचन कहने लगे- ॥ 25 ॥नारदजी बोले - [हे मेने] तुमने शिवजीके वास्तविक सुन्दर रूपको नहीं पहचाना, शिवजीने यह रूप लीलासे धारण किया है, यह उनका यथार्थ रूप नहीं है। हे पतिव्रते! इसलिये तुम क्रोध छोड़कर स्वस्थ हो जाओ और हठ छोड़कर कार्य करो तथा पार्वतीको शंकरके निमित्त प्रदान करो ।। 26-27 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तब आपका वचन | सुनकर मेनाने आपसे यह वाक्य कहा- तुम बड़े दुष्ट एवं अधम हो, उठो और यहाँसे दूर चले जाओ। उनके इस प्रकार कहने पर समस्त इन्द्रादि देवता तथा दिक्पाल क्रमसे आकर मेनासे यह वचन कहने लगे- ॥ 28-29 ।।

देवता बोले- हे मेने! हे पितृकन्ये प्रसन्न होकर तुम हमारी बात सुनो। ये दूसरोंको सुख देनेवाले साक्षात् शिवजी हैं। भक्तवत्सल इन भगवान् शिवने तुम्हारी पुत्रीका अत्यन्त कठिन तप देखकर कृपापूर्वक उसे दर्शन देकर वर प्रदान किया । ll 30-31 ॥

ब्रह्माजी बोले- इसके बाद मेना बारंबार बहुत विलाप करके देवताओंसे बोली- भयानक रूपवाले शिवको मैं अपनी कन्या नहीं दूँगी ll 32 ॥

आप सभी देवगण किसलिये प्रपंचमें पड़े हैं और इसके श्रेष्ठ रूपको व्यर्थ करनेके लिये तत्पर हैं ? ॥ 33 ॥

हे मुनीश्वर ! उनके इस प्रकार कहनेपर सभी वसिष्ठादि सप्तर्षि वहाँ आकर उनसे यह वचन कहने लगे ll34 ॥

सप्तर्षि बोले- हे पितृकन्ये! हे गिरिप्रिये! हम कार्य सिद्ध करनेके लिये आये हैं, जो बात ठीक है, उसे हम विपरीत कैसे मान सकते हैं? यह सबसे बड़ा लाभ है, जो आपको शंकरजीका दर्शन प्राप्त हुआ और वे दानके पात्र होकर आपके घर आये हैं॥ 35-36 ll

ब्रह्माजी बोले- उनके इस प्रकार कहनेपर मेनाने उन मुनियोंके वचनको झूठा समझ लिया और वे अज्ञानतावश रुष्ट होकर उन ऋषियोंसे इस प्रकार कहने लगीं - ॥ 37 ॥

मेना बोलीं- मैं शस्त्र आदिसे उसका वध कर डालूंगी, किंतु शंकरके निमित्त उसे नहीं दूँगी। आप सभी दूर चले जाइये और मेरे पास मत आइयेगा ॥ 38 ॥ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर वे मेना चुप हो गर्मी और पुनः विलाप करके अत्यन्त व्याकुल हो उठीं। हे मुने। उस समय इस समाचारसे बड़ा हाहाकार मच गया। तदनन्तर अत्यन्त व्याकुल होकर हिमालय मेनाको समझानेके लिये वहाँ आये और तत्त्वकी बात कहते हुए प्रेमपूर्वक उनसे कहने लगे ।। 39-40 ॥

हिमालय बोले – हे मेने ! हे प्रिये! तुम आज व्याकुल क्यों हो गयी, मेरी बात सुनो, तुम्हारे घर कौन-कौन लोग आये हैं, तुम इनकी निन्दा क्यों करती हो ? ॥ 41 ll

तुम शंकरको [ अच्छी तरह] नहीं जानती हो, अनेक रूप और नामवाले उन शंकरके विकट रूपको देखकर व्याकुल हो गयी हो। उन शंकरको मैं जानता हूँ। वे सबका पालन करनेवाले, पूज्योंके भी पूज्य और निग्रह तथा अनुग्रह करनेवाले हैं ।। 42-43 ॥

हे प्राणप्रिये हे पुण्यशीले हठ मत करो और दुःखका त्याग करो हे सुव्रते। शीघ्रतासे उठी कार्य करो ll 44 ll

