सनत्कुमार बोले— उनकी यह बात सुनकर श्रीकृष्णने अति विस्मित होकर शान्तचित्त उन महामुनिसे कहा- ॥ 1 ॥
वासुदेव बोले- हे विप्रेन्द्र! आप धन्य हैं, आप [ विशुद्धात्मा] की स्तुति करनेमें कौन समर्थ हो सकता है, जिन आपके आश्रम में देवताओंके आदिदेव निवास करते हैं। हे मुनिश्रेष्ठ! वे भगवान् सदाशिव मुझे भी जिस प्रकार दर्शन दें तथा मुझपर कृपा करें, आप ऐसा उपाय बतायें ll 2-3 ll
उपमन्यु बोले- हे पुरुषोत्तम! आप थोड़े ही समयमें महादेवका दर्शन उन्हींकी कृपासे प्राप्त करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है ll 4 ॥
आप सोलहवें महीनेमें पार्वतीसहित सदाशिवसे उत्तम वरदान प्राप्त करेंगे। हे हरे! वे प्रभु शिव आपको वरदान क्यों नहीं देंगे, आप सभी देवगणोंसे पूजायोग्य एवं सर्वदा गुणों के कारण प्रशंसनीय हैं, हे अच्युत मैं आप श्रद्धालुको जपनीय मन्त्र बताऊँगा ॥ 5-6 ll
उस जपके प्रभावसे आप निश्चय ही शिवका दर्शन प्राप्त कर लेंगे और महेश्वरसे अपने समान ही बलवाला पुत्र प्राप्त करेंगे ॥ 7 ॥
हे हरे ! 'ॐ नमः शिवाय' इस दिव्य मन्त्रराजका जप सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला एवं भोग और मोक्षको प्रदान करनेवाला है ॥ 8 ॥
सनत्कुमार बोले- हे तापस! इस प्रकार महादेवसम्बन्धी कथाओंको कहते हुए उन [उपमन्यु] के आठ दिन एक मुहूर्तके समान बीत गये ॥ 9 ॥ [उसके अनन्तर] नौवाँ दिन आनेपर मुनि उपमन्युने उन श्रीकृष्णको दीक्षा प्रदान की और शिव अथर्वशीर्षका महामन्त्र उन्हें बताया ॥ 10 ॥
वे शीघ्र ही सिर मुड़ाकर दण्डधारी हो गये और एकाग्रचित्त होकर ऊपर भुजा उठाये पैरके एक अँगूठेपर खड़े होकर तप करने लगे ॥ 11 ॥
इसके बाद सोलहवाँ महीना आनेपर प्रसन्न होकर पार्वतीसहित परमेश्वर शम्भुने कृष्णको दर्शन दिया ॥ 12 ॥तीन नेत्रवाले, चन्द्रमाको मस्तकपर धारण किये, ब्रह्मा आदिसे स्तुति किये जाते हुए करोड़ों सिद्धजनोंसे पूजित, दिव्य माला तथा वस्त्र धारण किये हुए, भक्तिसे विनम्र देवताओं एवं असुरोंसे नमस्कृत, अनेक आभूषणोंसे विभूषित, सम्पूर्ण आश्चर्य से परिपूर्ण, कान्तिमान्, अनेक गणों तथा दोनों पुत्रोंसे युक्त एवं अति प्रसन्न पार्वतीसहित ऐसे अजन्मा अविनाशी प्रभु भगवान् महेश्वरको देखकर विस्मयसे प्रफुल्लित नेत्रोंवाले तथा परम उत्साहसे युक्त श्रीकृष्णने हाथ जोड़कर प्रसन्न होकर शंकरजीको प्रणाम किया। उन्होंने शास्त्रविधिसे उनकी पूजा की और सिर
झुकाकर अनेकविध स्तोत्ररूप वाचिक उपचारसे तथा
सहस्रनामसे देवेश्वरकी स्तुति की ।। 13-17 ॥
उसके अनन्तर गन्धक सहित देवताओं, विद्याधरों एवं महानागौने श्रीकृष्ण पर पुष्पवृष्टिकर उन्हें मनोनुकूल साधुवाद प्रदान किया। उसके बाद भक्तवत्सल भगवान् | महेश्वर रुद्रने पार्वतीके मुखकी ओर देखकर प्रसन्न होकर कृष्णसे कहा- ll 318-19 ॥
