ब्रह्माजी बोले- उन वृत्तान्तोंको सुनकर वह दीक्षितपुत्र अपने भाग्यकी निन्दा करके किसी दिशाको देखकर अपने घरसे चल पड़ा। कुछ कालतक चलनेके पश्चात् वह यज्ञदत्तपुत्र दुष्ट गुणनिधि थक जानेके कारण उत्साहहीन होकर वहीं रुक गया ॥ 1-2 ॥वह बहुत बड़ी चिन्तामें पड़ गया कि अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ? मैंने विद्याका अभ्यास भी नहीं | किया और न तो मेरे पास अत्यधिक धन ही है ॥ 3 ॥ दूसरे देशमें तत्काल सुख तो उसीको प्राप्त होता है, जिसके पास धन रहता है। यद्यपि धन रहनेपर चोरसे भय होता है, किंतु यह विघ्न सर्वत्र उत्पन्न हो सकता है ॥ 4 ॥ अरे! याजकके कुलमें जन्म होनेपर भी मुझमें इतना बड़ा दुर्व्यसन कैसे आ गया! यह आश्चर्य है, किंतु भाग्य बड़ा बलवान् है, वही मनुष्यके भावी कर्मका अनुसन्धान करता है ॥ 5 ॥
मैं भिक्षा माँगनेके लिये नहीं जाता हूँ। मेरा यहाँ कोई परिचित भी नहीं है और न मेरे पास कुछ धन ही है। मेरे लिये कोई शरण तो होनी ही चाहिये ॥ 6 ॥ सदैव सूर्योदय होनेके पूर्व ही मेरी माता मुझे मधुर भोजन देती थीं। आज मैं यहाँ किससे माँगूँ। मेरी माता भी तो यहाँ नहीं हैं ॥ 7 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार बहुत-सी चिन्ता करते हुए वृक्षके नीचे बैठे-बैठे वह अत्यधिक दीन हीन हो उठा, इतनेमें सूर्य अस्ताचलको चला गया ॥ 8 ॥
इसी समय कोई शिवभक्त मनुष्य अनेक प्रकारकी परम दिव्य पूजा सामग्रियाँ लेकर शिवरात्रिके दिन उपवासपूर्वक महेश्वरकी पूजा करनेके लिये अपने परिवारजनोंके साथ नगरसे बाहर निकला ॥ 9-10 ll
शिवजीमें रत चित्तवाले उस भक्तने शिवालयमें प्रवेश करके सावधान मनसे यथोचित रूपसे शंकरकी पूजा की। [ भगवान् शिवके लिये लगाये गये नैवेद्यके] पक्वान्नोंकी गन्धको सँघकर पिताके द्वारा परित्यक्त, मातृहीन तथा भूखसे व्याकुल यज्ञदत्तका पुत्र वह ब्राह्मण गुणनिधि उसके पास पहुँचा ॥ 11-12 ॥
[ उसने सोचा कि ] ये सभी शिवभक्त जब रात्रिमें सो जायँगे, तब मैं शिवपर चढ़ाये गये इस विविध नैवेद्यको भाग्यवश प्राप्त करूंगा। ऐसी आशा करके वह भगवान् शंकरके द्वारपर बैठ गया और उस भक्तके द्वारा की गयी महापूजाको देखने लगा ।। 13-14 ॥ भक्तलोग जिस समय [भगवान् शिवके सामने) नृत्य-गीत आदि करके सो गये, उसी समय वह नैवेद्यको लेनेके लिये भगवान् शिवके मन्दिरमें घुस गया ।। 15 ॥[ वहाँपर जल रहे] दीपकके प्रकाशको मन्द देखकर पक्वान्नोंको देखनेके लिये अपने उत्तरीय वस्त्रको [फाड़ करके] बत्ती बनाकर दीपकको प्रकाशितकर यज्ञदत्तके उस पुत्रने आदरपूर्वक शिवके लिये लगाये गये बहुतसे पक्वान्नोंके नैवेद्यको एकाएक सहर्ष उठा लिया ॥ 16-17 ॥
इसके बाद उस पक्वान्नको लेकर शीघ्र ही बाहर जाते हुए उसके पैरके आघातसे कोई सोया हुआ व्यक्ति जग उठा ॥ 18 ॥
