ऋषिगण बोले- हे सूत! आपकी वाणीको सुनकर हमलोग अत्यन्त आनन्दित हुए। आप उसी उत्तम व्रतको प्रीतिसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ 1 ॥
हे सूत ! यहाँपर इस उत्तम व्रतको पहले किसने किया तथा अज्ञानतापूर्वक भी इस व्रतको करनेसे [उसको] कौन-सा उत्तम फल प्राप्त हुआ ? ll 2 ॥
सूतजी बोले- हे ऋषिगणो! मैं [ इस विषयमें ] एक निषादका सर्वपापनाशक पुराना इतिहास कहता हूँ, आप सभी लोग सुनिये ll 3 ॥
पूर्व समयमें किसी वनमें गुरुगुह नामक कोई | बलवान्, निर्दयी तथा क्रूरकर्ममें तत्पर भील कुटुम्बके साथ रहता था। वह सदैव वनमें जाकर प्रतिदिन पशुओंका वध करता था और वहीं वनमें निवास करते हुए अनेक प्रकारकी चोरी किया करता था ।। 4-5ll उसने बाल्यावस्था से लेकर कभी कोई शुभ कर्म नहीं किया। इस प्रकार वनमें उस दुष्टात्माका बहुत समय बीत गया। किसी समय शिवरात्रिका उत्तम दिन आया, परंतु विशाल वनमें निवास करनेवाले उस दुष्टात्माको इसका कुछ भी ज्ञान न था ॥ 6-7 ॥
इसी समय भूखसे पीड़ित उसके माता-पिता तथा स्त्रीने उससे कहा- हे वनेचर! हमें भोजन दो ॥ 8 ॥ उनके ऐसा कहनेपर वह भील भी धनुष लेकर शीघ्र ही मृगोंको मारनेके लिये सारे वनमें घूमने लगा ॥ 9 ॥ दैवयोगसे उस समय उसे कुछ भी न मिला, तबतक सूर्यास्त हो गया, इससे वह बहुत दुखी हुआ ll 10 ॥अब क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? आज मुझे कुछ भी नहीं मिला। घरमें जो बालक हैं, उनकी तथा माता- पिताकी क्या दशा होगी और जो मेरी स्त्री है, उसका क्या हाल होगा, अतः मुझे कुछ लेकर ही जाना चाहिये, बिना भोजन लिये घर जाना व्यर्थ होगा। ऐसा विचारकर वह व्याथ किसी जलाशयके समीप गया और जहाँ जलमें उतरनेके लिये घाट था, वहाँ जाकर बैठ गया । ll 11-13 ॥
इस स्थानपर जल पीनेके लिये कोई जन्तु अवश्य ही आयेगा, तब उसे मारकर मैं अपना कार्य सिद्ध करके आनन्दपूर्वक अपने घर चला जाऊँगा ॥ 14 ॥ इस प्रकारका विचारकर वह भील जल लेकर पास ही स्थित किसी बिल्ववृक्षपर चढ़कर बैठ गया ।। 15 ।।
कब कोई जीव आये और कब मैं उसे मारूँ ऐसा मनमें विचार करता हुआ वह भूखा प्यासा व्याध वहाँ बैठा रहा ॥ 16 ॥
उस रातके प्रथम प्रहरमें प्याससे व्याकुल एक हरिनी चकित हो कूदती फौंदती वहाँ आयी 17 ॥ तब उसे देखकर उसने प्रसन्न हो उसे मारनेके लिये शीघ्र ही अपने धनुषपर बाण चढ़ाया ॥ 18 उसके ऐसा करते ही जल तथा कुछ बिल्वपत्र नीचे गिर पड़े, जहाँपर एक शिवलिंग था। इस प्रकार प्रथम प्रहरकी शिव पूजा व्याधके द्वारा सम्पन्न हो गयी, जिसकी महिमासे उसके पाप नष्ट हो गये ।। 19-20 ।। वहाँके उस शब्दको सुनकर भयसे व्याकुल हरिणी व्याधको देखकर यह वचन कहने लगी- ॥ 21 ॥
मुगी बोली- हे व्याध! तुम क्या करना चाहते हो, मेरे सामने सच सच बताओ ? तब हरिणीकी वह बात सुनकर व्याधने यह वचन कहा- ॥ 22 ॥