श्रीमहादेव बोले- हे कृष्ण ! मेरे प्रति दृढव्रतवाले आप भक्तको मैं जानता हूँ, अतः आप तीनों लोकोंमें दुर्लभ एवं पवित्र वरोंको मुझसे माँग लीजिये ॥ 20 ॥ सनत्कुमार बोले- उनके उस वचनको सुनकर श्रीकृष्णने हाथ जोड़कर आदरसहित सर्वेश्वर शिवको बार-बार प्रणाम करके उनसे कहा- ॥ 21 ॥
श्रीकृष्ण बोले- हे देवदेव ! हे महादेव ! हे नाथ! हे महेश्वर मैं आपके द्वारा कहे गये अत्युत्तम आठ वरोंको आपसे माँगता हूँ। मेरी बुद्धि सदा शिवधर्ममें लगी रहे, मेरा यश सदा अधिक तथा अविचल रहे मुझे आपका सामीप्य सदा प्राप्त हो और | निरन्तर आपमें मेरी भक्ति बनी रहे। हे शम्भो ! मेरी प्रमुख पत्नियों के दस दस पुत्र उत्पन्न हों और संग्राममें मैं समस्त बलाभिमानी शत्रुओंका वध करने में समर्थ होऊँ । हे प्रभो! शत्रुओंसे कभी मेरा अपमान न हो और मैं सभी योगियोंका भी अत्यन्त प्रिय होऊँ, हे | देवाधिदेव! मुझे ये आठ उत्तम वर प्रदान कीजिये, आपको नमस्कार है। आप सर्वेश्वर हैं और विशेष रूपसे मेरे प्रभु हैं ॥ 22-26 ॥सनत्कुमार बोले- उनका यह वचन सुनकर भगवान् शिवने उनसे कहा-यह सब [पूर्ण] होगा।
शिवजीने उनसे पुनः कहा ॥ 27 ॥
आपका साम्ब नामक एक महाबलवान् पुत्र होगा। पूर्व समयमें मुनिलोगोंने घोर संवर्तकादित्यको शाप दिया था कि तुम मनुष्यरूप धारण करोगे, इस प्रकार वे ही संवर्तकादित्य आपके पुत्र होंगे। आपने जो कुछ भी माँगा है, वह सब आपको प्राप्त हो ॥ 28-29 ।। सनत्कुमार बोले- इस प्रकार परमेश्वरसे समस्त वर प्राप्तकर श्रीकृष्णने अनेक प्रकारकी बहुत सी स्तुतियोंसे उन्हें प्रसन्न किया। उसके बाद सन्तुष्ट हुई भक्तवत्सला शिवा पार्वतीने उन महात्मा शिवभक्त महातपस्वी वासुदेवसे कहा- 30-31 ॥ पार्वती बोलीं- हे वासुदेव ! हे महाबुद्धे ! हे कृष्ण ! हे अनघ ! मैं आपसे प्रसन्न हूँ, अब आप पृथ्वीपर सर्वथा दुर्लभ तथा सुन्दर वरोंको मुझसे प्राप्त करें ।। 32 ।।
सनत्कुमार बोले- उन पार्वतीका यह वचन सुनकर उन श्रीकृष्णने अतिप्रसन्नचित्त होकर भक्तियुक्त मनसे उनसे कहा- ॥ 33 ॥
श्रीकृष्ण बोले- हे देवि यदि आप [मुझपर ] प्रसन्न हैं और मेरे इस सत्यतपसे वरदान देना चाहती हैं तो [मुझे यही वरदान दीजिये कि] मुझे ब्राह्मणोंसे कभी द्वेष न हो, मेरा कल्याण हो और मैं सदा ब्राह्मणोंकी पूजा करता रहूँ, मेरे माता- पिता सदा मुझपर प्रसन्न रहें, मैं जहाँ कहीं भी जाऊँ, वहाँ मैं सभी प्राणियोंके प्रति अनुकूलता रखूं। आपके दर्शनके कारण अच्छे कुलमें मेरा जन्म हो, इन्द्र आदि देवगणोंको सैकड़ों यज्ञोंके द्वारा तृप्त करता रहूँ, हजारों यतियों तथा अतिथियोंको सदा अपने घरपर श्रद्धासे पवित्र भोजन कराता रहूँ, अपने बान्धवजनोंके साथ मेरी प्रीति रहे तथा मैं सदा सुखी रहूँ। हे देवि ! मैं अपनी हजारों स्त्रियोंका प्राणप्रिय बना रहूँ और हे शांकरि! आपकी कृपासे उनमें मेरी अक्षीण प्रीति रहे। उनके माता- पिता लोकमें सत्यवादी रहें। हे पार्वति ये सुन्दर वर आपकी कृपासे मुझे प्राप्त हों ।। 34-40 ।।