ऋषि बोले- हे राजन् ! पूर्व समयमें शुम्भ एवं निशुम्भ नामक प्रतापी दैत्य हुए। उन दोनों भाइयोंने अपने तेजसे चराचरसहित तीनों लोकोंको आक्रान्त कर रखा था। उन दोनोंसे पीड़ित हुए देवगण हिमालयपर्वतपर गये और समस्त प्राणियोंकी माता तथा कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवीको स्तुति करने लगे ॥ 1-2 ॥देवगण बोले- हे दुर्गे ! हे महेश्वरि! आपकी जय हो, हे आत्मीयजनप्रिये आपकी जय हो, त्रैलोक्यकी रक्षा करनेवाली आप शिवाको नमस्कार है, नमस्कार है। मुक्तिदायिनीको नमस्कार है, पराम्बाको नमस्कार है, समस्त जगत्का सृजन पालन तथा संहार करनेवालीको नमस्कार है ।। 3-4 ॥
हे कालिकारूपसम्पन्ने! आपको नमस्कार है। आप ताराकृतिको नमस्कार है। आप छिन्नमस्तास्वरूपा तथा श्रीविद्याको नमस्कार है ॥ 5 ॥
हे भुवनेश्वरि! आपको नमस्कार है, आप भैरवाकृतिको नमस्कार है। आप बगलामुखीको नमस्कार है। आप धूमावतीको बार- बार नमस्कार है ॥ 6 ॥ त्रिपुरसुन्दरीको नमस्कार है, मातंगीको बार- बार नमस्कार है। आप अजिताको नमस्कार है, विजयाको बार-बार नमस्कार है। आप जया, मंगला तथा विलासिनीको बार- बार नमस्कार है, आप दोग्ध्रीरूपाको नमस्कार है, आप घोराकृतिको नमस्कार है ॥ 7-8 ॥ हे अपराजिताकारे। आपको नमस्कार है, हे नित्याकारे! आपको नमस्कार है। शरणागतोंका पालन करनेवाली आप रुद्राणीको बार- बार नमस्कार है ॥ 9 ॥
आप वेदान्तवेद्याको नमस्कार है, आप परमात्माको नमस्कार है, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डकी नायिकाको बार-बार नमस्कार है ॥ 10 ॥
इस प्रकार देवताओं द्वारा स्तुति की जाती हुई वरदायिनी गौरी शिवाने प्रसन्न होकर सभी देवगणोंसे कहा- आपलोग यहाँपर किसकी स्तुति कर रहे हैं? ॥11॥
उसी समय पार्वतीके शरीरसे एक कन्या प्रकट हुई, उन देवगणोंके देखते देखते ही उसने अत्यन्त आदरपूर्वक शिवशक्ति पार्वतीजीसे कहा- हे मातः ! महाबली शुम्भ निशुम्भसे पीड़ित हुए सभी स्वर्गवासी देवता मेरी स्तुति कर रहे हैं ।। 12-13 ।।
वे पार्वतीके शरीरकोशसे उत्पन्न हुई, अतः शुम्भासुरका नाश करनेवाली वे कौशिकी नामसे पुकारी जाती हैं। वे ही उग्रतारिका एवं वही महोग्रतारिका भी कही गयी हैं। वे प्रकट हुई, इसलिये लोकमें मातंगी कही जाती हैं ।। 14-15 ॥उन्होंने सभी देवताओंसे कहा- आप सब निर्भय होकर निवास कीजिये। मैं स्वतन्त्र हूँ, इसलिये किसीके सहारेके बिना ही मैं आपलोगोंका कार्य सिद्ध करूँगी ॥ 16 ॥ तब ऐसा कहकर वे देवी उसी क्षण अन्तर्धान हो गयीं। उन दोनों शुम्भ निशुम्भके चण्ड मुण्ड नामक | सेवकोंने [उसी समय] उन देवीको देखा। नेत्रोंको सुख प्रदान करनेवाले उनके मनोहर रूपको देखते ही वे चेतना हीन तथा मोहित हो पृथ्वीपर गिर पड़े ।। 17-18 ॥
इसके बाद जाकर उन दोनोंने [अपने] राजासे आरम्भसे लेकर सारा वृत्तान्त कहा— हे राजन्! हमने एक मनोहर अपूर्व स्त्री देखी है, जो हिमालयके रम्य शिखरपर सिंहारूढ होकर स्थित है। सभी ओरसे देवकन्याएँ हाथ जोड़कर उसकी सेवा कर रही हैं। कोई [देवकन्या] उसका पैर दबाती है, कोई केश सँवारती है, कोई हाथ दबाती है, कोई नेत्रोंमें सुरमा | लगाती है। कोई हाथमें दर्पण लेकर उन्हें मुख दिखा रही है, कोई लौंग-इलायचीमिश्रित पान खिला रही है, कोई स्त्री हाथमें पीकदान लेकर उसके सामने खड़ी है और कोई आभूषण एवं वस्त्रोंसे उसके सभी अंगोंका श्रृंगार कर रही है॥19–23॥