तुम मेरी बात मानो, ये शंकर विकट रूप धारणकर द्वारपर जो आये हैं, वे अपनी लीला ही दिखा रहे हैं ।। 45 ।।

हे देवि! पहले हम दोनोंने उनका श्रेष्ठ माहात्म्य देखकर ही कन्या देना स्वीकार किया था। हे प्रिये अब उस बातको सत्यरूपसे प्रमाणित करो ll 46 ll

ब्रह्माजी बोले- हे मुने! इस प्रकार कहकर उन पर्वतराज हिमालयने मौन धारण कर लिया। तब यह सुनकर पार्वतीकी माता मेना हिमालयसे कहने लगीं- ll 47 ॥

मेना बोली- हे नाथ! मेरी बात सुनिये और आप वैसा ही कीजिये, इस अपनी कन्या पार्वतीको | पकड़कर कण्ठमें रस्सी बाँधकर निःशंक हो नीचे गिरा दीजिये, किंतु मैं शिवको उसे नहीं दूंगी अथवा हे नाथ! हे पर्वतराज इस कन्याको ले जाकर दयारहित होकर समुद्रमें डुबो दीजिये और इसके बाद सुखी हो जाइये। ऐसा करनेसे ही सुख मिलेगा। हे स्वामिन् । यदि आप भयंकर रूपवाले रुद्रको पुत्री देंगे, तो मैं निश्चित रूपसे शरीर त्याग दूँगी ॥ 48-50 ॥ब्रह्माजी बोले- हे नारद जब मेना हठपूर्वक यह बात कह रही थीं, उसी समय पार्वती स्वयं आ गयीं और मनोहर वचन कहने लगीं ॥ 51 ॥

पार्वती बोलीं- हे मातः ! आपकी बुद्धि विपरीत तथा अमंगलकारिणी कैसे हो गयी ? धर्मका अवलम्बन करनेवाली होनेपर भी आप धर्मका त्याग क्यों कर रही हैं? ये रुद्र सबसे श्रेष्ठ, साक्षात् ईश्वर, सबको उत्पन्न करनेवाले, शम्भु, सुन्दर रूपवाले, सुख देनेवाले तथा सभी श्रुतियोंमें वर्णित है ll 52-53 ।।

हे मातः! ये ही महेश कल्याण करनेवाले, सर्वदेवोंके प्रभु तथा स्वराट् हैं। नाना प्रकारके रूप एवं नामवाले और ब्रह्मा एवं विष्णु आदिसे भी सेवित हैं ॥ 54 ॥

वे सबके कर्ता हर्ता, अधिष्ठान, निर्विकारी, त्रिदेवेश, अविनाशी तथा सनातन हैं। इन्हींके लिये सभी देवगण दासके समान होकर तुम्हारे द्वारपर उत्सव करते हुए आये हैं। अब इससे बढ़कर और क्या सुख होगा ? ।। 55-56 ll

अतः हे मातः प्रयत्नपूर्वक उठिये और अपने जीवनको सफल कीजिये, आप इन शंकरजीके निमित्त मुझे प्रदान कीजिये और अपना गृहस्थाश्रम सफल बनाइये। हे जननि ! आज आप मुझे परमेश्वर शंकरके निमित्त प्रदान कीजिये। हे मातः ! मैं आपसे कह रही हूँ, आप मेरी इस प्रार्थनाको स्वीकार कीजिये ।। 57-58 ।।

यदि आपने मुझे इनको नहीं दिया, तो मैं किसी दूसरेका पतिके रूपमें वरण नहीं करूँगी। परवंचक शृगाल सिंहके भागको किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? ॥ 59 ॥

हे मातः ! मैंने स्वयं मन, वचन तथा कर्मसे शिवजीका वरण कर लिया है, अब आप जैसा चाहती हैं, वैसा कीजिये ॥ 60 ॥

