सनत्कुमार बोले- अत्यन्त दीन ब्रह्मा तथा विष्णुजीका वचन सुनकर शंकरजी हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ 1 ॥
शिवजी बोले- हे हरे! हे वत्स! हे ब्रह्मन् ! आप दोनों शंखचूडसे उत्पन्न भयका पूर्णरूपसे त्याग कर दीजिये, आप लोगोंका निःसन्देह कल्याण होगा। हे प्रभो शंखचूडका सारा वृत्तान्त में जानता हूँ, वह पूर्वजन्ममें श्रीकृष्णका परम भक्त सुदामा नामका गोप था ।। 2-3 ll
मेरी आज्ञासे ही विष्णु श्रीकृष्णका रूप धारण करके मेरे द्वारा अधिष्ठित रम्य गोलोककी गोशाला में निवास करते हैं ॥ 4 ॥
'मैं स्वतन्त्र हूँ' अपनेको ऐसा समझकर वे पहले मोहको प्राप्त हुए और इस प्रकार मोहित होकर स्वच्छन्दकी भाँति नाना प्रकारकी क्रीडाएँ करने लगे ॥ 5 ॥
तब मैंने उन्हें अपनी मायासे मोहित कर दिया, जिससे उनकी सद्बुद्धि नष्ट हो गयी और उनसे उस सुदामाको शाप दिला दिया। इस प्रकार अपनी लीला करके मैंने [अपनी] माया हटा ली। तब मोहसे मुक्त हो जाने के कारण वे ज्ञानयुक्त तथा सदबुद्धियुक्त हो गये ।। 6-7 ॥
तब वे मेरे समीप आये और दीन होकर मुझे प्रणामकर हाथ जोड़कर विनम्र भावसे भक्तिपूर्वक मेरी स्तुति करने लगे। तब लज्जासे युक्त मनवाले उन सभीने सारा वृत्तान्त कहा और दीन होकर 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये 'मेरे सामने ऐसा वचन कहने लगे ॥ 8-9 ॥तब उनसे सन्तुष्ट होकर मैंने यह वचन कहा- हे कृष्ण ! आप सभी मेरी आज्ञासे भयका त्याग कर दीजिये। मैं आपलोगोंका सदा रक्षक हूँ। मेरे प्रसन्न रहनेसे आपलोगोंका कल्याण होगा। यह सब मेरी इच्छासे हुआ है, इसमें सन्देह नहीं है। [हे कृष्ण] आप इन राधा एवं पार्षदके साथ अपने स्थानको जाइये यह [सुदामा] इस भारतवर्ष में दानवके रूपमें जन्म लेगा, इसमें सन्देह नहीं है। समय आनेपर मैं आप दोनोंके शापका उद्धार करूँगा ll 10 - 12 / 2 ॥
तब बुद्धिमान् श्रीकृष्ण मेरे वचनको शिरोधार्य करके राधाके साथ बड़ी प्रसन्नतासे अपने स्थानको चले गये और वे दोनों ही भयपूर्वक मेरी आराधना करते हुए वहाँ निवास करने लगे ll 13-14 ॥
उस समय उन्हें ज्ञान हुआ कि यह सारा जगत् मेरे (शंकरके) अधीन है और मैं श्रीकृष्ण सर्वथा पराधीन हूँ। वह सुदामा राधाके शापसे शंखचूड नामक दानवेन्द्र हुआ, जो धर्ममें निपुण होकर भी देवद्रोही है और वह दुर्बुद्धि अपने बलसे सभी देवगणोंको सदा पीड़ा पहुँचा रहा है। मेरी मायासे मोहित होनेके कारण उसे दुष्ट मन्त्रियोंकी सहायता भी प्राप्त हो रही है। अतः मुझ शासकके रहते आपलोग शीघ्र ही उसके भयका त्याग कर दीजिये ।। 15 - 17 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने! अभी जब शिवजी ब्रह्मा एवं विष्णु के सामने इस प्रकारकी कथा कह ही रहे थे कि इतनेमें जो अन्य घटना घटी, उसे आप सुनिये। उसी समय श्रीकृष्ण राधिका, अन्य पार्षद एवं गोपोंके साथ प्रभु शंकरको अनुकूल करनेके लिये वहाँ आ गये। वे सद्भक्तिपूर्वक शंकरजीको प्रणाम करके विष्णुसे आदरपूर्वक मिलकर ब्रह्माकी सलाह मानकर शिवकी आज्ञासे प्रेमपूर्वक उनके समीप बैठ गये । ll 18 - 20 ॥
