सूतजी बोले- विष्णुजीके द्वारा किये गये अपने उत्कृष्ट सहस्रनामस्तवनको सुनकर शिवजी प्रसन्न हो गये। उस समय जगत्के स्वामी महेश्वरने विष्णुकी परीक्षाके लिये उन कमलोंमेंसे एक कमलको छिपा लिया ॥ 1-2 ॥
तब शिवपूजनमें उन सहस्रकमलोंमेंसे एक कमलके कम हो जानेपर भगवान् विष्णु व्याकुल हो उठे औरवे अपने मनमें विचार करने लगे कि एक कमल कहाँ चला गया! यदि वह चला गया तो जाने दो, क्या मेरा नेत्र कमलके समान नहीं है ? ॥ 3-4 ll
इस प्रकार विचारकर सत्त्वगुणका सहारा लेकर [पूर्ण धैर्य के साथ ] उन्होंने अपना एक नेत्र निकालकर भक्तिपूर्वक शिवजीका पूजन किया तथा उसी स्तोत्रसे उनकी स्तुति की ll 5 ॥
उसके बाद स्तुति करते हुए विष्णुको अपना | नेत्रकमल निकालते देखकर जगद्गुरु महादेव 'ऐसा मत करो मत करो' – इस प्रकार कहते हुए स्वयं प्रकट हो गये। इस प्रकार वे महेश्वर विष्णुके द्वारा प्रतिष्ठित किये गये अपने पार्थिव लिंगके मण्डलसे शीघ्र ही अवतरित हो गये ॥ 6-7 ॥
शास्त्रवर्णित रूप धारण किये तेजोराशिसे युक्त साक्षात् प्रकट हुए शिवको प्रणाम करके उनके सामने स्थित होकर वे विष्णु विशेषरूपसे स्तुति करने लगे। तब प्रसन्न हुए महादेवने अपने आगे हाथ जोड़कर खड़े विष्णुकी ओर कृपापूर्वक देखकर हँसते हुए कहा- ॥ 8-9 ॥
शंकर बोले- हे हरे! देवकार्यमें तत्पर मनवाले आपके मनोभिलषित इस सम्पूर्ण देवकार्यको मैंने भलीभाँति जान लिया ॥ 10 ॥
अतः मैं देवताओंकी कार्यसिद्धिके लिये तथा बिना परिश्रम दैत्योंके विनाशके लिये आपको यह | सुदर्शन नामक उत्तम चक्र देता हूँ ॥ 11 ॥
हे देवेश! आपने सम्पूर्ण लोकोंको सुख देनेवाले मेरे जिस रूपको देखा है, उसे मैंने आपके हितके लिये धारण किया है, ऐसा आप निश्चित रूपसे जानिये युद्धस्थलमें मेरे इस चक्रका, मेरे इस रूपका तथा सहस्रनामका स्मरण करनेपर देवताओंके दुःखका विनाश होगा; हे सुव्रत ! जो लोग मेरे इस सहस्रनामस्तोत्रको सदा भक्तिपूर्वक सुनते हैं, उन्हें मेरी कृपासे सम्पूर्ण कामनाओंकी अविनाशिनी सिद्धि प्राप्त होती है ॥ 12-14 ॥
सूतजी बोले- ऐसा कहकर शिवजीने करोड़ों सूर्योके समान प्रभावाला, अपने चरणोंसे उत्पन्न तथा शत्रुओंका नाश करनेवाला वह सुदर्शनचक्र विष्णुकोदे दिया। उस समय विष्णुने भी उत्तराभिमुख होकर अपनेको भलीभाँति संस्कार सम्पन्न करके उस चक्रको ग्रहण किया और पुनः महादेवको नमस्कारकर विष्णुने यह वचन कहा— ॥ 15-16 ॥
विष्णुजी बोले- हे देव! हे प्रभो! हे लोकोंका कल्याण करनेवाले! आप सुनें, मुझे दुःखोंके नाशके लिये किसका ध्यान और किसका पाठ करना चाहिये, मुझे यह बताइये ? ॥ 17 ॥
सूतजी बोले- उनके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर सन्तुष्ट हुए वे शिवजी प्रसन्नचित्त होकर देवताओंके सहायक विष्णुसे कहने लगे- ॥ 18 ॥ शिवजी बोले- हे हरे! सम्पूर्ण उपद्रवोंकी शान्तिके लिये आपको मेरे इस रूपका ध्यान करना चाहिये और अनेक दुःखोंके नाशके लिये इस सहस्रनामका पाठ करना चाहिये ॥ 19 ॥
हे विष्णो! आप समस्त अभीष्टोंकी सिद्धिके लिये सभी चक्रोंमें श्रेष्ठ मेरे इस चक्र सुदर्शनको प्रयत्नपूर्वक सर्वदा धारण कीजिये ॥ 20 ॥