शीघ्रता करनेवाला यह कौन है ?, कौन है ? इसे पकड़ो-इस प्रकार भययुक्त ऊँची वाणीमें वह व्यक्ति चिल्लाने लगा ॥ 19 ॥
भयवश वह ब्राह्मण जब भाग रहा था, उसी समय वहाँ पुररक्षकोंने पहुँचकर उसे मारा, जिससे वह अन्धा होकर तत्काल मर गया ॥ 20 ॥
हे मुने! यज्ञदत्तके उस पुत्रने निश्चित शिवकी ही कृपासे नैवेद्यको खा लिया था, न कि अपने भावी पुण्यफलके प्रभावसे ॥ 21 ll
इसके पश्चात् उस मरे हुए ब्राह्मणको यमलोक ले जानेके लिये पाश, मुद्गर हाथमें लिये हुए यमके भयंकर दूत वहाँ आकर उसे बाँधने लगे ॥ 22 ॥
इतनेमें छोटी-छोटी घण्टियोंसे युक्त आभूषण धारण किये हुए और हाथमें त्रिशूलसे युक्त हो शिवके पार्षद दिव्य विमान लेकर उसे ले जानेके लिये आ गये ॥ 23 ॥
शिवगण बोले- हे यमराजके गणो! इस परम धार्मिक ब्राह्मणको छोड़ दो। यह ब्राह्मण दण्डके योग्य नहीं है। इसके समस्त पाप भस्म हो चुके हैं ॥ 24 ॥
इसके अनन्तर शिवपार्षदोंके वचन सुनकर यमराजके गण आश्चर्यचकित हो गये और महादेवजीके गणोंसे कहने लगे। शम्भुके गणोंको देखकर डरे हुए तथा प्रणाम करते हुए यमराजके दूतोंने इस प्रकार कहा कि हे गणो। यह ब्राह्मण तो दुराचारी था ॥ 25-26 ।।
यमगण बोले- कुलकी मर्यादाका उल्लंघन करके यह माता- पिताकी आज्ञासे पराङ्मुख, सत्य शौचसे परिभ्रष्ट और सन्ध्या तथा स्नानसे रहित था ॥ 27 ॥यदि इसके अन्य कर्मोंको छोड़ भी दिया जाय, तो भी इसने शिवके निर्माल्य [चढ़ाये गये नैवेद्य ] | का लंघन किया है अर्थात् चोरी की है। [इसके इस हेय कर्मको] आप सब स्वयं देख लें, आप जैसे | लोगोंके लिये यह स्पर्शके योग्य भी नहीं है ॥ 28 ॥
जो शिव-निर्माल्यको खानेवाले, शिवनिर्माल्यक चोरी करनेवाले और शिवनिर्माल्यको देनेवाले हैं, उनका स्पर्श अवश्य ही पापकारक होता है ॥ 29 ॥
विषको जान-बूझकर पी लेना श्रेयस्कर है और अछूतका स्पर्श कर लेना भी अति उत्तम है, किंतु कण्ठगत प्राण होनेपर भी शिवनिर्माल्यका सेवन उचित नहीं है ॥ 30 ॥
धर्मके विषयमें आप सब जिस प्रकार प्रमाण हैं, वैसे हमलोग नहीं हैं। हे शिवगण! सुनिये। यदि इसमें धर्मका लेशमात्र भी हो, तो हम सब उसे सुनना चाहते हैं ll 31 ॥
यमके दूतोंकी इस बातको सुनकर शिवके पार्षद भगवान् शिवके चरणकमलका स्मरण करके कहने लगे- ll 32 ll
शिवके सेवक बोले हे यमकिंकरो! जो सूक्ष्म शिवधर्म हैं, जिन्हें सूक्ष्म दृष्टिवाले ही जान सकते हैं, उन्हें आपसदृश स्थूल दृष्टिवाले कैसे जान सकते हैं ॥ 33 ॥
हे यमदूतो! पापरहित इस यज्ञदत्तपुत्रने यहाँपर जो पुण्य कर्म किया है, उसे सावधान होकर सुनो- ॥ 34 ॥
इसने शिवलिंगके शिखरपर पड़ रही दीपककी छायाको दूर किया और अपने उत्तरीय वस्त्रको फाड़कर उससे दीपककी वर्तिका बनायी और फिर उससे दीपकको पुनः जलाकर उस रात्रिमें शिवके लिये प्रकाश किया ॥ 35 ॥
