उपमन्यु बोले- [ हे कृष्ण!] स्थिति, उत्पत्ति तथा लयके क्रमसे न्यास तीन प्रकारका कहा गया है। | स्थिति [ नामक ] न्यास गृहस्थोंके लिये और उत्पत्तिन्यास ब्रह्मचारियोंको विहित बताया गया है। यतियोंके लिये संहारन्यासकी विधि है और वही वानप्रस्थियोंके लिये भी विहित है। पतिविहीन कुटुम्बिनी स्त्रीके लिये भी स्थिति नामक न्यास विहित है। कन्याके लिये उत्पत्तिन्यास विहित है। अब न्यासका लक्षण बताऊँगा। अँगूठेसे कनिष्ठिकातक स्थितिन्यास कहा गया है। दाहिने अँगूठेसे आरम्भ करके बाँयें अँगूठेतक उत्पत्तिन्यास कहा गया है; उसके विपरीत संहतिन्यास होता है ॥ 1-4 ॥
बिन्दुसहित नकार आदि वर्णोंका क्रमसे अँगुलियों में न्यास करे और दोनों करतल तथा अनामिकाओं में शिवका अर्थात् मूलमन्त्रका न्यास करे। इसके बाद अस्त्रमन्त्रसे दसों दिशाओंमें अस्त्रन्यास करे तदुपरान्त पंचभूतस्वरूपवाली तथा पंचभूताधिपोंके चिह्नोंसे युक्त एवं हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य तथा ब्रह्मरन्ध्रके आश्रित रहनेवाली, पंचभूताधिपों और उनके अपने बीजोंसे संश्लिष्ट निवृत्ति आदि पाँच कलाओंकी उन-उन बीजमन्त्रों में भावना करे। उन [ कलाओं] के शोधनके लिये पंचाक्षरीविद्या [मन्त्र ] का जप करे ॥ 5–7॥तीन बार प्राणायाम करके अस्त्रमन्त्र तथा अस्त्रमुद्रासे भूतग्रन्थिको काटे । सुषुम्नानाड़ीसे प्राणवायुद्वारा आत्माको प्रेरितकर ब्रह्मरन्ध्रसे निर्गत उस आत्माको शिवतेजसे युक्त करे, इसके बाद वायुसे देहको सुखाकर उसे कालाग्निसे दग्ध कर दे। तत्पश्चात् ऊपरी भावसे वायुद्वारा कलाओंको संहत करके दग्ध देहको संहृत करके अब्धिके साथ कलाओंका स्पर्श करके अमृतसे देहको प्लावित कर उसे यथास्थान निविष्ट कराये। इसके बाद कलासृष्टिके बिना उसका संहार करके भस्मीभूत उस देहका अमृतप्लावन करे ॥ 8-13॥
तत्पश्चात् उस विद्यामय देहमें दीपशिखाके [सदृश] आकारवाले शिवनिर्गत आत्माको ब्रह्मरन्ध्रसे संयुक्त करे। पुनः देहके भीतर प्रविष्ट उस आत्माका हृदयकमलमें ध्यान करके अमृतवर्षासे पुनः विद्यामय शरीरका सेचन करे ॥ 14-15 ।।
इसके बाद हाथोंको शुद्ध करके करन्यास करे। तत्पश्चात् महती मुद्रासे देहन्यास करे। तदनन्तर शिवोक्त मार्गसे अंगन्यास करनेके पश्चात् हाथ पैरकी सन्धियोंमें वर्णन्यास करे। इसके बाद छः जातियोंसे युक्त षडंगन्यास करके क्रमानुसार अग्निकोण आदि दिशाओंमें दिग्बन्ध करे। अथवा सिर आदिमें पंचांगन्यास करे तथा भूतशुद्धि आदिके बिना षडंगन्यास करे ।। 16-19 ॥
इस प्रकार संक्षिप्तरूपसे देह तथा आत्माका शोधन करके शिवभावको प्राप्त होकर परमेश्वरका पूजन करे। जिसे समय हो तथा बुद्धिभ्रम न हो, वह विस्तृतविधिसे न्यासकर्म करे ॥ 20-21 ॥
उसमें पहला मातृकान्यास, दूसरा ब्रह्मन्यास, तीसरा प्रणवन्यास, चौथा हंसन्यास और पाँचवाँ पंचाक्षरात्मकन्यास सज्जनोंद्वारा कहा जाता है। इनमें एक या अनेक न्यासोंका पूजा आदि कर्मोंमें उपयोग करे ।। 22-23 ॥