ब्रह्माजी बोले - [ हे नारद!] पार्वतीका यह वचन सुनकर पर्वतराजकी प्रिया मेना बहुत विलापकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर उनके शरीरको पकड़कर दाँतोंको कटकटाती हुई व्याकुल तथा रोषयुक्त होकर मुक्के तथा केहुनोंसे पुत्रीको मारने लगीं ॥ 61-62 llहे तात! हे मुने! तदनन्तर वहाँपर तुम तथा अन्य जो ऋषि थे, वे मेनाके हाथसे पार्वतीको छुड़ाकर दूर ले गये। उन सबको वैसा करते देखकर उन्हें बार-बार फटकारकर वे मेना उन्हें सुनाती हुई पुनः दुर्वचन कहने लगीं- ॥ 63-64 ॥

मेना बोलीं- हाय ! इस दुराग्रहशील पार्वतीका अब मैं क्या करूँ ? अब निश्चय ही या तो इसे तीव्र विष दे दूंगी या कुएँ में डाल दूँगी ॥ 65 ॥

अथवा अस्त्र-शस्त्रोंसे काटकर इस कालीके टुकड़े टुकड़े कर डालूंगी अथवा अपनी पुत्री इस पार्वतीको समुद्रमें डुबो दूंगी। अथवा में शीघ्र ही निश्चित स्वयं अपना शरीर त्याग दूँगी, किंतु विकट रूपधारी शिवको अपनी कन्या दुर्गा नहीं दूँगी ।। 66-67 ।।

इस दुष्टाने यह कैसा विकराल वर पाया है। ऐसा करके इसने मेरा, गिरिराजका तथा इस कुलका उपहास करा दिया ॥ 68 ॥

इस [शंकर]-के न माता हैं, न पिता हैं, न भाई हैं, न गोत्रमें उत्पन्न बन्धु हैं, न तो इसका सुन्दर रूप है, न तो इसमें चतुराई ही है, न इसके पास घर है, न वस्त्र है, न अलंकार है, इसका कोई सहायक भी नहीं हैं, इसका वाहन भी अच्छा नहीं है, इसकी वय भी [विवाहयोग्य ] नहीं है। इसके पास धन भी नहीं है। न इसमें पवित्रता है, न विद्या है, इसका कष्टदायक कैसा शरीर है, फिर [इसका] क्या देखकर मैं इसे अपनी सुमंगली पुत्री प्रदान करूँ ? ।। 69-71 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे मुने। इस प्रकार बहुत | विलाप करके दुःख तथा शोकसे व्याप्त होकर वे मेना जोर-जोरसे रोने लगीं। उसके बाद मैं शीघ्रतासे आकर उन मेनासे अज्ञानका हरण करनेवाले श्रेष्ठ तथा परम शिवतत्त्वका वर्णन करने लगा ।। 72-73 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे मेने ! आप प्रीतिपूर्वक मेरे शुभ वचनको सुनिये, जिसके प्रेमपूर्वक सुननेसे आपकी कुबुद्धि नष्ट हो जायगी ॥ 74 ॥

शंकर जगत् की सृष्टि करनेवाले, पालन करनेवाले तथा विनाश करनेवाले हैं। आप उनके रूपको नहीं जानती हैं और दुःख क्यों उठा रही हैं ? ॥ 75 ॥ये प्रभु अनेक रूप तथा नामवाले, विविध लीला करनेवाले, सबके स्वामी, स्वतन्त्र, मायाधीश तथा विकल्पसे रहित हैं। हे मेने! ऐसा जानकर आप शिवाको शिवजीके लिये प्रदान कीजिये और सभी कार्यका नाश करनेवाले इस दुराग्रह तथा दुर्बुद्धिका त्याग कीजिये ।। 76-77 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुने मेरे ऐसा कहनेपर वे मेना बार-बार विलाप करती हुई शनैः-शनैः लज्जा त्यागकर मुझसे कहने लगीं- ॥ 78 ॥

मेना बोलीं- हे ब्रह्मन्! आप इसके अति श्रेष्ठ रूपको किसलिये व्यर्थ कर रहे हैं? आप इस शिवाको स्वयं मार क्यों नहीं डालते? आप ऐसा न कहिये कि इसे शिवको दे दीजिये, मैं अपनी इस प्राणप्रिया पुत्रीको शिवके निमित्त नहीं दूँगी ।। 79-80 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे महामुने। तब उनके ऐसा कहनेपर सनक आदि सिद्ध आकर [मेनासे] प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ 81 ॥

