[शुक्राचार्यने भगवान् शिवके उदरमें जिस मन्त्रका जप किया था, उस मन्त्रका भावार्थ इस प्रकार है-]
सनत्कुमार बोले- [हे महर्षे] ॐ जो देवताओंके स्वामी, सुर-असुरद्वारा वन्दित, भूत और भविष्यके महान् देवता, हरे और पीले नेत्रोंसे युक्त, महाबली, बुद्धिस्वरूप, बाघम्बर धारण करनेवाले, अग्निस्वरूप, त्रिलोकीके उत्पत्तिस्थान, ईश्वर, हर, हरिनेत्र, प्रलयकारी, अग्निस्वरूप, गणेश, लोकपाल, महाभुज, महाहस्त, त्रिशूल धारण करनेवाले, बड़ी बड़ी दाढ़ोंवाले, कालस्वरूप, महेश्वर, अविनाशी, कालरूपी, नीलकण्ठ, महोदर, गणाध्यक्ष, सर्वात्मा, सबको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापी, मृत्युको हटानेवाले, पारियात्र पर्वतपर उत्तम व्रत धारण करनेवाले, ब्रह्मचारी, वेदान्तप्रतिपाद्य तपकी अन्तिम सीमा तक पहुँचनेवाले, पशुपति, विशिष्ट अंगोंवाले, शूलपाणि, वृषध्वज, पापापहारी, जटाधारी, शिखण्ड धारण करनेवाले,दण्डधारी, महायशस्वी, भूतेश्वर, गुहामें निवास करनेवाले, वीणा और पणवपर ताल लगानेवाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्य- सरीखे रूपवाले, श्मशानवासी, ऐश्वर्यशाली, | उमापति, शत्रुदमन, भगके नेत्रोंको नष्ट कर देनेवाले, पूषाके दाँतोंके विनाशक, क्रूरतापूर्वक संहार करनेवाले, पाशधारी, प्रलयकालरूप, उल्कामुख, अग्निकेतु, मननशील, प्रकाशमान, प्रजापति, ऊपर उठानेवाले, जीवोंको उत्पन्न करनेवाले, तुरीयतत्त्वरूप, लोकों में सर्वश्रेष्ठ, वामदेव, वाणीकी चतुरतारूप, वाममार्गमें भिक्षुरूप, भिक्षुक, जटाधारी, जटिल-दुराराध्य, इन्द्रके हाथको स्तम्भित करनेवाले, वसुओंको विजडित कर देनेवाले, यज्ञस्वरूप, यज्ञकर्ता, काल, मेधावी, मधुकर, चलने-फिरनेवाले, वनस्पतिका आश्रय लेनेवाले, वाजसन नामसे सम्पूर्ण आश्रमोंद्वारा पूजित, जगद्धाता, जगत्कर्ता, सर्वान्तर्यामी, सनातन, ध्रुव, धर्माध्यक्ष, भूः भुवः स्वः इन तीनों लोकोंमें विचरनेवाले, भूतभावन, त्रिनेत्र, बहुरूप, दस हजार सूर्योंके समान प्रभाशाली, महादेव, सब तरहके बाजे बजानेवाले, सम्पूर्ण बाधाओंसे विमुक्त करनेवाले, बन्धनस्वरूप, सबको धारण करनेवाले, उत्तम धर्मरूप, पुष्पदन्त, विभागरहित, मुख्यरूप, सबका हरण करनेवाले, सुवर्णके समान दीप्त कीर्तिवाले, मुक्तिके द्वारस्वरूप, भीम तथा भीमपराक्रमी हैं, उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है। -इस श्रेष्ठ मन्त्रका जप करके शिवजीके जठरपंजरसे उनके लिंगमार्गसे उत्कट वीर्यकी भाँति शुक्राचार्य बाहर आये ॥ 1 ॥ पार्वतीने उन्हें पुत्ररूपमें ग्रहण किया और विश्वेश्वरने उन्हें अजर-अमर एवं ऐश्वर्यमय बनाकर दूसरे शिवके समान कर दिया ॥ 2 ॥
