ऋषि बोले- हे व्यासशिष्य महाभाग सूतजी ! आपको नमस्कार है, आज आपने भगवान् शिवकी अद्भुत एवं परम पवित्र कथा सुनायी है 1 उसमें अद्भुत, महादिव्य तथा कल्याणकारिणी लिंगोत्पत्ति हमलोगोंने सुनी, जिसके प्रभावको सुननेसे इस लोकमें दुःखोंका नाश हो जाता है ॥ 2 ॥
हे दयानिधे ब्रह्मा और नारदजीके संवादके अनुसार आप हमें शिवपूजनकी वह विधि बताइये, जिससे भगवान् शिव सन्तुष्ट होते हैं॥ 3 ll
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-सभी शिवकी पूजा करते हैं। वह पूजन कैसे करना चाहिये ? आपने व्यासजीके मुखसे इस विषयको जिस प्रकार सुना हो, वह बताइये ॥ 4 ll
महर्षियोंका वह कल्याणप्रद एवं श्रुतिसम्मत वचन सुनकर सूतजी उन मुनियोंके प्रश्नके अनुसार सब बातें प्रसन्नतापूर्वक बताने लगे ॥ 5 ॥
सूतजी बोले- मुनीश्वरो आपलोगोंने बहुत अच्छी बात पूछी है, परंतु वह रहस्यकी बात है। मैंने इस विषयको जैसा सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसके अनुसार आज कह रहा हूँ ॥ 6 ॥
जैसे आपलोग पूछ रहे हैं, उसी तरह पूर्वकालमें व्यासजीने सनत्कुमारजीसे पूछा था फिर उसे उपमन्युजीने भी सुना था ॥ 7 ॥
तब व्यासजीने शिवपूजन आदि जो भी था, उसे सुनकर लोकहितकी कामनासे मुझे पढ़ा दिया था ॥ 8 ॥
इसी विषयको भगवान् श्रीकृष्णने महात्मा उपमन्युसे सुना था। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने नारदजीसे इस विषयमें जो कुछ कहा था, वही इस समय मैं कहूँगा ॥ 9॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मैं संक्षेपमें लिंगपूजनकी विधि बता रहा हूँ, सुनिये हे मुने। इसका वर्णन सौ वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता है। जो भगवान् शंकरका सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है, सभी मनोवांछित फलोंकी प्राप्तिके लिये उसका उत्तम भक्तिभावसे पूजन करे ।। 10-11 ॥दरिद्रता, रोग, दुःख तथा शत्रुजनित पीड़ा- ये चार प्रकारके पाप-कष्ट तभीतक रहते हैं, जबतक मनुष्य भगवान् शिवका पूजन नहीं करता है ॥ 12 ॥ भगवान् शिवकी पूजा होते ही सारे दुःख विलीन हो जाते हैं और समस्त सुखोंकी प्राप्ति हो जाती है। तत्पश्चात् [समय आनेपर उपासककी मुक्ति भी हो जाती है॥ 13 ॥
जो मानवशरीरका आश्रय लेकर मुख्यतया सन्तानसुखकी कामना करता है, उसे चाहिये कि सम्पूर्ण कार्यों और मनोरथोंके साधक महादेवजीकी | पूजा करे ॥ 14 ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी सम्पूर्ण कामनाओं तथा प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये क्रमसे विधिके अनुसार भगवान् शंकरकी पूजा करें।। 15 ॥
प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर गुरु तथा शिवका स्मरण करके पुनः तीर्थोंका चिन्तन करके भगवान् विष्णुका ध्यान करे। हे मुने! इसके बाद मेरा, देवताओंका और मुनि आदिका भी स्मरण- चिन्तन करके स्तोत्र पाठपूर्वक शंकरजीका विधिपूर्वक नाम ले ll 16-17 1/2 ।।
उसके बाद शय्यासे उठकर निवासस्थानसे दक्षिण दिशामें जाकर मलत्याग करे। हे मुने! एकान्तमें मलोत्सर्ग करना चाहिये। उससे शुद्ध होनेके लिये जो विधि मैंने सुन रखी है, आप लोगोंसे उसीको आज कहता हूँ, मनको एकाग्र करके सुनें ।। 18-19 ।।
