व्यासजी बोले- हे महामुने! रुद्रके द्वारा शुक्राचार्यके निगल लिये जानेपर महावीर उन अन्धकादि दैत्योंने क्या किया? आप उसे कहिये ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजीके द्वारा शुक्राचार्यके निगल लिये जानेपर दैत्य उसी प्रकार विजयकी आशासे रहित हो गये, जैसे सूँड़से रहित हाथी, सींगसे रहित वृषभ, सिरविहीन देहसमुदाय, अध्ययनसे हीन द्विज, उद्यमरहित सामर्थ्यशाली, भाग्यसे रहित उद्यम, पतिविहीन स्त्री, पंखसे रहित पक्षी, पुण्यरहित आयु, व्रतविहीन शास्त्रज्ञान, शूरतासे रहित क्षत्रिय, सत्यसे रहित धर्म और एकमात्र वैभवशक्तिके बिना समस्त क्रियाएँ अपने फलोंसे रहित हो जाती हैं ॥ 2-5 ॥
नन्दीके द्वारा शुक्राचार्यके हरण कर लिये जाने एवं शिवजीके द्वारा उन्हें निगल लिये जानेपर युद्धके लिये प्रयत्नशील होते हुए भी सभी दैत्य दुःखको प्राप्त हुए ॥ 6 ॥उन्हें उत्साहरहित देखकर महान् धैर्य तथा पराक्रमसे युक्त अन्धकने हुण्ड, हुण्ड आदि दैत्यों इस प्रकार कहा- ॥ 7 ॥
अन्धक बोला- अपने पराक्रमसे शुक्राचार्यको पकड़कर ले जाते हुए इस नन्दीने हमलोगोंको धोखा दिया है, उसने निश्चय ही हमलोगोंको बिना प्राणके कर दिया है। केवल एक शुक्राचार्यके हरण कर लिये जानेसे हमलोगोंका धैर्य, ओज, कीर्ति, बल, तेज और पराक्रम एक साथ ही नष्ट हो गया। हमलोगोंको धिक्कार है, जो कि हम कुलपूज्य, परम कुलीन, सर्वसमर्थ, रक्षक एवं गुरुकी इस आपत्तिमें रक्षा न कर सके ll 8-10 ॥
अतः तुम सब वीर गुरुके चरणकमलोंका स्मरण करके बिना विलम्ब किये ही उन वीर शत्रु प्रमथगणोंक साथ युद्ध करो ॥ 11 ॥
गुरु शुक्राचार्यके सुखद चरणकमलोंका स्मरणकर मैं नन्दीसहित सभी प्रमथोंको नष्ट कर दूँगा ॥ 12 ॥
आज मैं इन्द्रसहित देवताओंके साथ इन प्रमथगणोंको मारकर इन्हें विवशकर शुक्राचार्यको इस प्रकार छुड़ाऊँगा, जिस प्रकार योगी कर्मसे जीवको छुड़ा देता है ॥ 13 ॥
यद्यपि ऐसा भी सम्भव है कि हमलोगोंमेंसे शेषका पालन करनेवाले महायोगी प्रभु शुक्र स्वयं योगबलसे शिवजीके शरीरसे निकल जायें ॥ 14 ॥
सनत्कुमार बोले- अन्धककी यह बात सुनकर मेघके समान गर्जना करनेवाले निर्दय दैत्य मरनेका निश्चयक प्रमथगणोंसे कहने लगे ॥ 15 ॥
आयुके शेष रहनेपर प्रमथगण हमें बलपूर्वक जीत नहीं सकते, किंतु यदि आयु समाप्त हो गयी है, तो स्वामीको युद्धभूमिमें छोड़कर भागनेसे क्या लाभ है ? ॥ 16 ॥
अत्यन्त अहंकारी जो लोग अपने स्वामीको छोड़कर चले जाते हैं, वे निश्चय ही अन्धतामिस नरकमे गिरते हैं। युद्धभूमिसे भागनेवाले अपयशरूपी अन्धकारसे अपनी ख्यातिको अत्यधिक मलिन करके इस लोक एवं परलोकमें सुखी नहीं रहते हैं ।। 17-18 ॥पुनर्जन्यरूपी मलका नाश करनेवाले धरातीर्थ युद्धतीर्थमें यदि मनुष्य स्नान कर लेता है, तो दान, तप एवं तीर्थस्नानसे क्या लाभ? इस प्रकार उन वाक्योंपर विचारकर दैत्य तथा दानव रणभेरी बजाकर प्रमथगणोंको युद्धभूमिमें पीड़ित करने लगे। युद्धमें उन्होंने बाण, खड्ग वज्र, भयंकर शिलीमुख, भुशुण्डी, भिन्दिपाल, शक्ति, भाला, परशु खट्वांग पट्टिश, त्रिशूल, दण्ड एवं मुसलों परस्पर प्रहार करते हुए घोर संहार किया । 19-22॥ उस समय खींचे जाते हुए धनुष, छोड़े जाते हुए बानों, चलाये जाते हुए भिन्दिपालों एवं भुशुण्डियोंका शब्द हो रहा था। रणकी तुरहियोंके निनादों, हाथियोंकि चिंघाड़ों तथा घोड़ोंकी हिनहिनाहटोंसे सर्वत्र महान् कोलाहल मच गया ।। 23-24 ॥
भूमि तथा आकाशके मध्य गूँजे हुए शब्दोंसे साहसी तथा कायर सभीको बहुत रोमांच होने लगा। वहाँ हाथी, घोड़ोंकी घोर ध्वनिसे स्पष्ट शब्द हो रहे थे, जिनसे ध्वज एवं पताकाएँ टूट गयीं तथा शस्त्र नष्ट हो गये ।। 25-26 ॥