इसके बाद शिवजीको पुनः प्रणामकर मोहनिर्मुक्त श्रीकृष्णजी शिवतत्त्वको जानकर हाथ | जोड़े हुए उनकी स्तुति करने लगे- ॥ 21 ॥श्रीकृष्ण बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परब्रह्म ! हे सत्पुरुषोंकी गति! हे परमेश्वर ! मेरा अपराध क्षमा कीजिये और मेरे ऊपर प्रसन्न होइये। हे शर्व! सब कुछ आपसे ही उत्पन्न होता है और हे महेश्वर! सब कुछ आपमें ही स्थित है। हे | सर्वाधीश! सब कुछ आप ही हैं, अतः हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये ॥ 22-23 ॥
आप ही साक्षात् परम ज्योति, सर्वव्यापी एवं सनातन हैं। हे गौरीश! आपके नाथ होनेसे हम सभी सनाथ हैं ॥ 24 ॥
मोहमें पड़ा हुआ मैं अपनेको सर्वोपरि मानकर विहार करता रहा, जिसका फल मुझे यह मिला कि मैं शापग्रस्त हो गया और हे स्वामिन्! जो सुदामा | नामक मेरा श्रेष्ठ पार्षद है, वह राधाके शापसे दानवी योनिको प्राप्त हो गया है। हे दुर्गेश हे परमेश्वर । आप हमलोगोंका उद्धार कीजिये और प्रसन्न हो जाइये, शापसे उद्धार कीजिये और हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये। इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण राधाके सहित मौन हो गये। तब शरणागतवत्सल शिव उनपर प्रसन्न हो गये । ll 25-28 ॥
श्रीशिव बोले- हे कृष्ण ! हे गोपिकानाथ ! आप भयका त्याग कीजिये और सुखी हो जाइये। हे तात! मैंने ही अनुग्रह करते हुए यह सब किया है ॥ 29 ॥
आपका कल्याण होगा। अब आप अपने उत्तम स्थानको जाइये और सावधानीपूर्वक अपने अधिकारका पालन कीजिये मुझको परात्पर जानकर इच्छानुसार बिहार कीजिये और निर्भय होकर राधा तथा पार्षदोंके साथ अपना कार्य कीजिये ॥ 30-31 ॥
उत्तम वाराहकल्पमें युवती राधाके साथ शापका फल भोगकर वह पुनः अपने लोकको प्राप्त करेगा ॥ 32 ॥
हे कृष्ण! आपका अत्यन्त प्रिय पार्षद जो सुदामा था, वही इस समय दानवी योनिमें जन्म ग्रहण करके सारे जगत्को क्लेश दे रहा है, यह शंखचूड नामक दानव राधाके शापके प्रभावसे ही देवशत्रु दैत्योंका पक्ष लेनेवाला और देवताओंसे द्रोह करनेवाला हो गया है ।। 33-34 ॥उसने इन्द्रसहित सभी देवताओंको पीड़ा देकर निकाल दिया है, जिससे वे देवता अधिकारविहीन एवं व्याकुल होकर दसों दिशाओंमें भटक रहे हैं ॥ 35 ॥ उसीके वधके निमित्त ये ब्रह्मा तथा विष्णु मेरी शरणमें यहाँ आये हैं, मैं इनका दुःख दूर करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 36 ॥
सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] श्रीकृष्णसे इतना कहकर भगवान् शंकर ब्रह्मा तथा विष्णुको सम्बोधित करके आदरपूर्वक क्लेशनाशक वचन पुनः कहने लगे- ॥ 37 ॥