ब्राह्मण [गुदाकी] शुद्धिके लिये पाँच बार मिट्टीका लेप करे और धोये। क्षत्रिय चार बार वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार विधिपूर्वक गुदाकी शुद्धिके लिये उसमें मिट्टी लगाये लिंगमें भी एक बार प्रयत्नपूर्वक मिट्टी लगानी चाहिये ॥ 20-21 ll
तत्पश्चात् बायें हाथमें दस बार और दोनों | हाथोंमें सात बार मिट्टी लगाये। हे तात! प्रत्येक पैर में तीन-तीन बार मिट्टी लगाये, फिर दोनों हाथों में भी तीन बार मिट्टी लगाकर धोये ॥ 22 ॥
स्त्रियोंको खुदकी भाँति अच्छी तरह मिट्टी | लगानी चाहिये। हाथ-पैर धोकर पूर्ववत् शुद्ध मिट्टीका संग्रह करना चाहिये ॥ 23 ॥इसके बाद मनुष्यको अपने वर्णके अनुसार दातौन करना चाहिये। ब्राह्मणको बारह अंगुलकी दातौन करनी चाहिये। क्षत्रिय ग्यारह अंगुल, वैश्य दस अंगुल और शूद्र नौ अंगुलकी दातौन करे। दातौनका यह मान बताया गया है। मनुस्मृतिके अनुसार कालदोषका विचार करके ही दातौन करे या त्याग दे ॥ 24-26 ॥
हे तात! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी, व्रतका दिन, सूर्यास्तका समय, रविवार तथा दिवस येदन्तधावनके लिये वर्जित हैं ॥ 27 ॥
[दन्तधावनके पश्चात्] तीर्थ आदिमें विधिपूर्वक स्नान करना चाहिये, विशेष देश काल आनेपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान करना चाहिये ॥ 28 ॥
[स्नान के पश्चात्] पहले आचमन करके भुला हुआ वस्त्र धारण करे। फिर सुन्दर एकान्त स्थलमें बैठकर सन्ध्याविधिका अनुष्ठान करे। ll 29 ।।
यथायोग्य सन्ध्याविधि करके पूजाका कार्य | आरम्भ करे। मनको सुस्थिर करके पूजागृहमें प्रवेशकर वहाँ पूजन सामग्री लेकर सुन्दर आसनपर बैठे। | पहले न्यास आदि करके क्रमशः महादेवजीकी पूजा करे ।। 30-31 ll
[शिवको पूजासे] पहले गणेशजीकी, द्वारपालोंकी और दिक्पालोंकी भलीभाँति पूजा करके बादमें देवताके लिये पीठकी स्थापना करे ॥ 32 ॥
अथवा अष्टदलकमल बनाकर पूजाद्रव्यके समीप बैठकर उस कमलपर ही भगवान् शिवको समासीन करे। तत्पश्चात् तीन बार आचमन करके पुनः दोनों हाथ धोकर तीन प्राणायाम करके मध्यम प्राणायाम अर्थात् कुम्भक करते समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शिवका इस प्रकार ध्यान करे उनके पाँच मुख हैं, दस भुजाएँ हैं, शुद्ध स्फटिकके समान उनकी कान्ति है, वे सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं तथा वे व्याघ्रचर्मका उत्तरीय ओढ़े हुए हैं। उनके सारूप्यकी भावना करके मनुष्य सदाके लिये अपने पापको भस्म कर डाले। [इस प्रकारकी भावनासे युक्त होकर ] वहाँपर शिवको प्रतिष्ठापितकर उन परमेश्वरकी पूजा करे ।। 33-36 ।।शरीरशुद्धि करके मूलमन्त्रका क्रमशः न्यास करे अथवा सर्वत्र प्रणवसे ही षडंगन्यास करे ॥ 37 ॥ इस प्रकार हृदयादि न्यास करके पूजा आरम्भ करे। पाद्य, अर्घ्य और आचमनके लिये पात्रोंको तैयार करके रखे ॥ 38 ॥
बुद्धिमान् पुरुष विधिपूर्वक भिन्न-भिन्न प्रकारके नौ कलश स्थापित करे। उन्हें कुशाओंसे ढककर कुशाओंसे ही जल लेकर उन सबका प्रोक्षण करे। उन उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले। तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष देख-भालकर प्रणवमन्त्रके द्वारा उनमें इन द्रव्योंको डाले । खस और चन्दनको पाद्यपात्रमें रखे । चमेलीके फूल, शीतलचीनी, कपूर, बड़की जड़ तथा तमाल | इन सबको यथोचितरूपसे [कूट-पीसकर] चूर्ण बनाकर आचमनीय पात्र (पंचपात्र) में डाले। यह सब चन्दनसहित सभी पात्रोंमें डालना चाहिये ।। 39-42 ॥