व्याध बोला- आज मेरा सारा परिवार भूखा है, मैं तुम्हें मारकर उन्हें तृप्त करूँगा तब उसके इस दारुण वचनको सुनकर एवं उस महादुष्टको देखकर 'मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ, अच्छा! कोई उपाय करती हूँ' - ऐसा विचारकर वहाँपर उसने यह वचन कहा- ॥ 23-24 ॥मृगी बोली [हे व्याध] यदि मेरे अनर्थकारी देहके मांससे तुम्हें सुख प्राप्त हो जाय, तो इससे अधिक पुण्य और क्या हो सकता है, मैं निःसन्देह धन्य हो जाऊँगी, इसमें सन्देह नहीं है॥ 25 ॥
लोकमें उपकारी जीवको जो पुण्य होता है, उस पुण्यका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता है। किंतु [तुमसे एक विनती करती है कि] मेरे सभी बच्चे इस समय मेरे आश्रम में हैं, उन्हें अपनी बहन अथवा स्वामीको सौंपकर मैं पुनः आ जाऊँगी ॥ 26-27 ॥
हे वनेचर! तुम मेरी बातको झूठ मत जानो, मैं अवश्य यहाँ तुम्हारे पास पुनः आ जाऊँगी, इसमें सन्देह नहीं । सत्यसे ही यह पृथ्वी टिकी हुई है, सत्यसे ही समुद्र तथा सत्यसे जलकी धारा बहती है, सब कुछ सत्यमें ही प्रतिष्ठित है॥ 28-29 ॥
सूतजी बोले- उसके इस प्रकार कहनेपर भी जब उस व्याधने उसकी बात नहीं मानी, उसका कहना नहीं माना तब विस्मित एवं भयभीत उस हरिणीने पुनः यह वचन कहा- ॥ 30 ॥
मृगी बोली- हे व्याध ! मैं जो कहती हूँ, उसे सुनो, मैं शपथ लेकर कहती है कि यदि मैं जा करके अपने घरसे तुम्हारे पास न लौहूँ, तो वेदविक्रयी एवं त्रिकाल सन्ध्योपासनहीन ब्राह्मणको तथा अपने स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करके कर्ममें तत्पर रहनेवाली स्त्रियोंको जो पाप लगता है, कृतघ्नको जो पाप लगता है, शिवविमुखको जो पाप लगता है, परद्रोहीको जो पाप लगता है, धर्मका उल्लंघन करनेवालेको जो | पाप लगता है। विश्वासघाती एवं छल करनेवालेको जो पाप लगता है, वह सब पाप मुझे लगे, यदि मैं तुम्हारे पास पुनः न लौहूँ ॥ 31-34 ॥
इस प्रकार अनेक शपथ करके जब वह हरिणी वहीं खड़ी रही, तब उस भीलने विश्वास करके 'घर जाओ' ऐसा कह दिया। तब हरिणी प्रसन्न होकर जल पी करके अपने स्थानको चली गयी। तबतक उसका प्रथम प्रहर बिना निद्राके बीत गया । ll 35-36 ॥ [इसी बीच] उसकी बहन जो दूसरी हरिणी थी, वह उत्कण्ठापूर्वक उसे खोजती हुई जल पीने के लिये वहाँ आ गयी ॥ 37 ॥उसे देखकर भीलने बाणको [पुनः] खींचा, जिससे पहलेके समान ही जल तथा बिल्वपत्र शिवजीके ऊपर गिर पड़े। उसके कारण संयोगवश महात्मा सदाशिवकी दूसरे प्रहरकी भी पूजा हो गयी। जो व्याधके लिये सुखप्रद थी ॥ 38-39 ॥
उस हरिणीने उसकी ओर देखकर कहा 'हे वनेचर! यह क्या कर रहे हो ?' उसने पहलेकी भाँति [अपना प्रयोजन] कहा यह सुनकर उस मृगीने पुनः कहा- ॥ 40 ॥
मृगी बोली - हे व्याध ! सुनो, मैं धन्य हूँ। आज मेरा देह धारण करना सफल हुआ; क्योंकि इस अनित्य शरीरसे उपकार होगा, परंतु मेरे बच्चे घरपर हैं, उन्हें मैं अपने स्वामीको सौंपकर पुनः यहाँ आ जाऊँगी ।। 41- 42 ॥
व्याध बोला- मैं तुम्हारी बात नहीं मानता, तुम्हें अवश्य मारूँगा, इसमें संशय नहीं है। यह सुनकर हरिणी विष्णुकी शपथ करती हुई कहने लगी ॥ 43 ॥