इस प्रकार तीन हजार वर्ष बीत जानेपर वेदनिधि मुनि शुक्र महेश्वरसे पुनः पृथ्वीपर उत्पन्न हुए ॥ 3 ॥ तब उन्होंने शिवके त्रिशूलपर अत्यन्त शुष्क शरीरवाले, महाधैर्यवान् और तपस्वी दानवराज अन्धकको शिवजीका ध्यान करते हुए देखा ॥ 4 ॥
[ वह शिवजीके 108 नामोंका इस प्रकार स्मरण कर रहा था ], महादेव, विरूपाक्ष, चन्द्रार्धकृतशेखर अमृत, शाश्वत, स्थाणु, नीलकण्ठ, पिनाकी, वृषभाक्ष, | महाज्ञेय, पुरुष, सर्वकामद, कामारि, कामदहन, कामरूप,कपर्दी, विरूप, गिरिश, भीम, स्रग्वी, रक्तवासा, योगी, कालदहन, त्रिपुरघ्न, कपाली, गूढव्रत, गुप्तमन्त्र, गम्भीर, भावगोचर, अणिमादि गुणाधार, त्रिलोकैश्वर्यदायक, वीर, वीरहण, घोर, विरूप, मांसल, पटु, महामांसाद, उन्मत्त, भैरव, महेश्वर, त्रैलोक्यद्रावण, लुब्ध, लुब्धक, यज्ञसूदन, कृत्तिकासुतयुक्त, उन्मत्त, कृत्तिवासा, गजकृत्तिपरीधान, क्षुब्ध, भुजगभूषण, दत्तालम्ब, वेताल, घोर, शाकिनीपूजित, अघोर, घोर दैत्यघ्न, घोरघोष, वनस्पति, भस्मांग, जटिल, शुद्ध, भेरुण्डशतसेवित, भूतेश्वर, भूतनाथ, पंचभूताश्रित, खग, क्रोधित, निष्ठुर, चण्ड, चण्डीश, चण्डिकाप्रिय, चण्ड, तुंग, गरुत्मान्, नित्य आसवभोजन, लेलिहान, महारौद्र, मृत्यु, मृत्योरगोचर, मृत्योर्मृत्यु, महासेन, श्मशानारण्यवासी, राग, विराग, रागान्ध, वीतरागशतार्चित, सत्त्व, रज, तम, धर्म, अधर्म, वासवानुज, सत्य, असत्य, सद्रूप, असद्रूप, अहेतुक, अर्धनारीश्वर, भानु, भानुकोटि शतप्रभ, यज्ञ, यज्ञपति, रुद्र, ईशान, वरद और शिव इस प्रकार परमात्मा शिवजीकी इन एक सौ आठ मूर्तियोंका ध्यान करता हुआ वह दैत्य उस महाभयसे मुक्त हो गया ॥ 5- 18 ॥
प्रसन्न हुए शिवजीने दिव्य अमृतकी वर्षासे उसका अभिषेक किया और उस त्रिशूलके अग्रभागसे उसे उतारा और महात्मा शिवजीने वह सब कृत्य उस महादैत्य अन्धकसे शान्तिपूर्वक कहा, जिसे उन्होंने पहले किया था । ll 19-20 ॥
ईश्वर बोले- हे दैत्येन्द्र ! हे सुव्रत! मैं तुम्हारे यम, नियम, शौर्य एवं धैर्यसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुम वर माँगो हे श्रेष्ठ महादैत्येन्द्र तुमने निष्पाप होकर नित्य मेरी आराधना की है, तुम वरके योग्य हो, इसलिये मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। इस प्रकार तीन सहस्र वर्षपर्यन्त प्राणधारण करनेका तुम्हारा जो पुण्यफल है, उससे तुम्हारी मुक्ति हो जाय ॥ 21-23 ॥सनत्कुमार बोले- यह सुनकर अन्धकने पृथ्वीपर दोनों घुटनोंको टेककर काँपते हुए हाथ जोड़कर उमापति शिवजी से कहा- ॥ 24 ॥