अन्य जो लोग नित्य इस शिवसहस्रनामस्तोत्रका पाठ करेंगे अथवा इसका पाठ करायेंगे, उन्हें स्वप्नमें भी दुःख नहीं होगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 21 ॥ राजाओंके द्वारा संकट प्राप्त होनेपर यदि मनुष्य सांगोपांग विधिपूर्वक इस सहस्रनामकी सौ आवृत्ति करे, तो वह कल्याणको प्राप्त करता है ॥ 22 ॥
यह उत्तम सहस्रनामस्तोत्र रोगोंका नाश करनेवाला, विद्या तथा वित्त प्रदान करनेवाला, सम्पूर्ण अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला, सदा शिवभक्ति देनेवाला तथा पुण्यप्रद है। जो मनुष्य जिस श्रेष्ठ फलको उद्देश्य करके इसका पाठ करेंगे, वे उस फलको प्राप्त करेंगे, यह ध्रुव सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ।। 23-24 ॥
जो प्रातः काल उठकर नित्य मेरी पूजा करनेके उपरान्त मेरे सम्मुख इसका पाठ करता है, सिद्धि उससे दूर नहीं रहती । वह इस लोकमें समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त करता है और अन्तमें सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है । ll 25-26 ॥सूतजी बोले- इतना कहकर प्रसन्न चित्तवाले | कल्याणकारी शिवजीने अपने दोनों हाथोंसे विष्णुका स्पर्श करके पुनः उनसे कहा- ॥ 27 ॥ शिवजी बोले- हे सुरश्रेष्ठ! मैं वर देना चाहता हूँ। अतः आप यथेष्ट वरोंको माँगिये है सुव्रत ! आपने अपनी भक्तिसे तथा इस स्तोत्रसे मुझे निश्चित रूपसे वशमें कर लिया है ॥ 28 ॥
सूतजी बोले- देवाधिदेवके इस प्रकार कहने पर विष्णुने उनको नमस्कार करके अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़कर यह वचन कहा- ॥ 29 ॥
विष्णुजी बोले- हे नाथ! हे प्रभो! जिस प्रकार आपने मेरे ऊपर इस समय महती कृपा की है, कृपालु होनेके कारण इसी प्रकारकी कृपा विशेषरूपसे आगे भी करते रहें ॥ 30 ll
हे महादेव! आपमें सदा मेरी भक्ति बनी रहे, मैं यही उत्तम वरदान चाहता हूँ। हे प्रभो! आप मुझपर प्रसन्न रहें और कभी भी आपके भक्तोंको कोई दुःख न हो, मैं अन्य और कुछ नहीं चाहता हूँ ॥ 31 ॥
सूतजी बोले- उनका यह वचन सुनकर अत्यन्त | दयालु चन्द्रशेखर शिवजीने उन विष्णुके शरीरका स्पर्श किया और कहा- ॥ 32 ॥
शिवजी बोले- हे विष्णो आपकी अविनाशिनी भक्ति मुझमें सदा रहेगी और आप लोकमें देवताओंसे भी वन्दनीय एवं पूज्य रहेंगे। हे देवश्रेष्ठ मेरी कृपासे तुम्हारा नाम विश्वम्भर होगा, जो सभी पापोंको दूर करनेवाला होगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 33-34 ॥ सूतजी बोले- हे मुनीश्वरो ऐसा कहकर सभी देवताओंके स्वामी प्रभु रुद्र उन विष्णुके देखते देखते अन्तर्धान हो गये ॥ 35 ॥
भगवान् विष्णु भी शंकरके कथनानुसार उस उत्तम चक्रको प्राप्तकर अपने मनमें बहुत प्रसन्न हुए। ये शिवका ध्यान करके निरन्तर इस स्तोत्रका पाठ करते रहे तथा भक्तोंको पढ़ाते रहे और उसीका | उपदेश भी करते रहे ।। 36-37॥हे मुनिश्रेष्ठो ! आपलोगोंने जो पूछा था, उसे मैंने कह दिया, यह सुननेवालोंका पाप नष्ट करनेवाला है, | इसके बाद आपलोग और क्या पूछना चाहते हैं? ॥ 38 ॥