खूनकी धारासे रणस्थली अद्भुत हो गयी, हाथी, घोड़े एवं रथ नष्ट हो गये और युद्धकी पिपासा रखनेवाली दोनों ओरकी सेनाएँ मूर्च्छित हो गयीं ॥ 27 ॥ हे मुने। उसके बाद नन्दी आदि प्रमथगणोंने अपने बलसे सभी दैत्योंको मारा और विजय प्राप्त की ॥ 28 ॥ इस प्रकार प्रमथोंके द्वारा अपनी सेनाको विनष्ट होता हुआ देखकर स्वयं अन्धक रथपर आरूढ़ हो शिवगणोंपर झपट पड़ा ।। 29 ।।
अन्धकके द्वारा प्रयुक्त किये गये बाणों तथा अस्त्रोंसे प्रमथगण इस प्रकार नष्ट हो गये, जिस प्रकार वज्रप्रहारसे पर्वत एवं पवनसे जलरहित मेघ नष्ट हो जाते हैं ॥ 30 ॥
अन्धकने आने-जानेवाले, दूरस्थ एवं निकटस्थ एक-एक गणको देखकर असंख्य बाणोंसे उन्हें विद्ध कर दिया। तब बलवान् अन्धकके द्वारा नाशको प्राप्त होती हुई अपनी सेनाको देखकर स्वामीकार्तिकेय, गणेश, नन्दीश्वर, सोमनन्दी आदि एवं दूसरे भी शिवजीके वीर प्रमथ तथा महाबली गण उठे और क्रुद्ध हो युद्ध करने लगे ।। 31-33 ॥उस समय गणेश, स्कन्द, नन्दी, सोमनन्दी, नैगमेय एवं वैशाख आदि उग्र गणोंने त्रिशूल, शक्ति तथा बाणोंकी वर्षासे अन्धकको भी अन्धा कर दिया ।। 34-35 ॥
उस समय असुरों और प्रमाथगणोंकी सेनाओ कोलाहल होने लगा। उस महान् शब्दके द्वारा शिवजीके उदरमें स्थित हुए शुक्र अपने निकलनेवा रास्ता खोजते हुए शिवजीके उदरमें चारों ओर इस प्रकार घूमने लगे, जिस प्रकार आधाररहित पवन इधर-उधर भटकता है। उन्होंने शिवजीके देहमें सप्त पातालसहित सात लोकोंको एवं ब्रह्मा, नारायण, इन्द्र, आदित्य तथा अप्सराओंके विचित्र भुवन तथा प्रमथों एवं असुरोंके युद्धको देखा ॥ 36- 38 ॥
उन शुक्रने शिवजीके उदरमें चारों ओर सी वर्षपर्यन्त घूमते हुए भी कहीं कोई छिद्र वैसे ही नहीं प्राप्त किया, जैसे दुष्ट व्यक्ति पवित्र व्यक्तिमें कोई छिद्र नहीं देख पाता। तब शिवजीसे प्राप्त किये गये योगसे श्रेष्ठ मन्त्रका जप करके भृगुकुलोत्पन्न वे शुक्राचार्य शिवजीके उदरसे उनके लिंगमार्गसे शुक्र (वीर्य) रूपसे निकले और उन्होंने शिवजीको प्रणाम किया। इसके बाद पार्वतीने पुत्ररूपसे उन्हें ग्रहण किया और उन्हें विघ्नरहित कर दिया ॥ 39-41 ॥
तब लिंगसे वीर्यरूपमें निकले हुए शुक्रको देखकर दयासागर शिवजी हँसकर उनसे कहने लगे - ॥ 42 ॥
महेश्वर बोले- हे भृगुनन्दन। आप मेरे लिंगसे वीर्यरूपमें निकले हैं, इस कारण आपका नाम शुक्र हुआ और आप मेरे पुत्र हुए, अब जाइये ll 43 ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सूर्यके समान कान्तिमान् शुक्रने शिवको पुनः प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की ।। 44 ll
शुक्र बोले- आप अनन्त चरणवाले, अनन्त मूर्तिवाले, अनन्त सिरवाले, अन्त करनेवाले, कल्याण स्वरूप, अनन्त बाहुवाले तथा अनन्त स्वरूपवाले हैं, इस प्रकार सिर झुकाकर प्रणाम करनेयोग्य आपकी स्तुति में कैसे करूँ आप अष्टमूर्ति होते हुएभीअनन्तमूर्ति हैं, आप सभी देवताओं तथा असुरोंको | वांछित फल देनेवाले तथा अनिष्ट दृष्टिवालेका संहार करनेवाले हैं, इस प्रकार सर्वथा प्रणाम किये जानेयोग्य आपकी स्तुति मैं किस प्रकार करूँ ।। 45-46 ॥
सनत्कुमार 'बोले- -इस प्रकार शिवकी स्तुतिकर उन्हें पुनः नमस्कार करके शुक्रने शिवकी आज्ञासे दानवोंकी सेनामें इस प्रकार प्रवेश किया, जिस प्रकार मेघमालामें चन्द्रमा प्रवेश करता है ॥ 47 ॥
[हे व्यासजी!] इस प्रकार मैंने युद्धमें शिवजीके द्वारा शुक्रके निगल जानेका वर्णन किया, अब उस मन्त्रको सुनिये, जिसे शिवजीके उदरमें शुक्रने जपा था ॥ 48 ॥