श्रीकृष्ण बोले- मैं शिवके आश्रमका सेवन करनेवालोंके शिवशास्त्रोक्त नित्य नैमित्तिक कर्मको सुनना चाहता हूँ ॥ 1 ॥ उपमन्यु बोले- प्रातः काल शयनसे उठकर पार्वतीसहित शिवका ध्यान करके अपने [ दैनन्दिन] कर्तव्यका भलीभाँति चिन्तन करके अरुणोदयकालमें घरसे निकल जाय। बाधारहित एकान्त स्थानमें आवश्यक कार्य करनेके अनन्तर शौच करके विधि पूर्वक दन्तधावन करना चाहिये। दातौनके उपलब्ध न| होनेपर तथा अष्टमी आदि (प्रतिपदा, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा) दिनोंमें [ दातौनका निषेध होनेके कारण] बारह बार जलसे कुल्ला करके मुख शुद्ध करना चाहिये ॥ 2-4 ॥
इसके बाद आचमन करके विधिवत् नदी अथवा देवखात (देवालयके समीप निर्मित कुण्ड आदि) अथवा सरोवर अथवा घरमें ही [प्रातः कालीन ] स्नान करना चाहिये ॥ 5 ॥
स्नान- द्रव्योंको तटपर रखकर उस [सरोवर आदि] के बाहर [मर्दन आदिके द्वारा दैहिक] मलको दूर करके मिट्टीका लेप करके स्नान करे तथा अनन्तर गोमयका लेप करना चाहिये। इसके बाद पुनः स्नान करके वस्त्रका त्यागकर अथवा उसे धोकर पुनः स्नान करके राजाकी भाँति शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिये ॥ 6-7 ॥
ब्रह्मचारी, तपस्वी तथा विधवा स्त्रीको [देहमर्दन आदि क्रियाओंवाला] मलस्नान, सुगन्धित पदार्थोंसे स्नान तथा दातौन नहीं करना चाहिये। उपवीत धारण करके शिखाबन्धनकर जलमें प्रविष्ट होकर डुबकी लगाकर सम्यक् आचमन करके जलमें तीन मण्डल बनाने चाहिये ॥ 8-9 ॥
पुनः जलमें डुबकी लगाये हुए अपनी शक्तिके अनुसार मन्त्र जपे और शिवका स्मरण करे। फिर बाहर निकलकर आचमन करके उसीसे अपना अभिषेक करे ॥ 10 ॥
दर्भके साथ गायके सींगसे, पलाशके पत्तेसे, कमलदलसे अथवा दोनों हाथोंसे पाँच या तीन बार अभिषेक करे। उद्यान आदि तथा घरमें वर्धनी अथवा कलशसे स्नानके समय अभिमन्त्रित जलसे स्नान करना चाहिये ॥ 11-12 ॥
यदि जलस्नान करनेमें [व्यक्ति] असमर्थ हो, तो भींगे हुए शुद्ध वस्त्रसे पैरोंसे लेकर मस्तकतक शरीरको पोंछना चाहिये। भस्मस्नान अथवा मन्त्रस्नान शिवमन्त्र से करना चाहिये। शिवचिन्तनसे युक्त होकर किया गया स्नान उस योगपरायण व्यक्तिका आत्मीय कहा जाता है ॥ 13-14 ॥अपने सूत्रमें कथित विधानके अनुसार मन्त्राचमनपूर्वक देवता आदिका तर्पण करके ब्रह्मयज्ञपर्यन्त सभी कर्म करना चाहिये ॥ 15 ॥
इसके बाद मण्डलमें विराजमान महादेवका ध्यान तथा यथाविधि पूजन करके उन आदित्यस्वरूप शिवको अर्घ्य प्रदान करना चाहिये। अथवा अपने सूत्रमें कथित इस कर्मको करके दोनों हाथोंको धो लेना चाहिये। तत्पश्चात् करन्यास और शरीरका | सकलीकरण करके बायें हाथमें लिये हुए गन्ध सरसोंमिश्रित जलसे कुशपुंजके द्वारा मूलमन्त्रसहित 'आपो हि ष्ठा' आदि मन्त्रोंसे प्रोक्षण करके शेष जलको सूँघकर बायें नासापुटसे श्वेतवर्णवाले महादेवकी भावना करनी चाहिये ॥ 16-19 ॥
पुनः अर्घ लेकर दाहिने नासापुटसे देहके बाहर स्थित कृष्णवर्णवाले महादेवकी भावना करनी चाहिये । | इसके बाद विशेषकर देवताओं, ऋषियों, पितरों एवं भूतोंका तर्पण करना चाहिये तथा उन्हें विधिपूर्वक अर्घ्य प्रदान करना चाहिये ll 20-21 ॥
रक्तचन्दनमिश्रित जलसे एक हाथ प्रमाणका पूर्ण गोलाकार मण्डल भूमिपर बनाये, जो रक्तचूर्ण आदिसे अलंकृत हो। उसमें सुखप्राप्तिके लिये 'खखोल्काय' – इस मन्त्रसे आवरणोंसहित सूर्यकी सांगोपांग पूजा करे ॥ 22-23 ।।