शिवजी बोले- हे विष्णो! हे ब्रह्मन्! आप दोनों मेरी बात सुनिये। देवताओंको भयरहित करनेके लिये शीघ्र ही आप दोनों कैलासपर्वतपर जायें, जहाँ मेरे पूर्ण रूप रुद्रका निवास है। मैंने ही देवताओंका कार्य करनेके लिये पृथक रूपको धारण किया है ।। 38-39 ।।
हे हरे परिपूर्णतम एवं भक्तपराधीन मुझ प्रभुका ही वह रुद्ररूप देवताओंके कार्यके लिये कैलासपर्वतपर विराजमान है मुझमें एवं आपमें कोई भेद नहीं है। मेरा वह रुद्ररूप आप दोनोंका, चराचर जगत्का सभी देवताओं एवं मुनियोंका सर्वदा सेव्य है । ll 40-41 ।।
जो मनुष्य हम दोनोंमें भेद रखेगा, वह नरकगामी होगा और वह इस लोकमें पुत्र-पौत्रादिसे रहित होकर नाना प्रकारका क्लेश प्राप्त करेगा। ऐसा कहते हुए गौरीपतिको बार-बार प्रणामकर श्रीकृष्ण राधा तथा गणोंके साथ अपने स्थानको चले गये । ll 42-43 ।।
हे व्यासजी! इसी प्रकार वे ब्रह्मा तथा विष्णु भी सन्देहरहित हो शिवजीको बारंबार प्रणामकर आनन्दके साथ शीघ्र वैकुण्ठ चले गये ।। 44 ।।
वे ब्रह्मा तथा विष्णु वहाँ आकर सारा वृत्तान्त देवताओंसे कहकर तथा उन्हें साथ लेकर कैलासपर्वतपर गये ll 45ll
दीनोंकी रक्षा करनेके लिये सगुण रूपसे शरीर धारण किये हुए देवाधिपति पार्वतीवल्लभ महेश्वर प्रभुको वहाँ देखकर सभी देवताओंने पूर्वकी भाँति हाथ जोड़कर विनयसे युक्त होकर सिर झुकाकर गद्गद वाणी से भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ।। 46-47 ।।देवता बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे गिरिजानाथ! हे शंकर! हम सभी देवता आपकी शरण में आये हैं, भयसे व्याकुल देवताओंकी रक्षा कीजिये ।। 48 ।।
देवताओंको कष्ट देनेवाले दैत्यराज शंखचूडका वध कीजिये, उसने देवताओंको व्याकुल कर दिया है और युद्ध में पराजित कर दिया है। उसने देवताओंके समस्त अधिकार छीन लिये हैं, जिससे वे लोग मनुष्योंकी भाँति पृथ्वीपर भटक रहे हैं और उसके भयसे उनके लिये देवलोकका देखनातक दुर्लभ हो गया है ।। 49-50 ll
अतः दीनोंका उद्धार करनेवाले हे कृपासिन्धो! इस संकटसे देवताओंका उद्धार कीजिये और उस दानवेन्द्रका वधकर इन्द्रको भयसे मुक्त कीजिये। देवताओंके इस वचनको सुनकर हँसते हुए भक्तवत्सल भगवान् शंकरने मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा- ॥ 51-52 ॥
श्रीशंकरजी बोले- हे विष्णो! हे ब्रह्मन् ! हे देवगण! आपलोग अपने स्थानको जाइये, मैं सेनासहित उस शंखचूडका वध अवश्य करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 53 ॥ सनत्कुमार बोले- शंकरकी इस अमृततुल्य वाणीको सुनकर सभी देवता दैत्योंको मरा जानकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ 54 ॥
इसके बाद शंकरजीको प्रणामकर विष्णु वैकुण्ठलोक एवं ब्रह्मा सत्यलोक चले गये तथा देवगण अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ 55 ॥