हे किंकरो इसने [उस कर्मके अतिरिक्त ] अन्य भी पुण्यकर्म किया है। शिवपूजाके प्रसंगमें इसने शिवके नामोंका श्रवण किया और स्वयं उनके नामोंका उच्चारण भी किया है। भक्तके द्वारा विधिवत् की जा रही पूजाको इसने उपवास रखकर बड़े ही मनोयोगसे देखा है ।। 36-37 ।।[अतः इन पुण्योंके प्रभावसे] यह आज ही हमलोगोंके साथ शिवलोकको जायगा। वहाँ शिवका अनुगामी बनकर यह कुछ समयतक उत्तम भोगोंका उपभोग करेगा ।। 38 ।।
तत्पश्चात् अपने पापरूपी मैलको धोकर यह कलिंग देशका राजा बनेगा, क्योंकि यह श्रेष्ठ ब्राह्मण निश्चित ही शिवका प्रिय हो गया है ।। 39 ।।
हे यमदूतो! अब इसके विषयमें कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। तुमलोग जैसे आये हो, वैसे ही अतिप्रसन्न मनसे अपने लोकको चले जाओ ll 40 ll
ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर ! उनके वाक्यको सुनकर पराङ्मुख हुए समस्त यमदूत अपने लोकको लौट गये। हे मुने। गणोंने यमराजसे [गुणनिधिके उस ] सम्पूर्ण वृत्तान्तका निवेदन किया और शिवदूतोंने उनसे जो कहा था, वह समाचार आरम्भसे उन्हें सुना दिया ।। 41-42 ।।
धर्मराज बोले- हे गणो! तुम सब सावधान होकर मेरे इस वाक्यको सुनो जैसा आदेश दे रहा है, वैसा ही प्रेमपूर्वक तुमलोग करो॥ 43 ॥
हे गणो इस संसारमें जो श्वेत भस्मसे त्रिपुण्ड धारण करते हैं, उन सभीको छोड़ देना और यहाँपर कभी मत लाना ll 44 ॥
हे गणो! जो श्वेत भस्मसे शरीरमें उद्भूलन करते हैं, उन सबको तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ।। 45 ।।
इस संसारमें जिस किसी भी कारणसे जो शिवका वेष धारण करनेवाले हैं, उन सभी लोगोंको भी छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ll 46 ll
इस जगत्में जो रुद्राक्ष धारण करनेवाले हैं या सिरपर जटा धारण करते हैं, उन सबको तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ॥ 47 ॥
जिन लोगोंने जीविकाके निमित्त ही शिवका वेष धारण किया है, उन सबको भी छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ll 48 ॥जिन्होंने दम्भ या छल-प्रपंचक कारण हो | शिवका वेष धारण किया है, उन सबको भी तुमलोग छोड़ देना और यहाँ कभी मत लाना ।। 49 ।।
इस प्रकार उन यमराजने अपने सेवकोंको आज्ञा दी, [जिसको सुनकर उन लोगोंने कहा कि जैसी आपकी आज्ञा है] वैसा ही होगा-ऐसा कहकर वे मन्द मन्द हँसते हुए चुप हो गये ॥ 50 ॥
ब्रह्माजी बोले—इस प्रकार शिवपार्षदेनि यमदूतोंसे उस ब्राह्मणको छुड़ाया और वह पवित्र मनसे युक्त होकर शीघ्र ही उन शिवगणोंके साथ शिवलोकको चला गया ॥ 51 ॥
वहाँपर सभी सुखभोगोंका उपभोग करके तथा भगवान् सदाशिव एवं पार्वतीकी सेवा करके वह [दूसरे जन्ममें] कलिंगदेशके राजा अरिंदमका पुत्र हुआ ॥ 52 ॥