देवाधिदेव महादेवजीके पार्श्वभागमें नन्दीश्वरका पूजन करे। गन्ध, धूप, दीप आदि विविध उपचारोंसे शिवकी पूजा करे ॥ 43 ॥
फिर प्रसन्नतापूर्वक लिंगशुद्धि करके मनुष्य उचित रूपसे मन्त्रसमूहोंके आदिमें 'प्रणव' तथा अन्तमें 'नमः' पद जोड़कर उनके द्वारा [ इष्टदेवके लिये] अथवा प्रणवका उच्चारण करके स्वस्ति, पद्म आदि आसनकी कल्पना करे। पुनः यह भावना करे कि इस कमलका पूर्वदल साक्षात् अणिमा नामक ऐश्वर्यरूप तथा अविनाशी है। दक्षिणदल लघिमा है। | पश्चिमदल महिमा है। उत्तरदल प्राप्ति है। अग्निकोणका दल प्राकाम्य है। नैर्ऋत्यकोणका दल ईशित्व है। वायव्यकोणका दल वशित्व है। ईशानकोणका दल सर्वज्ञत्व है और उस कमलकी कर्णिकाको सोम कहा जाता है । ll 44-47 ॥
इस सोमके नीचे सूर्य है, सूर्यके नीचे यह अग्नि है और अग्निके भी नीचे धर्म आदिकी क्रमशः कल्पना करे। इसके पश्चात् चारों दिशाओंमें अव्यक्त आदिकी तथा सोमके नीचे तीनों गुणोंकी कल्पना करे। बाद 'ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि' इत्यादि मन्त्रसे परमेश्वर । इसके | शिवका आवाहन करके 'ॐ वामदेवाय नमः' इत्यादि वामदेवमन्त्रसे उन्हें आसनपर विराजमान करे। फिर'ॐ तत्पुरुषाय विद्यहे' इत्यादि रुद्रगायत्रीद्वारा इष्टदेवका सान्निध्य प्राप्त करके उन्हें 'ॐ अघोरेभ्योऽथ' इत्यादि अघोर मन्त्रसे वहाँ निरुद्ध करे तत्पश्चात् 'ॐ ईशानः सर्व-विद्यानाम्' इत्यादि मन्त्रसे आराध्य देवका पूजन करे। पाद्य और आचमनीय अर्पित करके अर्घ्य दे ॥ 48-51 ॥
तत्पश्चात् गन्ध और चन्दनमिश्रित जलसे विधिपूर्वक | रुद्रदेवको स्नान कराये। फिर पंचगव्यनिर्माणको विधिसे पाँचों द्रव्योंको एक पात्रमें लेकर प्रणवसे ही अभिमन्त्रित करके उन मिश्रित गव्यपदार्थोंद्वारा भगवान्को स्नान | कराये। तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् दूध, दही, मधु, गन्नेके रस तथा घीसे नहलाकर समस्त अभीष्टोंके दाता और | हितकारी पूजनीय महादेवजीका प्रणवके उच्चारणपूर्वक पवित्र द्रव्योंद्वारा अभिषेक करे ।। 52-54 ॥
साधक श्वेत वस्त्रसे उस जलको यथोचित रीतिसे छान ले और पवित्र जलपात्रमें मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल डाले ॥ 55 ॥
जलधारा तबतक बन्द न करे, जबतक इष्टदेवको चन्दन न चढ़ाये। तब सुन्दर अक्षतोंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक | शंकरजीकी पूजा करे। उनके ऊपर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चम्पा, गुलाब, श्वेत कनेर, बेला, कमल और उत्पल आदि भाँति-भाँतिके अपूर्व पुष्पों एवं चन्दनसे उनकी पूजा करे। परमेश्वर शिवके ऊपर जलकी धारा गिरती रहे, इसकी भी व्यवस्था करे ॥ 56-58 ॥
जलसे भरे भाँति-भाँतिके पात्रोंद्वारा महेश्वरको स्नान कराये। इस प्रकार मन्त्रोच्चारणपूर्वक समस्त फलोंको देनेवाली पूजा करनी चाहिये ll 59 ॥