पुनः मण्डल बनाकर अंगपूजन करके मागधप्रस्थ प्रमाणवाला सुवर्णपात्र स्थापितकर उसे गन्ध तथा रक्त चन्दनयुक्त जलसे और रक्तपुष्प, तिल, कुश, अक्षत, दूर्वा, अपामार्ग तथा दुग्ध, गोमूत्रादि गव्य पदार्थोंसे अथवा केवल जलसे भर दे। तत्पश्चात् घुटनोंके बल पृथ्वीपर विनत होकर मण्डलमें महादेवको प्रणाम करके उस पात्रको सिरसे लगाकर शिवको वह अर्घ्य प्रदान करे; अथवा मूलविद्या (मन्त्र) के द्वारा आकाशस्थित आदित्यरूप शिवको अंजलिसे दर्भयुक्त जल समर्पित करे ॥ 24-271/2 ।।
तत्पश्चात् हस्तप्रक्षालन करके पुनः करन्यास करके ईशानसे लेकर सद्योजातपर्यन्त पंच ब्रह्ममय शिवका ध्यान करके भस्म लेकर यकारादि नकारान्त वर्णात्मक मन्त्रोंसे अर्थात् पंचाक्षरके वर्णोंका विलोम क्रमसे उच्चारण करते हुए उसे लगाकर अंगोंका स्पर्श करे ॥ 28-29 ॥मूलमन्त्र से सिर, मुख, हृदय, गुह्यदेश तथा चरण क्रमसे सम्पूर्ण देहका स्पर्शकर पुनः दूसरा वस्त्र धारण करके दो बार आचमनकर ग्यारह मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित जलसे प्रोक्षण करके दूसरा वस्त्र ओढ़कर दो बार आचमन करके शिवका स्मरण करे ।। 30-31 ॥
इसके बाद मन्त्रसाधक पुन: करन्यास करके सुगन्धित जलयुक्त भस्मसे ललाटपर स्पष्ट त्रिपुण्ड्र लगाये, जो टेढ़ा-मेढ़ा न हो तथा आयताकार हो या गोल, चौकोर, विन्दुमात्र अथवा अर्धचन्द्राकार हो भस्मसे जैसा त्रिपुण्ड्र ललाटपर लगाया गया हो, वैसा ही [त्रिपुण्ड्र ] दोनों भुजाओंमें, सिरपर तथा स्तनोंके बीच लगाये सभी अंगोंमें भस्मसे उद्भूलन भी त्रिपुण्ड्रकी समता नहीं कर सकता है, अतः उद्भूलनके बिना भी एक त्रिपुण्ड्र अवश्य ही लगाना चाहिये ll 32-341/2 ॥
सिरपर, कण्ठमें, कानमें तथा हाथमें रुद्राक्षोंको धारण करे। सुवर्णके समान वर्णवाले, अच्छिन्न, सुन्दर तथा दूसरोंके द्वारा धारण न किये गये रुद्राक्षको धारण करे। श्वेत, पीला, लाल तथा काला रुद्राक्ष क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्णोंके लिये विहित होता है। वैसा न मिलनेपर जो भी [ रुद्राक्ष] प्राप्त हो जाय, उसे धारण करे, किंतु वह दोषयुक्त न हो। उसमें भी निम्न वर्णवालोंको उत्तमवर्णका तथा उत्तम वर्णवालोंको निम्नवर्णका रुद्राक्ष नहीं धारण करना चाहिये ।। 35-37 ॥
अपवित्र अवस्थामें रुद्राक्ष धारण नहीं करना चाहिये, अपितु उचित अवसरोंमें ही धारण करना प्रशस्त है। इस प्रकार तीनों सन्ध्याकालोंमें अथवा दो सन्ध्याकालोंमें अथवा एक सन्ध्याके समय स्नान आदि [कृत्य ] करके सामर्थ्यानुसार परमेश्वरकी पूजा करनी चाहिये। पूजास्थानमें आकर उत्तम आसन लगाकर पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर शिव तथा पार्वतीका ध्यान करना चाहिये और श्वेतसे लेकर नकुलीशपर्यन्त शिवावतारोंको उनके शिष्यों सहित तथा [अपने] गुरुको प्रणाम करना चाहिये ।। 38-40 ॥इसके बाद भगवान् शिवको पुनः नमस्कार करके उनके आठ नामोंका जप करना चाहिये; शिव, महेश्वर, रुद्र, विष्णु, पितामह, संसारवैद्य, सर्वज्ञ तथा परमात्मा - इन आठ नामोंका अथवा एक ही 'शिव' नामका ग्यारहसे अधिक बार जप करके व्याधि आदिकी शान्तिके लिये जिह्वाके अग्रभागपर तेजकी राशि [शिव]- का ध्यान करके पैरोंको धोकर हस्तप्रक्षालन करके दोनों हाथोंको चन्दनलिप्त करके करन्यास करना चाहिये ॥ 41-43॥