वह देवी केलेके स्तम्भके समान ऊरुदेशवाली, शुकसदृश नासिकावाली, सर्पके समान भुजावल्लीवाली, बजते हुए नूपुरोंसे युक्त चरणोंवाली, रम्य मेखलासे युक्त, कस्तूरीकी गन्ध तथा मोतियोंकी मालासे शोभायमान हिलते हुए स्तनवाली, ग्रैवेयकसे सुशोभित ग्रीवावाली, बिजलीके समान कान्तिसे देदीप्यमान, अर्धचन्द्र तथा मणिमय | कुण्डल धारण किये हुए स्थित है । ll 24-26 ॥
मनोहर चोटीवाली, विशाल नेत्रोंवाली, तीन नेत्रोंसे सुशोभित, अक्षरब्रह्ममयी माला धारण किये हुए, हाथोंमें मनोहर कंकणसे सुशोभित, स्वर्णकी अँगूठीसे युक्त अँगुलियोंवाली, उज्ज्वल बाजूबन्दसे सुशोभित भुजाओं वाली, श्वेत वस्त्र पहने हुए, गौरवर्णवाली, कमलके आसनपर विराजमान, केसरबिन्दुका तिलक धारण किये हुए चन्द्रमासे अलंकृत मस्तकवाली, विद्युत् के समान कान्तिवाली, बहुमूल्य वस्त्रका चोल धारण किये हुए. ऊँचे स्तनोंवाली तथा उत्तुंग आठों हाथोंमें श्रेष्ठ आयुध धारण की हुई स्थित है ॥ 27-29 ॥वह जैसी सुन्दर है, वैसी त्रिलोकीमें न कोई असुर स्त्री है, न नाग स्त्री है, न गन्धर्व स्त्री है और न ही दानव स्त्री है अतः हे प्रभो। उसके परिग्रहकी योग्यता आपमें ही शोभित होती है; क्योंकि आप पुरुषरत्न हैं और वह स्त्रीरत्न है ॥ 30-31 ॥
चण्ड मुण्डके द्वारा कहा गया यह वचन सुनकर उस महान् असुरने देवीके पास अपना सुग्रीव नामक दूत भेजा और उससे कहा- हे दूत तुम हिमालयपर्वतपर जाओ, वहाँ एक सुन्दर स्त्री है, मेरा सन्देश कहकर उसे यत्नपूर्वक [मेरे पास ] लाओ ।। 32-33 ॥
उसकी यह आज्ञा पाकर दैत्योंमें श्रेष्ठ उस सुग्रीवने हिमालयपर्वतपर जाकर महेश्वरी जगदम्बासे कहा- ॥ 34 ॥ दूत बोला- हे देवि महान् बल तथा पराक्रमवाले शुम्भासुर एवं उनके छोटे भाई निशुम्भ तीनों लोकोंमें
विख्यात हैं। मैं उनका दूत हूँ। उनके द्वारा भेजा गया मैं आपके पास आया हूँ। हे सुरेश्वरि उन्होंने जो कहा है, उसे अब आप सुनिये ।। 35-36 ll
मैंने इन्द्र आदिको युद्धमें जीतकर उनके सारे रत्न ले लिये हैं और यज्ञमें देवगणोंके द्वारा दिये गये यज्ञभागको मैं स्वयं ग्रहण करता हूँ ॥ 37 ॥
मैं तुम्हें सभी रत्नोंमें सर्वश्रेष्ठ स्त्रीरत्न समझता हूँ, अत: तुम कामजन्य रसोंके द्वारा मेरा अथवा मेरे छोटे भाईका सेवन करो ll 38 ll शुम्भके द्वारा सन्दिष्ट दूतका कहा हुआ वचन सुनकर शिवप्राणप्रिया वे महामाया कहने लगीं- ॥ 39 ॥ देवी बोलीं- हे दूत ! तुम सत्य कह रहे हो, तुमने थोड़ा सा भी असत्य नहीं कहा है, किंतु मैंने पहले एक प्रतिज्ञा की है, उसे मुझसे जान लो जो युद्धमें मुझे जीत लेगा और जो मेरा अहंकार दूर करेगा, मैं उसे ही पतिरूपमें वरण करूँगी, दूसरेको नहीं, यह निश्चित है। तुम शुम्भ निशुम्भसे मेरा यह वचन कह दो इस विषयमें जैसा उचित हो, वह वैसा ही करे ।। 40-42 ॥
तब सुग्रीव नामक दूतने देवीका यह वचन सुनकर वहाँ जाकर विस्तारपूर्वक अपने राजासे कह दिया ।। 43 ।।उसके अनन्तर दूतकी बात सुनकर प्रचण्ड शासनवाले शुम्भने क्रोधित हो बलवानोंमें श्रेष्ठ अपने सेनापति धूम्राक्षसे कहा- हे धूम्राक्ष! हिमालयपर्वतपर कोई सुन्दरी स्थित है, तुम वहाँ शीघ्र जाकर वह जिस किसी प्रकार भी यहाँ आये, उसे लिवा लाओ। हे दैत्यसत्तम! उसके लाने में भय मत करना, यदि वह युद्ध भी करना चाहे तो तुम प्रयत्नपूर्वक युद्ध करना ॥ 44-46 ॥
