व्यासजी बोले- उस भयानक तथा रोमांच उत्पन्न कर देनेवाले महायुद्धमें भगवान् सदाशिवने विद्वान् दैत्याचार्य शुक्रको निगल लिया-यह बात मैंने संक्षेपमें सुनी, अब आप उसे विस्तारके साथ कहिये कि शिवजीके उदरमें स्थित महायोगी शुक्राचार्यने क्या किया, शिवजीकी प्रलयकालीन अग्निके समान जठराग्निने उन शुक्रको जलाया क्यों नहीं? कालरूप बुद्धिमान् तथा तेजस्वी शुक्राचार्य किस प्रकार शिवजीके जठरपंजरसे बाहर निकले, उन शुक्रने किसलिये तथा कितने समयतक आराधना की, उन्होंने मृत्युका शमन करनेवाली उस परा विद्याको कैसे प्राप्त किया और हे तात! वह कौनसी विद्या है, जिससे मृत्युका निवारण हो जाता है, देवाधिदेव, लीलाविहारी भगवान् शंकरके त्रिशूलसे छुटकारा पाये हुए अन्धकने किस प्रकार गाणपत्यपद प्राप्त किया? हे परम बुद्धिमान् तात ! कृपा कीजिये और शिवलीलामृतका पान करनेवाले मुझको यह सब विशेष रूपसे बताइये ॥ 1-7॥
ब्रह्माजी बोले- हे तात! अमिततेजस्वी व्यासजीके इस वचनको सुनकर शिवजीके चरणकमलका स्मरण करके सनत्कुमारजी कहने लगे ॥8॥सनत्कुमार बोले- हे महाबुद्धिमान् व्यास ! आप मुझसे शिवलीलामृतका श्रवण कीजिये, आप धन्य हैं, शिवजीके परम भक्त हैं और विशेषकर मुझे तो बहुत आनन्द देनेवाले हैं। जिस समय अत्यन्त दुर्भेद्य वज्रव्यूहके अधिपति भगवान् शंकर एवं गिरिव्यूहके अधिपति अन्धकमें घनघोर युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय सर्वप्रथम बलशाली दैत्योंकी विजय हुई और हे मुने। उसके बाद शिवजी के प्रभावसे प्रमथगणोंकी विजय हुई ।। 9-11 ॥
यह सुनकर महान् दैत्य अन्धकासुर अत्यन्त दुःखित हुआ और वह विचार करने लगा कि मेरी विजय किस प्रकार होगी। इसके बाद परम बुद्धिमान् महावीर यह अन्धक संग्राम छोड़कर शीघ्र ही अकेले शुक्राचार्यके पास गया। परम नीतिज्ञ वह अन्धक रथसे उतरकर अपने गुरु शुक्राचार्यको प्रणाम करके हाथ जोड़कर विचार करके यह कहने लगा- ॥ 12-14 ॥
अन्धक बोला- हे भगवन्! हमलोग आपका आश्रय लेकर आपको गुरु मानते हैं, सर्वदा विजय पानेवाले हमलोग आज पराजित हो रहे हैं ॥ 15 ॥
[हे देव!] आपके प्रभावसे हमलोग सदैव शंकर, विष्णु आदि देवताओंको तथा उनके अनुचरोंको क्षुद्र तृणके समान समझते हैं और आपके अनुग्रहसे सभी देवता हमसे उसी प्रकार डरते रहते हैं, जैसे सिंहाँसे हाथी और गरुडोंसे सर्प डरते रहते हैं ।। 16-17 ।।
आपके अनुग्रहसे प्रमथोंकी सम्पूर्ण सेनाको ध्वस्तकर दैत्यों तथा दानवोंने दुर्भेद्य वज्रव्यूहमें प्रवेश किया ॥ 18 ॥
