सनत्कुमार बोले – [ हे व्यास!] मृत्युंजय नामक शिवजीसे जिस प्रकार शुक्राचार्य मुनिने मृत्युनाशिनी विद्या प्राप्त की, उसे आप सुनें। पूर्वकालमें भृगुपुत्र शुक्राचार्य वाराणसीपुरीमें जाकर विश्वेश्वर प्रभुका ध्यान करते हुए दीर्घकालतक तप करते रहे ।। 1-2 ॥
हे वेदव्यास! उन्होंने वहाँ परमात्मा शिवका लिंग स्थापित किया और उसके सामने एक मनोहर कूपका निर्माण करवाया। उन्होंने द्रोण परिमाणके पंचामृत से उन देवेशको एक लाख बार स्नान करवायाऔर इसी प्रकार नाना प्रकारके सुगन्धित द्रव्योंसे भी एक लाख बार स्नान करवाया। उन्होंने देवेशका चन्दन, यक्षकर्दम* और सुगन्धित उबटनसे हजारों बार प्रीतिपूर्वक अनुलेपन किया ॥ 3-5 ॥
उन्होंने राजचम्पक, धतूरा, कनेर, कमल, मालती, कर्णिकार, कदम्ब, बकुल, उत्पल, मल्लिका, शतपत्री, सिन्धुवार, किंशुक, बन्धूकपुष्प, पुन्नाग, केशर, नागकेशर, नवमल्ली, चिबिलिक, कुन्द, मुचुकुन्द, मन्दार, बेलपत्र, द्रोण, मरुबक, वृक, ग्रन्थिपर्ण, दमनक, सुरम्य आम्रपत्र, तुलसी, देवगन्धारी, बृहत्पत्री, कुशांकुर, नन्द्यावर्त, अगस्त्य, साल, देवदारु, कचनार, कुरबक, दूर्वांकुर, कुरुण्टक - इन प्रत्येक पुष्पोंसे तथा अनेक प्रकारके दूसरे मनोहर पल्लवों, पत्तों तथा कमलोंसे सावधानचित्त
हो प्रीतिपूर्वक शिवजीका पूजन किया ॥ 6-11 ॥ तदनन्तर उन्होंने गीत, नृत्य, उपहार, बहुत-सी स्तुतियों, शिवसहस्रनामस्तोत्र तथा अन्य स्तुतियोंसे शिवजीको प्रसन्न किया। इस प्रकार शुक्राचार्य पाँच हजार वर्षपर्यन्त नाना प्रकारकी अर्चनविधिसे महेश्वर शिवकी पूजा करते रहे ।। 12-13 ।।
जब उन्होंने शिवजीको वरदानके लिये थोड़ा भी उन्मुख न देखा, तब अत्यन्त कठिन दूसरा नियम धारण किया। भावनारूपी जलसे इन्द्रियोंसहित चित्तके चांचल्यरूपी महान दोषको धोकर उस चित्तरूप महारत्नको निर्मल करके शिवजीके लिये अर्पण करके शुक्राचार्य हजारों वर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूमराशिका पान करने लगे ll 14–16 ॥
इस प्रकार दृढ़ मनवाला होकर घोर तप करते हुए उनको देखकर शिवजी शुक्राचार्यपर अत्यन्त प्रसन्न हो गये और हजारों सूर्योंसे भी अधिक तेजवाले दाक्षायणीपति विरूपाक्ष शिवजी उस लिंगसे प्रकट होकर कहने लगे- ॥ 17-18 ॥
महेश्वर बोले- हे तपोनिधे! हे महाभाग ! हे महामुने! हे भृगुपुत्र! मैं आपके इस तपसे विशेषरूपसे प्रसन्न हूँ। हे भार्गव ! आप अपना मनोभिलषितसमस्त वर माँगिये, मैं प्रसन्न होकर आपकी सभी कामनाएँ पूर्ण करूंगा। आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है ॥ 19-20 ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजीके इस अत्यन्त सुख देनेवाले श्रेष्ठ वचनको सुनकर शुक्राचार्य हर्षित हो गये और आनन्दसमुद्र निमग्न हो गये॥ 21 ॥