हे तात! अब मैं आपको समस्त मनोवांछित कामनाओंकी सिद्धिके लिये उन [पूजासम्बन्धी] मन्त्रोंको भी संक्षेपमें बता रहा हूँ, सावधानीके साथ सुनिये ॥ 60 ॥ पावमानमन्त्रसे, 'वामे0' इत्यादि मन्त्रसे, रुद्रमन्त्रसे, नीलरुद्रमन्त्रसे, सुन्दर एवं शुभ पुरुषसूक्तसे, श्रीसूकसे, सुन्दर अथर्वशीर्षके मन्त्रसे, 'आ नो भद्रा0' इत्यादि शान्तिमन्त्रसे, शान्तिसम्बन्धी दूसरे मन्त्रोंसे भारुण्ड मन्त्र और अरुणमन्त्रोंसे, अर्थाभीष्टसाम तथा देवव्रतसामसे, 'अभि त्वा0' इत्यादि रथन्तरसामसे, पुरुषसूक्तसे, मृत्युंजयमन्त्र तथा पंचाक्षरमन्त्रसे पूजा करे ।। 61-64 ।।एक सहस्र अथवा एक सौ एक जलधाराएँ वैदिक विधिसे शिवके नाममन्त्रसे प्रदान करे ॥ 65 ॥ तदनन्तर भगवान् शंकरके ऊपर चन्दन और फूल आदि चढ़ाये । प्रणवसे ताम्बूल आदि अर्पित करे ॥ 66 ॥
इसके बाद जो स्फटिकमणिके समान निर्मल, निष्कल, अविनाशी, सर्वलोककारण, सर्वलोकमय, परमदेव हैं, जो ब्रह्मा, इन्द्र, उपेन्द्र, विष्णु आदि देवताओंको भी गोचर न होनेवाले, वेदवेत्ता विद्वानोंके द्वारा वेदान्तमें [ मन-वाणीसे] अगोचर बताये गये हैं, जो आदि-मध्य-अन्तसे रहित, समस्त रोगियोंके लिये औषधरूप, शिवतत्त्वके नामसे विख्यात तथा शिवलिंगके रूपमें प्रतिष्ठित हैं, उन भगवान् शिवका शिवलिंगके | मस्तकपर प्रणवमन्त्रसे ही पूजन करे। धूप, दीप, नैवेद्य, सुन्दर ताम्बूल, सुरम्य आरती, स्तोत्रों तथा नाना प्रकारके मन्त्रों एवं नमस्कारोंद्वारा यथोक्त विधिसे उनकी पूजा करे ।। 67-71 ॥
तत्पश्चात् अर्घ्य देकर भगवान्के चरणोंमें फूल बिखेरकर और साष्टांग प्रणाम करके देवेश्वर शिवकी आराधना करे ॥ 72 ॥
इसके बाद हाथमें फूल लेकर खड़ा हो करके दोनों हाथ जोड़कर इस मन्त्रसे सर्वेश्वर शंकरकी पुनः प्रार्थना करे - हे शिव! मैंने अनजानमें अथवा जान बूझकर जो जप-पूजा आदि सत्कर्म किये हों, वे आपकी कृपासे सफल हों ।। 73-74 ।।
इस प्रकार पढ़कर भगवान् शिवके ऊपर प्रसन्नतापूर्वक फूल चढ़ाये तत्पश्चात् स्वस्तिवाचन' करके नाना प्रकारकी आशी: 2 प्रार्थना करे। फिर शिवके ऊपर मार्जन करना चाहिये। इसके बाद नमस्कार करके | अपराधके लिये क्षमा-प्रार्थना करते हुए पुनरागमनकेलिये विसर्जन करना चाहिये। इसके बाद अघोर मन्त्रका उच्चारण करके नमस्कार करे। फिर सम्पूर्ण भावसे युक्त होकर इस प्रकार प्रार्थना करे- प्रत्येक जन्ममें शिवमें मेरी भक्ति हो, शिवमें भक्ति हो, शिवमें भक्ति हो। आपके अतिरिक्त दूसरा कोई मुझे शरण देनेवाला नहीं है। हे महादेव! आप ही मेरे लिये शरणदाता हैं ।। 75- 78 ll
इस प्रकार प्रार्थना करके पराभक्तिके द्वारा सम्पूर्ण सिद्धियोंके दाता देवेश्वर शिवका पूजन करे। विशेषतः गलेकी ध्वनिसे भगवान्को सन्तुष्ट करे ॥ 79 ॥
तत्पश्चात् परिवारजनोंके साथ नमस्कार करके अनुपम प्रसन्नता प्राप्त करके समस्त [लौकिक] कार्य सुखपूर्वक करता रहे ॥ 80 ॥ जो इस प्रकार शिवभक्तिपरायण होकर प्रतिदिन पूजन करता है, उसे अवश्य ही पग-पगपर सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त होती है ॥ 81 ॥
वह उत्तम वक्ता होता है तथा उसे मनोवांछित फलकी निश्चय ही प्राप्ति होती है। रोग, दुःख, शोक, दूसरोंके निमित्तसे होनेवाला उद्वेग, कुटिलता, विष तथा अन्य जो-जो कष्ट उपस्थित होता है, उसे कल्याणकारी परम शिव अवश्य नष्ट कर देते हैं ।। 82-83 ॥
उस उपासकका कल्याण होता है। जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमा बढ़ता है, वैसे ही शंकरकी पूजासे उसमें अवश्य ही सद्गुणोंकी वृद्धि होती है ॥ 84 ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने शिवकी पूजाका विधान आपको बताया। हे नारद! अब आप और क्या पूछना तथा सुनना चाहते हैं ? ॥ 85 ॥