मूर्धामें अंकारका न्यास करके ललाटमें 'आं' का, नेत्रोंमें 'ई-ई' का, कानोंमें 'उं ऊं' का, कपोलों में 'ऋ ॠ' का, दोनों नासापुटोंमें 'लूं-लूं' का, दोनों ओठोंमें 'एं ऐं' का, दोनों दन्तपंक्तियोंमें 'ओं-औं'का, जीभमें 'अं' का और तालु 'अ' का क्रमसे न्यास करे। दाहिने हाथकी पाँचों सन्धियोंग कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) का न्यास करें और बायें हाथकी पाँचों सन्धियोंमें चवर्ग ( च, छ, ज, झ, अ) का न्यास करे। दोनों पैरोंमें टवर्ग तथा तवर्गका, दोनों पाश्र्वग 'पफ' का, पृष्ठ तथा नाभिमें 'ब भ' का और हृदय में मकारका न्यास करे। 'य' से लेकर 'स' तकके वर्णोंका न्यास त्वचा आदि सातों धातुओंगे क्रमसे करे। हृदयके भीतर हकारका और दोनों भौहोंके मध्य क्षकारका न्यास करे। इस प्रकार शिवशास्त्र के अनुसार पचास वर्णोंका न्यास करके अंग-वक्त्र कलाभेदसे पंचब्रह्मोंका न्यास करे ।। 24-30 ।।
तदुपरान्त उन्हींसे करन्यास आदि भी करे अथवा बिना किये भी क्रमपूर्वक सिर, मुख, हृदय, गुहा तथा पैरोंमें इनकी कल्पना करे। इसके बाद ऊर्ध्वं आदि मुखोंके क्रमसे पश्चिमतकके शिवके मुखोंकी कल्पना करे। इन पाँचों मुखोंमें क्रमसे ईशानकी पाँच कलाओंका न्यास करे ।। 31-32 ।।
इसके बाद पूर्व आदिके क्रमसे चार मुखोंमें तत्पुरुषकी चार कलाओंकी कल्पना करे। पुनः हृदय, कण्ठ, कंधा, नाभि, कुक्षि, पीठ, वक्ष, दोनों पैरों तथा हाथोंमें अघोरकी आठ कलाओंका न्यास करे ।। 33-34 ।।
इसके बाद गुदा, लिंग, जानु, जंघा, नितम्ब, कटि तथा पार्श्वभागों में वामदेवकी तेरह कलाओंकी भावना करे। इसके बाद मन्त्रवेत्ताको चाहिये कि दोनों पैरों, दोनों हाथों, नासिका, सिर तथा दोनों बाहुओं में सद्योजातकी आठ कलाओंकी भावना करे। इस प्रकार क्रमानुसार अड़तीस कलाओंका न्यास करके प्रणववेत्ता विद्वान्को बादमें दोनों बाहुओं, दोनों कुहनियों, दोनों मणिबन्धों, पार्श्वभागों, उदर, करू, जंघाओं, पैरों तथा पीठमें प्रणवन्यास करना चाहिये ।। 35-3792 ।।
इस प्रकार प्रणवन्यास करके न्यासविद्को चाहिये कि जैसा शिवशास्त्रमें कहा गया है, उसके अनुसार हंसन्यास करे। हंसबीजका विभाजन करके नेत्रोंमें, नासिकाछिद्रोंमें, भुजाओंमें, नेत्रोंमें, मुखमें, ललाटमें,कानोंमें, काँखोंमें, स्कन्धोंमें, पाश्र्वोंमें, स्तनोंमें, कटिमें, हाथोंमें तथा टखनोंमें हंसन्यास करे अथवा पंचांगविधिसे इस हंसन्यासको करके पंचाक्षरीविद्याका न्यास करे ।। 38-41 ।।
इस प्रकार पूर्वमें बतायी गयी रीतिसे न्यासद्वारा अपनेमें शिवत्वका आधान करे। अशिव होकर शिवका अभ्यास न करे, अशिव होकर शिवका पूजन न करे तथा अशिव होकर शिवका ध्यान न करे, अशिव मनुष्य शिवको नहीं प्राप्त कर सकता है। अतः शरीरको शैवीधारणासे युक्त करके तथा पशुभावनाका त्याग करके मैं शिव हूँ'-ऐसा विचार करके शिवकर्म करे ।। 42-431/2 ॥