मृगी बोली- हे व्याध मैं जो कहती हूँ, उसे सुनो, यदि मैं पुनः न आऊँ तो अपनी बातसे विचलित होनेवालेका जिस प्रकार सुकृत नष्ट हो जाता है अथवा जो मनुष्य अपनी विवाहिता स्त्रीको छोड़कर दूसरी स्त्रीसे समागम करता है, जो वेदधर्मका उल्लंघनकर मनमाने मार्गसे चलता है, विष्णुभक्त होकर जो शिवको निन्दा करता है, माता- पिताके क्षयाहके आनेपर जो [बिना श्राद्धादि किये] उसे सूना ही बिता देता है, अपने दिये हुए वचनको जो सन्तापका अनुभव करते हुए पूरा करता है— इन्हें जो पाप लगता है, वह पाप मुझे लगे, यदि मैं न आऊँ ।। 44-47 ।। सूतजी बोले- उसके ऐसा कहनेपर व्याधने मृगीसे कहा- जाओ । तब वह मृगी भी प्रसन्न हो जल पीकर अपने स्थानपर चली गयी ॥ 48 ॥
तबतक उस व्याधका दूसरा प्रहर भी बिना निद्राके बीत गया। इसी समय तीसरा प्रहर आनेपर मृगीके आनेमें विलम्ब जानकर वह चकित हो उसे ढूँढ़ने लगा। तब उस प्रहरमें उसे एक मृग जलमार्गकी ओर आता हुआ दिखायी पड़ा ॥ 49-50 ॥उस पुष्ट मृगको देखकर वह व्याध बहुत ही प्रसन्न हुआ और धनुषपर बाण चढ़ाकर उसे मारनेके लिये उद्यत हो गया। हे द्विजो उस समय भी उस व्याधके ऐसा करते ही उसके प्रारब्धवश कुछ बिल्वपत्र शिवजीके ऊपर गिर पड़े ।। 51-52 ॥
इस प्रकार उस रात्रिमें उस भीलके भाग्यसे तीसरे प्रहरकी भी शिवपूजा हो गयी, इस तरहसे शिवजीने उसके ऊपर अपनी कृपालुता प्रकट की । ll 53 ॥
वहाँ उस शब्दको सुनकर उस मृगने कहा- [हे वनेचर!] यह क्या कर रहे हो ? तब वह व्याध बोला कि मैं अपने कुटुम्बके लिये तुम्हारा वध करूँगा ॥ 54 ॥ व्याधका यह वचन सुनकर मृग प्रसन्नचित्त हो गया और बड़ी शीघ्रतासे उस व्याधसे यह वचन कहने लगा- ll 55 ॥
हरिण बोला- मैं धन्य हूँ, जो इतना पुष्ट हूँ, जिससे तुम्हारी तृप्ति हो जायगी, जिसका शरीर उपकारके लिये प्रयुक्त न हो, उसका सब कुछ निष्फल हो जाता है। जो सामर्थ्ययुक्त रहता हुआ भी, उपकार नहीं करता, उसका सामर्थ्य निष्फल ही है और वह परलोकमें जानेपर नरक प्राप्त करता है, किंतु मैं अपने बच्चोंको उनकी माताको सौंपकर और उन सभीको धैर्य देकर पुनः आ जाऊँगा ll 56-58 ॥
उसके ऐसा कहनेपर वह व्याध अपने मनमें बहुत ही विस्मित हुआ, थोड़ा शुद्ध मनवाले तथा नष्ट हुए पापसमूहवाले उस व्याधने यह वचन कहा- ॥ 59 ॥
व्याध बोला- जो-जो यहाँ आये, वे सभी तुम्हारे ही जैसा कहकर चले गये, किंतु वे वंचक अभीतक नहीं लौटे। हे मृग ! तुम भी संकटमें प्राप्त होकर उसी प्रकार झूठ बोलकर चले जाओगे, आज इस प्रकार में जीवन निर्वाह कैसे होगा ? ।। 60-61 ॥