उस शिवसेवापरायण बालकका नाम दम हुआ। बालक होते हुए भी वह अन्य शिशुओंके साथ शिवकी भक्ति करने लगा ॥ 53 ॥
क्रमशः उसने युवावस्था प्राप्त की और पिताके परलोकगमनके पश्चात् उसे राज्य भी प्राप्त हुआ। उसने प्रेमपूर्वक अनेक शिवधर्मोको प्रारम्भ किया ॥ 54 ॥
हे ब्रह्मन् ! दुष्टोंका दमन करनेवाला वह राजा दम शिवालयों में दीपदानके अतिरिक्त अन्य कोई धर्म नहीं मानता था ॥ 55 ॥
उसने सभी ग्राम और जनपद-प्रमुखोंको बुला करके यह आदेश दिया कि तुमलोगोंको शिवालयों में दीप प्रज्वालनकी व्यवस्था करनी है ॥ 56 ॥
यदि [किसीके क्षेत्रमें] ऐसा नहीं हुआ, तो यह सत्य है कि [ उस क्षेत्रका] वह प्रधान निश्चित ही मेरे द्वारा दण्ड पायेगा। भगवान् शिव सन्तुष्ट होते हैं—ऐसा श्रुतियों में कहा गया है ॥ 57 ॥जिसके जिसके गाँवके चारों ओर जितने भी शिवालय हों, वहाँ वहाँ सदैव बिना कोई विचार किये ही दीपक जलाना चाहिये ll 58 ll
अपनी आज्ञाके उल्लंघन के दोषपर मैं निश्चित ही अपराधीका सिर काट लूँगा। इस प्रकार उस राजाके भयसे प्रत्येक शिवमन्दिरमें दीपक जलाये जाने लगे ॥ 59 ॥
इस प्रकार जीवनपर्यन्त इसी धर्माचरणके पालनसे | राजा दम धर्मकी महान् समृद्धि प्राप्त करके अन्तमें कालधर्मकी गतिको प्राप्त हुआ ॥ 60 ॥
अपनी इस दीपवासनाके कारण शिवालयोंमें बहुत से दीपक प्रज्वलित करके वह राजा (दूसरे जन्ममें] रत्नमय दीपकोंकी शिखाओंको आश्रय देनेवाली अलकापुरीका राजा कुबेर हुआ ॥ 61 ll
इस प्रकार भगवान् शंकरके लिये अल्पमात्र भी किया गया धार्मिक कृत्य समय आनेपर फल प्रदान करता है। यह जानकर उत्तम सुख चाहनेवाले लोगोंको शिवका भजन करना चाहिये ।। 62 ।।
कहाँ सभी धर्मोसे सदा ही दूर रहनेवाला दीक्षितका पुत्र और कहाँ दैवयोगसे धन चुरानेके लिये शिवमन्दिरमें उसका प्रवेश एवं स्वार्थवश दीपककी वर्तिकाको जलाकर शिवलिंगके मस्तकपर छाये हुए अन्धकारको दूर करनेके लिये किया गया उसका पुण्य [जिसके प्रभावसे] उसने कलिंगदेशका राज्य प्राप्त किया और सदैव धर्ममें अनुरक्त रहने लगा। पूर्वजन्मके संस्कार के उदय होनेके कारण ही शिवालयमें सम्यक् रूपसे मात्र दीपकको जलाकर उसने यह दिक्पाल कुबेरकी महान् पदवी प्राप्त कर ली हे मुनीश्वर! देखिये यह मनुष्यधर्मा इस समय इस लोकमें रहकर इसका भोग कर रहा है ।। 63-65 ॥
इस प्रकार यज्ञदत्तके पुत्र गुणनिधिके चरित्रका वर्णन कर दिया, जो शिवको प्रसन्न करनेवाला है और जिसको सुननेवालेको सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ॥ 66 llगुणनिधिने सर्वदेवमय भगवान् सदाशिवसे जिस प्रकार मित्रता प्राप्त की, अब मैं उसका वर्णन आपसे कर रहा हूँ। हे तात! एकाग्रचित्त होकर आप सुनें ॥ 67 ॥