कमलके समान नेत्रवाले तथा हर्षातिरेकसे रोमांचित विग्रहवाले शुक्राचार्यने प्रसन्नतापूर्वक शिवजीको प्रणाम किया और प्रफुल्लित नेत्रोंवाला होकर सिरपर अंजलि लगाकर जय-जयकार करते हुए बड़ी प्रसन्नतासे वे अष्टमूर्ति* शिवजीकी स्तुति करने लगे- ॥ 22-23 ॥
भार्गव बोले- हे जगदीश्वर ! आप अपने तेजसे समस्त अन्धकारको दूरकर रातमें विचरण करनेवाले राक्षसोंके मनोरथोंको नष्ट कर देते हैं। हे दिनमणे! आप त्रिलोकीका हित करनेके लिये आकाशमें सूर्यरूपसे प्रकाशित हो रहे हैं; ऐसे आपको नमस्कार है 24 ॥ हे हिमांशो! आप पृथ्वी तथा आकाशमें समस्त प्राणियोंके नेत्र बनकर चन्द्ररूपसे विराजमान हैं और लोकमें व्याप्त अन्धकारका नाश करनेवाले एवं अमृतकी किरणोंसे युक्त हैं। हे अमृतमय! आपको नमस्कार है ।। 25 ।।
हे भुवनजीवन! आप पावनपथ-योगमार्गका आश्रय लेनेवालोंकी सदा गति तथा उपास्यदेव हैं। इस जगत् में आपके बिना कौन जीवित रह सकता है। आप वायुरूपसे समस्त प्राणियोंका वर्धन करनेवाले और सर्पकुलोंको सन्तुष्ट करनेवाले हैं। हे सर्वव्यापिन् ! आपको नमस्कार है ॥ 26 ॥
हे विश्वके एकमात्र पावनकर्ता ! हे शरणागतरक्षक! यदि आपकी एकमात्र पावक (पवित्र करनेवाली एवं दाहिका) शक्ति न रहे, तो मरनेवालोंको मोक्ष प्रदान कौन करे? हे जगदन्तरात्मन्! आप ही समस्त प्राणियोंके भीतर वैश्वानर नामक पावक (अग्निरूप) हैं और उन्हें पग-पगपर शान्ति प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ 27 ॥हे जलरूप! हे परमेश! हे जगत्पवित्र ! आप निश्चय ही विचित्र उत्तम चरित्र करनेवाले हैं। हे विश्वनाथ! आपका यह अमल पानीय रूप अवगाहनमात्रसे विश्वको पवित्र करनेवाला है, अत: आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 28 ॥
हे आकाशरूप! हे ईश्वर ! यह संसार बाहर एवं भीतरसे अवकाश देनेके ही कारण विकसित है, है दयामय! आपसे ही यह संसार स्वभावतः सदा श्वास लेता है और आपसे ही यह संकोचको प्राप्त होता है, अतः आपको प्रणाम करता हूँ ॥ 29 ॥
हे विश्वम्भरात्मक [पृथ्वीरूप]! हे विभो ! आप ही इस जगत्का भरण-पोषण करते हैं। हे विश्वनाथ! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन अन्धकारका विनाशक है। हे अहिभूषण मेरे अज्ञानरूपी अन्धकारको आप दूर करें, आप स्तवनीय पुरुषोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, अतः आप परात्परको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 30 ॥
हे आत्मस्वरूप ! हे हर! आपकी इन रूप परम्पराओंसे यह सारा चराचर जगत् विस्तारको प्राप्त हुआ है। सबकी अन्तरात्मामें निवास करनेवाले हे प्रतिरूप हे अष्टमूर्ते मैं भी आपका जन हूँ, मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ ॥ 31 ॥
हे दीनबन्धो हे विश्वजनीनमूर्ते हे प्रणत प्रणीत (शरणागतोंके रक्षक)! हे सर्वार्थसार्थपरमार्थ ! आप इन अष्टमूर्तियोंसे युक्त हैं और यह विस्तृत जगत् आपसे व्याप्त है, अतः मैं आपको प्रणाम करता ॥ 32 ॥