अन्धक बोला-हे भगवन्! मैंने इससे पूर्वमें आप परात्पर परमात्माको युद्धक्षेत्रमें प्रसन्न गद्गद बाणीसे दीन, होन इत्यादि जो कहा है एवं हे शम्भो मूर्ख होनेके कारण अज्ञानवश इस लोकमें जो-जो निन्दित कर्म किया है, उसे आप अपने मनमें न रखें ।। 25-26 ।।
हे महादेव मैंने कामविकारसे पार्वतीके प्रति अपराध किया है, उसे क्षमा करें; क्योंकि मैं अत्यन्त कृपण एवं दुखी हैं॥ 27 ॥
हे प्रभो अत्यन्त दुखित, कृपण, दीन एवं भक्तिसे युक्त जनपर आपको विशेष रूपसे दया करनी चाहिये ॥ 28 ॥
मैं दीन आपकी शरणमें आया हूँ, अतः मेरी रक्षा कीजिये। मैंने हाथ जोड़ रखे हैं ॥ 29 ॥ मुझपर सन्तुष्ट होनेवाली जगज्जननी ये देवी समस्त क्रोध त्यागकर मेरे ऊपर प्रसन्न होकर मुझे देखें ॥ 30 ॥ हे चन्द्रशेखर ! हे अर्धेन्दुचूड! हे शम्भो ! हे महेश्वर कहाँ तो इन महादेवीका क्रोध और कहाँ मैं दयाका पात्र दैत्य, फिर भी आप मेरा अपराध क्षमा करते रहें ॥ 31 ॥
कहाँ आप जैसे परमोदार और कहाँ काम, क्रोधादि दोषों एवं मृत्यु तथा वृद्धावस्थाके वशीभूत रहनेवाला मैं [हे प्रभो!] आपका यह युद्धकुशल तथा महाबली पुत्र वीरक मुझ दयापात्रको देखकर अब क्रोध न करे ॥ 32-33 ।।
तुषार, हार, चन्द्र, शंख तथा कुन्दके समान स्वच्छ वर्णवाले हे प्रभो में इन माता पार्वतीको अत्यन्त आदरसे नित्य देखा करूँ अब मैं आप दोनोंका सदा भक्त होकर तथा देवताओंके साथ वैररहित होकर शान्तचित्त और योगपरायण हो इन गणोंके साथ निवास करूँ ॥ 34-35 ॥
हे महेशान! आपकी कृपासे मैं दानवकुलमें उत्पन्न होनेके कारण किये गये विपरीत कर्मोंका स्मरण कभी न करूँ, आप मुझे यह उत्तम वर दीजिये ॥ 36 ॥
सनत्कुमार बोले- इतनाकहकर उस दैत्येन्द्रने माता पार्वतीकी ओर देखकर भगवान् शिवका ध्यान करते हुए मौन धारण कर लिया। तदनन्तर शिवजीने प्रसन्नतापूर्ण दृष्टिसे उसे देखा, तब उसे अपने पूर्ववृत्तान्त तथा अद्भुत जन्मका स्मरण हो आया ।। 37-38 ॥
इस प्रकार उस पूर्ववृत्तान्तका स्मरण होनेपर वह पूर्णमनोरथवाला हो गया और माता-पिताको प्रणामकर कृतकृत्य हो गया। इसके बाद बुद्धिमान् शिवजी तथा पार्वतीने उसका मस्तक सूँघा और उसने प्रसन्न हुए सदाशिवसे अभिलषित वर प्राप्त किया। [हे वेदव्यासजी!] इस प्रकार मैंने अन्धकका सारा पुरातन वृत्तान्त और शंकरजीकी कृपासे उसे सुख देनेवाले गाणपत्य पदकी प्राप्तिका वर्णन किया और सभी कामनाओंका फल देनेवाले तथा मृत्युका विनाश करनेवाले मृत्युंजय मन्त्रको भी मैंने कहा, इसको यत्नपूर्वक पढ़ना (जपना चाहिये ॥ 39 - 42 ॥