हे भार्गव हमलोग आपकी शरणमें रहकर पृथ्वीके समान सदा अविचल होकर युद्धस्थलमें निःशंक विचरण करते हैं। हे विप्र! वीर शत्रुओंसे पीड़ित होकर भागकर शरणमें आये हुए असुरोंकी तथा मृत दैत्योंकी भी आप रक्षा करें। मृत्युको पराजित करनेवाले महापराक्रमी प्रमथगणोंसे मार खाकर युद्धमें गिरे हुए उन हुण्ड आदि मेरे गणोंको देखिये ॥ 19-21 ॥आपने पूर्वकालमें सहस्रों वर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य धूमका पानकर जिस संजीवनी विद्याको प्राप्त किया है, अब उसके उपयोगका समय आ गया है। है भार्गव ! इस समय आप कृपाकर सभी असुरोंको जीवित कर दें, जिससे सभी प्रमथ आपकी इस विद्याके प्रभावको देखें ।। 22-23 ।।
सनत्कुमार बोले—इस प्रकार अन्धकके वचनको सुनकर परम धीर ये शुक्राचार्य दुखी मनसे विचार करने लगे। मुझे इस समय क्या करना चाहिये, मेरा कल्याण कैसे हो, इन मरे हुओंको जिलानेके लिये संजीवनीविद्याका प्रयोग मेरे लिये सर्वथा अनुचित है। वह विद्या मुझे शंकरजीद्वारा प्राप्त हुई है, अतः इसका उपयोग शिवजीके अनुचर वीर प्रमथोंके द्वारा रणमें मारे गये दैत्योंको जीवित करनेके लिये कैसे करूँ। किंतु शरण में आये हुएकी रक्षा करना सर्वोपरि धर्म है, तब हृदय तथा बुद्धिसे विचारकर शुक्राचार्यने उसकी बात अंगीकार कर ली ।। 24-27॥
इसके बाद शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके कुछ-कुछ हँसकर स्वस्थचित्त हो शुक्राचार्यने दैत्यराजसे कहा- ॥ 28 ॥
शुक्र बोले- हे तात! आपने जो कहा, सब सत्य ही है, मैंने सचमुच इस विद्याकी प्राप्ति दानवोंके लिये ही की है। मैंने सहस्रवर्षपर्यन्त तुषाग्निजन्य भूमको पीकर शिवजीसे इस विद्याको प्राप्त किया था, जो बन्धुगणोंको सर्वदा सुख देनेवाली है। मैं इस विद्याके प्रभावसे संग्राममें देवताओंद्वारा मारे गये इन दैत्योंको उसी प्रकार उठा दूँगा, जिस प्रकार मुरझायी हुई फसलोंको मेघ जीवित कर देता है। आप अभी इसी क्षण देखेंगे कि ये दैत्य व्रणरहित एवं स्वस्थ होकर सोकर उठे हुएके समान पुनः जीवित हो गये हैं । ll 29-32 ॥
सनत्कुमार बोले – अन्धकसे इस प्रकार कहकर शुक्राचार्यने बड़े आदरके साथ शिवजीका स्मरणकर एक एक दैत्यको उद्देश्य करके संजीवनीविद्याका प्रयोग किया। उस विद्याके प्रयोगमात्रसे वे समस्त दैत्य एवं दानव | सोकर जगे हुएके समान शस्त्र धारण किये हुए एक साथ उसी प्रकार उठ गये, जिस प्रकार निरन्तर अभ्यस्त वेद, जैसे समयपर मेघ एवं आपत्तिकालमें श्रद्धासे ब्राह्मणोंको दिया गया दान फलदायी हो जाता है ॥ 33-35 ॥तब हुण्ड आदि असुरोंको पुनः जीवित देखकर सभी दैत्य जलपूर्ण बादलके समान गर्जन करने लगे ॥ 36 ॥
तत्पश्चात् विकट ध्वनि करके गरजते हुए महान् बल तथा पराक्रमवाले वे दैत्य निर्भीक होकर प्रमथगणोंके साथ पुनः युद्ध करनेके लिये तैयार हो गये। युद्धमें अभिमानी नन्दी आदि सभी प्रमथगण शुक्राचार्यके द्वारा जीवित किये गये उन दैत्यों तथा दानवोंको देखकर अत्यन्त विस्मित हो उठे। इस | सम्पूर्ण कर्मको देखकर 'शंकरजीसे निवेदन करना चाहिये' – इस प्रकार विचारकर वे बुद्धिमान् गण परस्पर कहने लगे ॥ 37-39 ॥