कर्मयज्ञ, तपयज्ञ जपयज्ञ, ध्यानयज्ञ तथा ज्ञानयज्ञ- ये पाँच यज्ञ कहे गये हैं। कुछ लोग कर्मयज्ञमें संलग्न रहते हैं, कुछ लोग तपयज्ञमें रत रहते हैं, कुछ लोग जपयज्ञमें लगे रहते हैं, कुछ लोग ध्यानयज्ञमें लीन रहते हैं और कुछ लोग ज्ञानयज्ञपरायण रहते हैं। ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होते हैं। सकाम तथा अकामके भेदसे कर्मयज्ञ दो प्रकारका कहा गया है ll 44 - 46 ll
सकाम मनुष्य कामनाओंका भोग करके पुनः पुनः उन्हीं कामनाओंमें फँसता रहता है। निष्काम रुद्रभवनमें भोगोंको भोगकर फिर वहाँसे लौटकर पृथ्वीलोक में तपयज्ञपरायण होकर उत्पन्न होता है, इसमें सन्देह नहीं है। वह तपस्वी पुन: इस लोकमें भोगोंको भोगकर वहाँसे फिर लौटकर जपध्यान परायण होकर पृथ्वीलोकमें मनुष्य होता है। जपध्यानमें संलग्न मनुष्य उसकी विशिष्टताके कारण इस लोकमें अविलम्ब ज्ञान प्राप्त करके शिवसायुज्यको प्राप्त होता है ।। 47-491/2 ।।
अतः कर्मयज्ञ भी शिवाज्ञासे देहधारियोंको मुक्ति प्राप्त कराता है। निष्कामकर्म मनुष्यके कामयुक्त होनेपर उसके बन्धनका कारण बनता है। अतः पाँचों यज्ञोंमें ध्यानयज्ञ तथा ज्ञानयज्ञमें परायण होना चाहिये। जिसने ध्यान तथा ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसने मानो भवसागर पार कर लिया। हिंसा आदि दोषोंसे रहित होनेसे विशुद्धताको प्राप्त यह ध्यानयज्ञ चित्तकोअभ्युन्नत करनेवाला, श्रेष्ठ तथा मोक्षदायक कहा गया है। जिस प्रकार राजाके अन्तरंग सेवक विशिष्ट लाभोंको प्राप्त कर लेते हैं, जो बहिरंग सेवकोंके लिये दुर्लभ हैं, वैसे ही ध्यानयोगी भी उत्कृष्ट फलोंको प्राप्त करते हैं । ध्यानियोंको शिवका सूक्ष्म विग्रह वैसे ही प्रत्यक्ष हो जाता है, जैसे कि कर्मयज्ञ करनेवालोंको | मिट्टी, काष्ठ आदिसे बना हुआ स्थूलरूप प्रत्यक्ष होता है। अतः ध्यानयज्ञपरायण भक्त शिवको भलीभाँति जाननेके कारण मिट्टी, पत्थर आदिसे निर्मित देवताओंपर अधिक श्रद्धा नहीं करते हैं। अपने हृदयमें स्थित शिवको छोड़कर जो मनुष्य बाह्य पूजन करता है, वह हस्तगत फलको छोड़कर मानो अपनी कुहनी चा है ॥ 50-561/2 ॥
ज्ञानसे ध्यानयोग सिद्ध होता है और पुनः ध्यानसे ज्ञानोपलब्धि होती है, उन दोनोंसे मुक्ति हो जाती है। अतः ध्यानपरायण होना चाहिये। द्वादशान्त, सिर, ललाट, भ्रूमध्य, नासाग्र, मुख, कन्धा, हृदय (वक्ष), नाभि तथा शाश्वतस्थानमें श्रद्धायुक्त मनसे बाहरी पूजोपचारोंसे शिव तथा पार्वतीका पूजन करना चाहिये अथवा [प्रतिष्ठित] लिंगमें या बनाये गये पार्थिवलिंगमें अथवा अग्निमें अथवा स्थण्डिलमें भक्तिपूर्वक अपने धनसामर्थ्यके अनुसार पूजन करना चाहिये। अथवा बाहर तथा भीतर परमेश्वरकी पूजा करे। अन्तर्यागमें निरत व्यक्ति बहिर्याग करे अथवा न करे ॥ 57-61 ॥