सनत्कुमार बोले- उनके इस वचनको सुनकर सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सनातनी देवीने विस्मित होकर कहा- ऐसा ही हो ॥ 41 ॥ इस प्रकार श्रीकृष्णपर सत्कृपा करके उन्हें उन वरोंको देकर शिव पार्वती वहीं अन्तर्हित हो गये ll 42 ll हे मुनीश्वर श्रीकृष्ण अपनेको कृतार्थ समझने | लगे, तदनन्तर वे शीघ्रताके साथ महर्षि उपमन्युके श्रेष्ठ आश्रममें गये । वहाँपर उन मुनिको नतमस्तक हो प्रणामकर केशिहा (केशी दैत्यका वध करनेवाले) कृष्णने उन उपमन्युसे उस वृत्तान्तको बताया- ॥ 43-44 ।।
तब उन्होंने उनसे कहा- हे जनार्दन ! लोकमें उन प्रभु सदाशिवसे बढ़कर महादानपति तथा क्रोधके करनेमें अतिशय दुःसह कौन हो सकता है ? ।। 45 ।।
ज्ञान, तपस्या, शूरता, स्थिरता तथा पदमें भी उनसे अधिक कौन हो सकता है ? हे गोविन्द ! हे महायशस्वी! अब आप शिवजीके ऐश्वर्यको सुनें। यह सुनकर वे श्रद्धासम्पन्न एवं शिवभक्तिपरायण हो शिवके माहात्म्यको पूछने लगे। तब मुनीश्वरने उनसे कहा- 46-47 ॥ उपमन्यु बोले- पूर्व समयमें ब्रह्मलोकमें ब्रह्मयोगी महात्मा तण्डीने शिवसहस्रनामसे भगवान् शिवकी स्तुति की थी ll 48 ll
निघण्टुके समान विस्तृत [अभिप्रायवाले तथा महात्मा तण्डिके द्वारा गाये गये उस स्तोत्रका सांख्यवेत्ता पारायण करते हैं, मनुष्योंके लिये दुर्ज्ञेय वह स्तोत्र सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। हे कृष्ण! आप शिवका स्मरण करते हुए सुखपूर्वक घर जाइये। हे तात! आप शिवके भक्तोंमें सदा अग्रणी रहेंगे ।। 49-50 ॥
उनके ऐसा कहनेपर वासुदेव श्रीकृष्ण उन मुनीश्वर महर्षिको नमस्कार करके मनसे शिवका स्मरण करते हुए द्वारका चले गये ॥ 51 ॥ सनत्कुमार बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार संसारका कल्याण करनेवाले शिवजीकी आराधनाकर श्रीकृष्ण कृतार्थ हुए और सभीसे अजेय हो गये॥ 52 ॥ हे मुनिश्रेष्ठ इसी तरह दशरथपुत्र श्रीराम भी भक्तिके साथ शिवको आराधना करके कृतकृत्य हुए और सभीसे अजेय हो गये ॥ 53 ॥हे मुने! पहले श्रीरामने पर्वतपर अतिशय तप | करके शिवजीसे अत्युत्तम ज्ञान और धनुष बाण प्राप्त किया था। तत्पश्चात् वे समुद्रपर पुल बाँधकर सपरिवार रावणका वधकर जानकीको साथ लेकर घर लौटे और सम्पूर्ण पृथ्वीका शासन करने लगे । ll 54-55 ।।
इसी प्रकार क्षत्रियोंके द्वारा मारे गये अपने पिताको देखकर दुखी होकर भृगुपुत्र परशुरामने तपस्याके द्वारा शिवकी आराधना करके प्रसन्न हुए परमेश्वर शिवसे तीक्ष्ण परशुको प्राप्त किया और उससे इक्कीस बार उन क्षत्रियोंका संहार किया ।। 56-57 ।।
वे महातपस्वी [परशुराम] अजेय और अमर हैं। वे आज भी सिद्ध और चारणोंके साथ शिवलिंगका पूजन करते हुए देखे जाते हैं ॥ 58 ॥
वे परशुराम [ इस समय भी] महेन्द्रपर्वतपर स्थित रहकर तपस्यामें रत हैं। कल्पका अन्त होनेपर वे पुनः ऋषिस्थान प्राप्त करेंगे। महर्षि असितके अनुज देवल नामक तपस्वीने अपने भाईके द्वारा सर्वस्व अपहरणके बाद दुखी होकर शिवकी आराधना की थी । 59-60 ॥ अधर्मयुक्त कार्य करनेपर इन्द्रके द्वारा शापित किसी तपस्वीने कामनाकी पूर्ति करनेवाले शिवलिंगकी आराधना करके सुस्थिर धर्मकी प्राप्ति की थी ॥ 61 ॥ चाक्षुष मनुका पुत्र गृत्समद वसिष्ठके शापसे दण्डकारण्यके मरुस्थलमें [क्रूर] पशु हुआ और अपने मनमें प्रणवयुक्त शिवमन्त्रका भक्तिपूर्वक स्मरण करता हुआ अकेले घूमा करता था, [ वह भगवान् शिवकी कृपासे] मृत्युके समान मुखाकृतिवाला मृगमुख नामक शिवका गण हुआ ।। 62-63 ।।
इस प्रकार शिवने प्रेमपूर्वक उसके शापको दूरकर उसे अजर अमर कर दिया और गणेशजीका अनुगामी बना दिया ॥ 64 ॥
स्वेच्छासे विचरण करनेवाले सदाशिवने गार्ग्यको भूलोकमें दुर्लभ मोक्ष, महासमृद्धिसम्पन्न महाक्षेत्र, कालज्ञान, धर्मादि चारों पदार्थ प्रदान किये तथा सदाके लिये भगवती भारतीका पारंगत विद्वान् बनाया। शिवजीने उन्हें अतुलनीय हजार पुत्रोंकी प्राप्तिका वरदान भी दिया ॥ 65-66 ॥
सन्तुष्ट हुए पिनाकधारी शिवने पराशरको जरा मरणरहित वेदव्यास नामक योगीश्वर पुत्र प्रदानकिया। शिवजीने शूलके अग्रभागपर दस लाख वर्षोंसे चढ़े हुए माण्डव्य ऋषिको जीवनदान देकर मुक किया ।। 67-68 ।।
पूर्व समयमें कोई निर्धन गृहस्थ ब्राह्मण अपने पुत्र गालवको गुरुके घरमें रखकर मुनियोंके आश्रम में छिप गया। उसके घरपर भिक्षुक आते जाते रहते थे। धनहीन होनेके कारण उस ब्राह्मणने अपनी स्त्रीसे कह दिया था कि जो कोई भिक्षुक आये, उससे तुम कह दिया करो कि मेरे पति घरपर दिखायी नहीं देते हैं; क्योंकि आये हुए अतिथिको में गृहस्थ होते हुए भी क्या प्रदान करूँ ? ।। 69-71 ॥
इसके बाद किसी समय भूख और प्याससे दुर्बल और अतिशय व्याकुल कोई अतिथि पहुँचा, उसने उस ब्राह्मणीसे पूछा कि तुम्हारा पति कहाँ गया है? तब उस ब्राह्मणीने उससे कहा कि मेरे पति तो इस समय दिखायी ही नहीं दे रहे हैं। इसके बाद दिव्य दृष्टिसे उसको देखकर भिक्षुकरूप महर्षिने उससे यह कहा- तुम्हारा पति घरमें कहीं छिपकर बैठा हुआ है और [उसके ऐसा कहते ही] वह ब्राह्मण वहीं पर मर गया ।। 72-73 ।।
तत्पश्चात् विश्वामित्रसे सभी वृत्तान्त जानकर उसका पुत्र गालव अपने घर आया और मातासे दारुण शापकी बात जानकर उसने शैव विधानके अनुसार पूजा करते हुए शिवजीकी आराधना की। [तब शिवजीकी कृपासे जीवित हुआ उसका पिता ] मनमें शंकरजीका स्मरण करता हुआ घरसे निकला। इसके बाद उस पुत्रको देखकर उसके पिताने हाथ जोड़कर कहा- मैं महादेवजीकी कृपासे कृतकृत्य हो गया मैं धनवान् तथा पुत्रवान् हो गया हूँ और मरकर पुनः जीवित हो गया हूँ ॥ 74–77 ।।
[हे मुनिगण!] इस प्रकार मैंने संक्षेपमें वर्णन कर दिया, मैं पूर्णरूपसे वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं। शेषनागके [हजार] मुख भी विस्तारपूर्वक सदाशिवके गुणका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ 78 ॥