इस प्रकार शुम्भकी आज्ञा प्राप्तकर उस धूम्रलोचन नामक दैत्यने हिमालयपर जाकर उमाके अंशसे | उत्पन्न भुवनेश्वरीसे हे नितम्बिनि ! तुम मेरे स्वामीके पास चलो, नहीं तो साठ हजार सैनिकोंसे युक्त मैं तुम्हें मार डालूँगा ॥ 47-48 ।।
देवी बोलीं- हे वीर ! दैत्यराजने तुम्हें भेजा है, यदि तुम मुझे मार दोगे, तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ, किंतु मैं युद्धके बिना वहाँ जाना असम्भव समझती हूँ ॥ 49 ॥
देवीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर वह दानव धूम्रलोचन उनकी ओर झपटा, किंतु महेश्वरीने 'हूँ' के उच्चारणमात्रसे उसे [उसी क्षण] भस्म कर दिया। उसी समयसे वे देवी लोकमें धूमावती नामसे विख्यात हुई, जो आराधित होकर अपने भक्तोंके शत्रुओंका नाश कर देती हैं ।। 50-51 ॥
धूम्राक्षके मार दिये जानेपर देवीके वाहन सिंहने अत्यन्त कुपित होकर उसके सैनिकोंका भक्षण कर डाला और जो शेष बचे, वे सब भाग गये ॥ 52 ॥
इस प्रकार देवीके द्वारा धूम्रलोचन दैत्यको मारा गया सुनकर वह प्रतापी शुम्भ अपने दोनों ओठोंको चबाता हुआ अत्यन्त क्रोधित हुआ ॥ 53 ॥ उसने क्रमसे चण्ड मुण्ड और रक्तबीज नामक दैत्योंको भेजा, तब उसकी आज्ञा पाकर वे भी वहाँ गये, जहाँ देवी स्थित थीं ॥ 54 ॥
सिंहपर आरूढ, अणिमादि सिद्धियोंसे युक्त और अपने तेजसे दसों दिशाओंको प्रकाशित करती हुई भगवतीको देखकर उन दैत्यराजोंने कहा- हे देवि! तुम शीघ्रता शुम्भ एवं निशुम्भ के पास चलो अन्यथा हमलोग तुम्हें गणों एवं वाहनके साथ मार डालेंगे। हे वामे! लोकपालों आदिके द्वारा स्तुत उन शुम्भका पतिरूपमें वरण करो, इससे तुम देवताओंके लिये भी दुर्लभ महान् आनन्द प्राप्त करोगी ॥ 55-57 ॥उनका यह वचन सुनकर वे परमेश्वरी देवी हँसकर रसमय सत्य वचन कहने लगीं- ॥ 58 ॥
देवी बोलीं- जो अद्वितीय महेशान परब्रह्म सदाशिव कहे जाते हैं और जिन्हें वेद भी तत्त्वतः नहीं जानते, फिर विष्णु आदिकी तो बात ही क्या ? मैं उन्हींकी सूक्ष्म प्रकृति हूँ, अतः किसी दूसरेको पतिरूपमें किस प्रकार वरण करूँ? कामपीड़ित सिंहिनी कभी गीदड़का, हथिनी कभी गधेका एवं व्याघ्री खरगोशका वरण नहीं कर सकती है ? हे दैत्यो! कालसर्पसे ग्रस्त हुए तुमलोग झूठ बोल रहे हो । अब शीघ्र ही पाताल चले जाओ अथवा यदि | सामर्थ्य हो तो युद्ध करो ॥ 59-611/2 ॥
क्रोधको उत्पन्न करनेवाले इस प्रकारके वचन सुनकर वे परस्पर कहने लगे-हमलोग अपने मनमें तुम्हें अबला समझकर नहीं मार रहे हैं, हे सिंहवाहिनि ! यदि तुम मनसे युद्धकी लालसा रखती हो तो सिंहपर सुस्थिर होकर बैठ जाओ और [ युद्धके लिये] आओ ।। 62-63॥
इस प्रकार उनके विवाद करनेपर कलह बढ़ गया और युद्धमें दोनों ही पक्षोंसे तीखे बाण बरसने लगे ॥ 64 ॥ इस प्रकार उनके साथ युद्ध करके परमेश्वरीने लीलामात्रसे चण्ड-मुण्डसहित महान् असुर रक्तबीजको मार डाला । द्वेषबुद्धि रखनेपर भी उन देवशत्रुओंने अन्तमें उस श्रेष्ठ लोकको प्राप्त किया, जिस लोकको देवीके भक्त प्राप्त करते हैं ॥ 65-66 ॥