सनत्कुमार बोले- भार्गवने इस इस प्रकार अष्टमूर्ति-स्तुतिके आठ श्लोकोंसे शिवजीकी स्तुतिकर भूमिमें सिर झुकाकर उनको बार-बार प्रणाम किया ॥ 33 ॥
अत्यन्त तेजस्वी भार्गवसे इस प्रकार स्तुत महादेवजी प्रणाम करते हुए उन ब्राह्मणको अपनी भुजाओंसे पकड़कर तथा पृथ्वीसे उठाकर अपने दाँतोंकी कान्तिसे दिगन्तरको प्रकाशित करते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने लगे - ।। 34-35 ।।महादेवजी बोले- हे विप्रवर्ष हे कवे! हे तात! आप मेरे पवित्र भक्त हैं, आपके द्वारा की गयी उग्र तपस्या, लिंगप्रतिष्ठाजन्य पुण्य, लिंगाराधन, अपने पवित्र एवं निश्चल चित्तके समर्पण तथा अविमुक्त जैसे महाक्षेत्रमें किये गये पवित्राचरणसे मैं आपको दयापूर्वक देखता हूँ, आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है । ll 36-38 ।।
आप इसी शरीरसे मेरी उदररूपी गुफामें प्रविष्ट हो पुनः लिंगेन्द्रिय मार्गसे निकलकर पुत्रभावको प्राप्त होंगे ॥ 39 ॥ अब मैं अपने पार्षदोंके लिये भी दुर्लभ वर आपको प्रदान करता हूँ, जिसे मैंने ब्रह्मा तथा विष्णुसे भी गुप्त रखा है ॥ 40 ॥ मृतसंजीवनी नामक जो मेरी निर्मल विद्या है, उसका निर्माण मैंने स्वयं अपने महान् तपोबलसे किया है ।। 41 ।।
हे महाशुचे! उस मन्त्ररूपा विद्याको मैं आपको प्रदान करता हूँ। हे शुचितपोनिधे! आपमें उस विद्याकी प्राप्तिकी योग्यता है आप जिस किसीको उद्देश्य करके विद्येश्वर भगवान् शिवकी इस श्रेष्ठ विद्याका आवर्तन करेंगे, वह अवश्य ही जीवित हो जायगा, यह सत्य है ॥ 42-43 ।।
आपका देदीप्यमान तेज आकाशमण्डलमें सूर्य तथा अग्निसे बढ़कर होगा, आप प्रकाशमान होंगे और श्रेष्ठ ग्रह होंगे। जो स्त्री या पुरुष आपके सम्मुख यात्रा करेगा, आपकी दृष्टि पड़नेमात्रसे उनका सारा कार्य नष्ट हो जायगा और हे सुव्रत ! मनुष्योंके समस्त विवाह आदि धर्मकार्य आपके उदयकालमें ही फलप्रद होंगे ।। 44-46 ।।
सम्पूर्ण नन्दा तिथियाँ (प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी) आपके संयोगसे शुभ होंगी। आपके भक्त अत्यन्त पराक्रमी तथा अधिक सन्तानोंसे युक्त होंगे ॥ 47 ॥
आपके द्वारा स्थापित किये गये इस लिंगका नाम शुक्रेश्वर होगा। जो मनुष्य इसकी अर्चना करेंगे, उनकी कार्यसिद्धि होगी ।। 48 llवर्षभर प्रतिदिन नक्तव्रतपरायण जो लोग प्रति शुक्रवारको शुक्रकूपमें स्नान एवं तर्पणकर इन शुक्रेश शिवकी पूजा करेंगे, उसका फल सुनिये उनका वीर्य कभी निष्फल नहीं जायगा, वे पुत्रवान् एवं अति वीर्यवान् होंगे। वे सभी लोग पुरुषत्व एवं सौभाग्यसे सम्पन्न, विद्यायुक्त तथा सुखी होंगे, इसमें संशय नहीं है ॥ 49–51॥
इस प्रकार वर देकर शिवजी उसी लिंगमें लीन हो गये और शुक्राचार्य भी प्रसन्नचित्त होकर अपने स्थानको चले गये। हे व्यासजी ! शुक्रने जिस प्रकार अपने तपोबलसे मृत्युंजय नामकी विद्या प्राप्त की, उसे मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 52-53॥