प्रमधेश्वरोंके उस आश्चर्यकर युद्धयज्ञमें शुक्राचार्यके इस प्रकारके कार्यको देखकर शिलादपुत्र नन्दीश्वर अमर्षयुक्त हो शिवके समीप गये और 'जय हो, जय हो'- इस प्रकार कहकर जय देनेवाले एवं कनकके समान निष्कलंक शिवजीसे बोले- हे देव! बुद्धस्थलमें इन्द्रसहित देवों एवं गणेश्वरोंने जो अत्यन्त कठिन कार्य किया है, है ईश! हमारे उन सभी कार्योंको शुक्राचार्यने व्यर्थ कर दिया, एक एक राक्षसको उद्देश्य करके मृतसंजीवनी विद्याका प्रयोगकर युद्धमें मरे हुए उन सारे विपक्षियोंको उन्होंने बिना श्रमके जीवित कर दिया ।। 40-42 ॥
इस समय यमपुरीसे लौटे हुए तुहुण्ड, हुण्ड, कुम्भ, जम्भ, विपाक, पाक आदि महादैत्य [ युद्धस्थलमें] प्रमथगणोंका विनाश करते हुए विचरण कर रहे हैं ॥ 43 ॥
हे महेश यदि मारे गये श्रेष्ठ दैत्योंको शुक्राचार्य इसी प्रकार जीवित करते रहे, तो हम गणेश्वरोंकी विजय किस प्रकार सम्भव है और हमें शान्ति कहाँ ? ।। 44 ll
सनत्कुमार बोले- प्रमथेश्वर नन्दीके इस प्रकार कहनेपर प्रमथेश्वरोंके ईश्वर महादेव हँसते हुए सभी गणेश्वरोंमें श्रेष्ठ नन्दीसे कहने लगे ॥ 45 ॥शिवजी बोले – हे नन्दी ! तुम इसी क्षण शीघ्रतासे जाओ और दैत्योंके मध्यसे शुक्राचार्यको | इस प्रकार पकड़कर शीघ्र ले आओ, जिस प्रकार बाज लवा पक्षीके बच्चेको पकड़ लेता है ॥ 46 ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर नन्दी सिंहके समान गर्जना करते हुए दैत्योंकी सेनाको चीरते हुए उस स्थानपर पहुँच गये, जहाँ भार्गववंशके दीपक शुक्राचार्य थे। बड़े-बड़े दैत्य पाश, खड्ग, वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि शस्त्र हाथमें लेकर उनकी रक्षा कर रहे थे। बलवान् नन्दीश्वरने दैत्योंको विक्षुब्ध करके शुक्राचार्यको इस प्रकार पकड़ लिया, जिस प्रकार शरभ हाथीको पकड़ लेता है ।। 47-48 ।।
तब ढीले वस्त्रवाले, बिखरे केशवाले एवं गिरते हुए आभूषणोंवाले शुक्राचार्यको छुड़ानेके लिये अनेक राक्षस सिंहनाद करते हुए उनके पीछे दौड़े ॥ 49 ॥
दैत्येन्द्र नन्दीश्वरपर मेघके समान वज्र, शूल, तलवार, परशु, तीक्ष्ण चक्र, पाषाण एवं कम्पन आदि नाना प्रकारके शस्त्रोंकी घोर वर्षा करने लगे ॥ 50 ॥
गणाधिराज नन्दीश्वर उन सभी शस्त्रोंको अपने मुखकी अग्निसे भस्म करके उस महाभयानक युद्धस्थलमें शत्रुपक्षको पीड़ित करके शुक्राचार्यको लेकर शिवजीके पास चले आये और शिवजीसे यह कहने लगे-हे भगवन्! यह वही शुक्र है। तब है । देवदेव शिवजीने देवगणोंके लिये अग्निके द्वारा दी गयी आहुतिके समान शुक्राचार्यको ग्रहण कर लिया।प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले उन सदाशिवने बिना कुछ बोले उन शुक्राचार्यको फलके समान अपने मुखमें रख लिया, जिससे वे समस्त असुर ऊँचे स्वरमें महान् हाहाकार करने लगे ॥ 51-53 ॥