मृग बोला- हे व्याध ! मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो, मैं झूठ नहीं बोलता, यह सारा चराचर ब्रह्माण्ड सत्यसे ही प्रतिष्ठित है। जिसकी वाणी मिथ्या होती है, उसका पुण्य क्षणभरमें नष्ट हो जाता है। तथापि हे भील! तुम मेरी सत्य प्रतिज्ञाको सुनो। सन्ध्याकालमें मैथुन करनेसे शिवरात्रिको भोजन करनेसे झूठी गवाही देनेसे, धरोहरका हरण करनेसे, सन्ध्यारहितब्राह्मणको, जिसके मुखसे 'शिव' नामका उच्चारण नहीं होता, समर्थ होते हुए भी जो उपकार नहीं करता, शिवपर्वके दिन बेलके तोड़नेसे, अभक्ष्य भक्षणसे और बिना शिवपूजन किये एवं शरीरमें बिना भस्मका लेप किये, जो भोजन करता है-इन सभीको जो पाप लगता है, वह पाप मुझे लगे। यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ ॥ 62–66 ॥
सूतजी बोले- उसका यह वचन सुनकर व्याधने उससे कहा- जाओ, शीघ्र लौटकर आना। तब वह हरिण जल पीकर चला गया ॥ 67 ॥
इसके बाद भलीभाँति प्रतिज्ञा किये हुए वे सभी [ मृग और मृगी] अपने आश्रममें जाकर परस्पर मिले और एक- दूसरेको सारा समाचार परस्पर निवेदन किया। इस प्रकार सारा वृत्तान्त सुनकर सभीने सत्यपाशमें नियन्त्रित होनेके कारण विचार किया कि हमें वहाँ निश्चितरूपसे जाना चाहिये और तब अपने बालकोंको धीरज देकर वे जानेको तैयार हो गये । ll 68-69 ॥
उनमें से जो हरिणी सबसे बड़ी थी, उसने अपने स्वामीसे कहा- हे मृग ! तुम्हारे बिना ये बालक किस प्रकार यहाँ निवास करेंगे? हे प्रभो ! मैं [ व्याधके पास जानेके लिये] पहले प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ । अतः पहले वहाँ मुझे जाना चाहिये। आप दोनों यहीं रहें ।। 70-71 ॥
उसकी यह बात सुनकर छोटी हरिणीने यह वचन कहा- मैं तुम्हारी सेविका हूँ, आज मैं जाती हूँ और तुम यहींपर रहो। यह सुनकर मृगने कहा मैं ही वहाँ जा रहा हूँ, तुम दोनों यहीं रहो; क्योंकि माताके द्वारा ही बालकोंकी रक्षा होती है ॥ 72-73 ॥ तब स्वामीकी बात सुनकर उन्होंने उसे धर्मके अनुकूल नहीं समझा। वे बड़े प्रेमसे अपने पतिसे कहने लगीं कि विधवा बनकर जीना धिक्कार है ॥ 74 ॥
इसके बाद उन बालकोंको धैर्य देकर तथा उन्हें पड़ोसियोंको सौंपकर वे सभी शीघ्र वहाँ गये, जहाँ व्याधश्रेष्ठ स्थित था। तब वे सभी बच्चे भी यह सोचकर उनके पीछे-पीछे चल पड़े कि इनकी जो गति होगी, वही गति हमारी भी हो ॥ 75-76 ॥उन्हें देखकर व्याध अत्यन्त हर्षित हो उठा और धनुषपर बाण चढ़ाने लगा। इतनेमें शिवजीके ऊपर पुनः जल और बिल्वपत्र गिर पड़े। उससे चतुर्थ प्रहरकी भी उत्तम पूजा सम्पन्न हो गयी, फिर तो क्षणभरमें ही उसका सारा पाप नष्ट हो गया। उस समय दोनों मृगियों एवं मृगने शीघ्रतापूर्वक कहा हे व्याध श्रेष्ठ! अब तुम [हमलोगोंपर] कृपा करो और हमारे शरीरको सार्थक करो ॥ 77-79 ॥
उनकी यह बात सुनकर भील आश्चर्यचकित हुआ। शिवजीकी पूजाके प्रभावसे उसे दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो गया ॥ 80 ॥