सिद्ध बोले- ये परम सुख प्रदान करनेवाले साक्षात् परमात्मा शिव हैं। इन प्रभुने कृपा करके आपकी पुत्रीको दर्शन दिया है ॥ 82 ॥

ब्रह्माजी बोले- तब मेनाने बार बार विलाप करते हुए उनसे भी कहा कि मैं भयंकर रूपवाले शंकरको इसे नहीं दूंगी ॥ 83 ॥ प्रपंचवाले आप सभी सिद्ध लोग इसके श्रेष्ठ रूपको व्यर्थ करनेके लिये क्यों उद्यत हुए हैं ? ।। 84 ।।

हे मुने! उनके ऐसा कहनेपर मैं चकित हो गया और सभी देव, सिद्ध, ऋषि तथा मनुष्य भी आश्चर्यमें पड़ गये। इसी समय उनके दृढ़ तथा महान् हठको सुनकर शिवके प्रिय विष्णुजी शीघ्र ही वहाँ आकर यह कहने लगे- 85.86 ।।

विष्णुजी बोले- आप पितरोंकी प्रिय मानसी कन्या हैं, गुणोंसे युक्त हैं और साक्षात् हिमालयकी पत्नी हैं, आपका अत्यन्त पवित्र ब्रह्मकुल है। वैसे ही आपके सहायक भी हैं, इसलिये आप लोकमें धन्य हैं, मैं विशेष क्या कहूँ। आप धर्मकी आधारभूत हैं, तो आप धर्मका त्याग क्यों कर रही हैं ? ।। 87-88 ।।भला, आप ही विचार करें कि सभी देवता. ऋषि, ब्रह्माजी तथा मैं विरुद्ध क्यों बोलेंगे ? आप शिवजीको नहीं जानती हैं। वे निर्गुण, सगुण, कुरूप, सुरूप, सज्जनोंको शरण देनेवाले तथा सभीके सेव्य हैं ।। 89-90 ॥

उन्होंने ही मूल प्रकृति ईश्वरीदेवीका निर्माण किया और उस समय उनके बगलमें उन्होंने पुरुषोत्तमकी भी रचना की। तदनन्तर उन दोनोंसे मैं तथा ब्रह्मा अपने गुण तथा रूपके अनुसार उत्पन्न हुए हैं। किंतु वे रुद्र स्वयं अवतरित होकर लोकोंका हित करते हैं ।। 91-92 ॥

वेद, देवता तथा जो कुछ स्थावर-जंगमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब शिवजीसे ही उत्पन्न हुआ है। उनके स्वरूपका वर्णन किसने किया है और उसे कौन जान सकता है? मैं तथा ब्रह्माजी भी उनका अन्त न पा सके । ll 93-94 ।।

ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जो कुछ जगत् दिखायी देता है, उस सबको शिव समझिये, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। अपनी लीलासे इस प्रकारके सुन्दर रूपसे अवतीर्ण हुए वे [शिव] पार्वतीके तपके प्रभावसे ही आपके द्वारपर आये हैं ।। 95-96 ॥

इसलिये हे हिमालयपनि ! आप दुःखका त्याग कीजिये और शिवजीका भजन कीजिये, [ऐसा करनेसे] महान् आनन्द प्राप्त होगा और क्लेश नष्ट हो जायगा ॥ 97 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुने! इस प्रकार समझानेपर उन मेनाका विष्णुप्रबोधित मन कुछ कोमल हो गया ॥ 98 ॥

किंतु उस समय शिवको मायासे विमोहित | मेनाने हठका परित्याग नहीं किया और शिवको कन्या देना स्वीकार नहीं किया ।। 99 ।।

पार्वती माता गिरिप्रिया उन मेनाने विष्णुके मनोहर वचनको सुनकर कुछ उद्बुद्ध होकर विष्णुजी से कहा-यदि वे सुन्दर शरीर धारण करें, तो मैं अपनी कन्या दे सकती हैं, अन्यथा करोड़ों प्रयत्नोंसे भी मैं नहीं दूँगी। मैं सत्य तथा दृढ़ वचन कहती हूँ ।। 100-101llब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] जो सबको मोहनेवाली है, उस शिवेच्छासे प्रेरित हुई धन्य तथा दृढ़ व्रतवाली वे मेना इस प्रकार कहकर चुप हो गयीं ॥ 102 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा