View All Puran & Books

शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 31 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 31

Previous Page 201 of 466 Next

शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना

सनत्कुमार बोले- अत्यन्त दीन ब्रह्मा तथा विष्णुजीका वचन सुनकर शंकरजी हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ 1 ॥

शिवजी बोले- हे हरे! हे वत्स! हे ब्रह्मन् ! आप दोनों शंखचूडसे उत्पन्न भयका पूर्णरूपसे त्याग कर दीजिये, आप लोगोंका निःसन्देह कल्याण होगा। हे प्रभो शंखचूडका सारा वृत्तान्त में जानता हूँ, वह पूर्वजन्ममें श्रीकृष्णका परम भक्त सुदामा नामका गोप था ।। 2-3 ll

मेरी आज्ञासे ही विष्णु श्रीकृष्णका रूप धारण करके मेरे द्वारा अधिष्ठित रम्य गोलोककी गोशाला में निवास करते हैं ॥ 4 ॥

'मैं स्वतन्त्र हूँ' अपनेको ऐसा समझकर वे पहले मोहको प्राप्त हुए और इस प्रकार मोहित होकर स्वच्छन्दकी भाँति नाना प्रकारकी क्रीडाएँ करने लगे ॥ 5 ॥

तब मैंने उन्हें अपनी मायासे मोहित कर दिया, जिससे उनकी सद्बुद्धि नष्ट हो गयी और उनसे उस सुदामाको शाप दिला दिया। इस प्रकार अपनी लीला करके मैंने [अपनी] माया हटा ली। तब मोहसे मुक्त हो जाने के कारण वे ज्ञानयुक्त तथा सदबुद्धियुक्त हो गये ।। 6-7 ॥

तब वे मेरे समीप आये और दीन होकर मुझे प्रणामकर हाथ जोड़कर विनम्र भावसे भक्तिपूर्वक मेरी स्तुति करने लगे। तब लज्जासे युक्त मनवाले उन सभीने सारा वृत्तान्त कहा और दीन होकर 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये 'मेरे सामने ऐसा वचन कहने लगे ॥ 8-9 ॥तब उनसे सन्तुष्ट होकर मैंने यह वचन कहा- हे कृष्ण ! आप सभी मेरी आज्ञासे भयका त्याग कर दीजिये। मैं आपलोगोंका सदा रक्षक हूँ। मेरे प्रसन्न रहनेसे आपलोगोंका कल्याण होगा। यह सब मेरी इच्छासे हुआ है, इसमें सन्देह नहीं है। [हे कृष्ण] आप इन राधा एवं पार्षदके साथ अपने स्थानको जाइये यह [सुदामा] इस भारतवर्ष में दानवके रूपमें जन्म लेगा, इसमें सन्देह नहीं है। समय आनेपर मैं आप दोनोंके शापका उद्धार करूँगा ll 10 - 12 / 2 ॥

तब बुद्धिमान् श्रीकृष्ण मेरे वचनको शिरोधार्य करके राधाके साथ बड़ी प्रसन्नतासे अपने स्थानको चले गये और वे दोनों ही भयपूर्वक मेरी आराधना करते हुए वहाँ निवास करने लगे ll 13-14 ॥

उस समय उन्हें ज्ञान हुआ कि यह सारा जगत् मेरे (शंकरके) अधीन है और मैं श्रीकृष्ण सर्वथा पराधीन हूँ। वह सुदामा राधाके शापसे शंखचूड नामक दानवेन्द्र हुआ, जो धर्ममें निपुण होकर भी देवद्रोही है और वह दुर्बुद्धि अपने बलसे सभी देवगणोंको सदा पीड़ा पहुँचा रहा है। मेरी मायासे मोहित होनेके कारण उसे दुष्ट मन्त्रियोंकी सहायता भी प्राप्त हो रही है। अतः मुझ शासकके रहते आपलोग शीघ्र ही उसके भयका त्याग कर दीजिये ।। 15 - 17 ॥