ज्ञानरहित ये मुग धन्य हैं, ये परम सम्माननीय हैं, जो अपने शरीरसे परोपकार करनेमें तत्पर हैं। मैंने इस समय मनुष्यजन्म पाकर भी क्या फल प्राप्त किया, मैंने दूसरोंके शरीरको पीड़ित करके अपने शरीरका पालन किया। हाय! मैंने नित्य अनेक पाप करके अपने कुटुम्बका पालन-पोषण किया। इस प्रकारके पाप करनेके कारण [अब आगे] मेरी क्या गति होगी, मैं किस गतिको प्राप्त होऊंगा ? हाय मैंने तो जन्मसे ही पाप किया है, मैं इस समय ऐसा सोच रहा है, मेरे जीवनको धिक्कार है। धिक्कार है!! इस प्रकारसे ज्ञानको प्राप्त हुआ वह व्याध अपने बाणको उतारते हुए कहने लगा कि हे श्रेष्ठ मृगो ! तुमलोग धन्य हो, अब जाओ ll 81-85 ll
तब उसके इस प्रकार कहनेपर शंकरजीने प्रसन्न होकर अपने लोकपूजित उत्तम स्वरूपको उसे दिखाया ।। 86 ।।
इसके बाद कृपापूर्वक उस व्याधको स्पर्शकर शिवजीने प्रसन्नतापूर्वक कहा- हे भील! मैं [तुम्हारे ] इस व्रतसे प्रसन्न हूँ, वर माँगो ॥ 87 ॥
व्याथ भी शिवजीके स्वरूपको देखकर क्षण मात्रमें मुक्त हो गया और मैंने आज सब कुछ पा लिया ऐसा कहता हुआ शिवके चरणोंके आगे गिर पड़ा ॥ 88 ॥
शिवजीने भी प्रसन्नचित्त होकर उसे 'गुह' ऐसा नाम देकर उसकी ओर कृपादृष्टिसे देखकर उसे दिव्य वर दिये ।। 89 llशिवजी बोले- हे व्याध ! सुनो, इस समय तुम शृंगवेरपुरमें [अपनी] श्रेष्ठ राजधानी बनाकर यथेष्ट दिव्य सुखोंका उपभोग करो ॥ 90 ॥
वहाँ अक्षयरूपसे तुम्हारे वंशकी वृद्धि होगी, हे व्याध ! तुम देवताओंके लिये भी प्रशंसनीय रहोगे, तुम्हारे घर [ साक्षात् ] श्रीरामचन्द्रजी निश्चित रूपसे पधारेंगे। मेरे भक्तोंसे प्रेम करनेवाले वे तुमसे मित्रता करेंगे और मेरी सेवामें आसक्त चित्तवाले तुम दुर्लभ मोक्षको प्राप्त कर लोगे ।। 91-92 ।।
सूतजी बोले- इसी बीच वे सभी मृग भी शिवजीका दर्शनकर उन्हें प्रणाम करके मृगयोनिसे मुक्त हो गये। वे शिवके दर्शनमात्रसे शापमुक्त हो गये और दिव्य देह धारण करके विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोक चले गये ॥ 93-94 ॥
तभी से शिवजी अर्बुदाचल पर्वतपर व्याधेश्वर नामसे प्रसिद्ध हुए, जो दर्शन तथा पूजनसे शीघ्र भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं ॥ 95 ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठो ! उस भीलने भी उस दिनसे सुखोंका उपभोग करनेके उपरान्त श्रीरामकी कृपा प्राप्तकर शिवसायुज्य प्राप्त कर लिया ॥ 96 ॥
अज्ञानवश इस व्रतको करके उसने सायुज्य मुक्तिको प्राप्त किया, तो फिर यदि भक्तिभावसे युक्त मनुष्य शुभ सायुज्य मुक्तिको प्राप्त करते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥ 97 ॥
मैंने समस्त शास्त्रों तथा अनेक धर्मोंका चिन्तन करके इस शिवरात्रिव्रतको सर्वोत्कृष्ट कहा है। अनेक प्रकारके व्रत, अनेक प्रकारके तीर्थ, अद्भुत दान, विविध यज्ञ, नाना प्रकारके तप एवं अनेक प्रकारके जप भी इस शिवरात्रिकी तुलना नहीं कर सकते । इसलिये अपना हित चाहनेवालोंको अत्यन्त शुभ, दिव्य भोग एवं मोक्ष देनेवाले इस शिवरात्रिव्रतको सदा करना चाहिये ।। 98 - 101 ॥
इस प्रकार मैंने व्रतराज-इस नामसे विख्यात |इस शुभ शिवरात्रिव्रतका सम्पूर्ण रूपसे वर्णन किया। अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 102 ॥