सनत्कुमार बोले- हे मुने! अभी जब शिवजी ब्रह्मा एवं विष्णु के सामने इस प्रकारकी कथा कह ही रहे थे कि इतनेमें जो अन्य घटना घटी, उसे आप सुनिये। उसी समय श्रीकृष्ण राधिका, अन्य पार्षद एवं गोपोंके साथ प्रभु शंकरको अनुकूल करनेके लिये वहाँ आ गये। वे सद्भक्तिपूर्वक शंकरजीको प्रणाम करके विष्णुसे आदरपूर्वक मिलकर ब्रह्माकी सलाह मानकर शिवकी आज्ञासे प्रेमपूर्वक उनके समीप बैठ गये । ll 18 - 20 ॥

इसके बाद शिवजीको पुनः प्रणामकर मोहनिर्मुक्त श्रीकृष्णजी शिवतत्त्वको जानकर हाथ | जोड़े हुए उनकी स्तुति करने लगे- ॥ 21 ॥श्रीकृष्ण बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे परब्रह्म ! हे सत्पुरुषोंकी गति! हे परमेश्वर ! मेरा अपराध क्षमा कीजिये और मेरे ऊपर प्रसन्न होइये। हे शर्व! सब कुछ आपसे ही उत्पन्न होता है और हे महेश्वर! सब कुछ आपमें ही स्थित है। हे | सर्वाधीश! सब कुछ आप ही हैं, अतः हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये ॥ 22-23 ॥

आप ही साक्षात् परम ज्योति, सर्वव्यापी एवं सनातन हैं। हे गौरीश! आपके नाथ होनेसे हम सभी सनाथ हैं ॥ 24 ॥

मोहमें पड़ा हुआ मैं अपनेको सर्वोपरि मानकर विहार करता रहा, जिसका फल मुझे यह मिला कि मैं शापग्रस्त हो गया और हे स्वामिन्! जो सुदामा | नामक मेरा श्रेष्ठ पार्षद है, वह राधाके शापसे दानवी योनिको प्राप्त हो गया है। हे दुर्गेश हे परमेश्वर । आप हमलोगोंका उद्धार कीजिये और प्रसन्न हो जाइये, शापसे उद्धार कीजिये और हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये। इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण राधाके सहित मौन हो गये। तब शरणागतवत्सल शिव उनपर प्रसन्न हो गये । ll 25-28 ॥

श्रीशिव बोले- हे कृष्ण ! हे गोपिकानाथ ! आप भयका त्याग कीजिये और सुखी हो जाइये। हे तात! मैंने ही अनुग्रह करते हुए यह सब किया है ॥ 29 ॥

आपका कल्याण होगा। अब आप अपने उत्तम स्थानको जाइये और सावधानीपूर्वक अपने अधिकारका पालन कीजिये मुझको परात्पर जानकर इच्छानुसार बिहार कीजिये और निर्भय होकर राधा तथा पार्षदोंके साथ अपना कार्य कीजिये ॥ 30-31 ॥

उत्तम वाराहकल्पमें युवती राधाके साथ शापका फल भोगकर वह पुनः अपने लोकको प्राप्त करेगा ॥ 32 ॥

हे कृष्ण! आपका अत्यन्त प्रिय पार्षद जो सुदामा था, वही इस समय दानवी योनिमें जन्म ग्रहण करके सारे जगत्को क्लेश दे रहा है, यह शंखचूड नामक दानव राधाके शापके प्रभावसे ही देवशत्रु दैत्योंका पक्ष लेनेवाला और देवताओंसे द्रोह करनेवाला हो गया है ।। 33-34 ॥उसने इन्द्रसहित सभी देवताओंको पीड़ा देकर निकाल दिया है, जिससे वे देवता अधिकारविहीन एवं व्याकुल होकर दसों दिशाओंमें भटक रहे हैं ॥ 35 ॥ उसीके वधके निमित्त ये ब्रह्मा तथा विष्णु मेरी शरणमें यहाँ आये हैं, मैं इनका दुःख दूर करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 36 ॥

सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] श्रीकृष्णसे इतना कहकर भगवान् शंकर ब्रह्मा तथा विष्णुको सम्बोधित करके आदरपूर्वक क्लेशनाशक वचन पुनः कहने लगे- ॥ 37 ॥

शिवजी बोले- हे विष्णो! हे ब्रह्मन्! आप दोनों मेरी बात सुनिये। देवताओंको भयरहित करनेके लिये शीघ्र ही आप दोनों कैलासपर्वतपर जायें, जहाँ मेरे पूर्ण रूप रुद्रका निवास है। मैंने ही देवताओंका कार्य करनेके लिये पृथक रूपको धारण किया है ।। 38-39 ।।

हे हरे परिपूर्णतम एवं भक्तपराधीन मुझ प्रभुका ही वह रुद्ररूप देवताओंके कार्यके लिये कैलासपर्वतपर विराजमान है मुझमें एवं आपमें कोई भेद नहीं है। मेरा वह रुद्ररूप आप दोनोंका, चराचर जगत्‌का सभी देवताओं एवं मुनियोंका सर्वदा सेव्य है । ll 40-41 ।।

जो मनुष्य हम दोनोंमें भेद रखेगा, वह नरकगामी होगा और वह इस लोकमें पुत्र-पौत्रादिसे रहित होकर नाना प्रकारका क्लेश प्राप्त करेगा। ऐसा कहते हुए गौरीपतिको बार-बार प्रणामकर श्रीकृष्ण राधा तथा गणोंके साथ अपने स्थानको चले गये । ll 42-43 ।।

हे व्यासजी! इसी प्रकार वे ब्रह्मा तथा विष्णु भी सन्देहरहित हो शिवजीको बारंबार प्रणामकर आनन्दके साथ शीघ्र वैकुण्ठ चले गये ।। 44 ।।

वे ब्रह्मा तथा विष्णु वहाँ आकर सारा वृत्तान्त देवताओंसे कहकर तथा उन्हें साथ लेकर कैलासपर्वतपर गये ll 45ll

दीनोंकी रक्षा करनेके लिये सगुण रूपसे शरीर धारण किये हुए देवाधिपति पार्वतीवल्लभ महेश्वर प्रभुको वहाँ देखकर सभी देवताओंने पूर्वकी भाँति हाथ जोड़कर विनयसे युक्त होकर सिर झुकाकर गद्गद वाणी से भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ।। 46-47 ।।देवता बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे गिरिजानाथ! हे शंकर! हम सभी देवता आपकी शरण में आये हैं, भयसे व्याकुल देवताओंकी रक्षा कीजिये ।। 48 ।।

देवताओंको कष्ट देनेवाले दैत्यराज शंखचूडका वध कीजिये, उसने देवताओंको व्याकुल कर दिया है और युद्ध में पराजित कर दिया है। उसने देवताओंके समस्त अधिकार छीन लिये हैं, जिससे वे लोग मनुष्योंकी भाँति पृथ्वीपर भटक रहे हैं और उसके भयसे उनके लिये देवलोकका देखनातक दुर्लभ हो गया है ।। 49-50 ll

अतः दीनोंका उद्धार करनेवाले हे कृपासिन्धो! इस संकटसे देवताओंका उद्धार कीजिये और उस दानवेन्द्रका वधकर इन्द्रको भयसे मुक्त कीजिये। देवताओंके इस वचनको सुनकर हँसते हुए भक्तवत्सल भगवान् शंकरने मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा- ॥ 51-52 ॥

श्रीशंकरजी बोले- हे विष्णो! हे ब्रह्मन् ! हे देवगण! आपलोग अपने स्थानको जाइये, मैं सेनासहित उस शंखचूडका वध अवश्य करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 53 ॥ सनत्कुमार बोले- शंकरकी इस अमृततुल्य वाणीको सुनकर सभी देवता दैत्योंको मरा जानकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ 54 ॥

इसके बाद शंकरजीको प्रणामकर विष्णु वैकुण्ठलोक एवं ब्रह्मा सत्यलोक चले गये तथा देवगण अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ 55 ॥

Previous Page 201 of 466 Next

शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य