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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 39 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 39

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श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना

ब्रह्माजी बोले - [ नारद!] भक्तवत्सल भगवान् विष्णु राजा क्षुवके हितसाधनके लिये ब्राह्मणका रूप धारणकर दधीचिके आश्रम में गये ॥ 1 ॥ कपटरूप धारण करके जगद्गुरु श्रीहरि शिवभक्तों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि दधीचिको प्रणाम करके क्षुवके कार्यकी सिद्धिके लिये तत्पर हो उनसे कहने लगे- ॥ 2 ॥

विष्णु बोले- हे दधीचि शिवको आराधनायें तत्पर रहनेवाले हे विप्रर्षे! हे अव्यय! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके उसे आप मुझे दीजिये ॥ 3 ॥

ब्रह्माजी बोले- वकी कार्यसिद्धि चाहनेवाले देवदेव विष्णुके द्वारा याचित परम शिवभक्त दधीचि विष्णुसे शीघ्र यह वचन कहने लगे- ॥ 4 ॥

दधीचि बोले- हे विप्र मैंने आपका अभीष्ट जान लिया है, आप भगवान् श्रीहरि क्षुवके कार्यके लिये ही यहाँ ब्राह्मणका रूप धारणकर आये हैं, आप तो मायावी हैं। हे देवेश! हे जनार्दन। शिवजीको कृपासे मुझे भूत-भविष्य और वर्तमान- इन तीनों कालोंका ज्ञान सदा रहता है ।। 5-6 ll

मैं आप श्रीहरि विष्णुको जानता हूँ । है सुव्रत ! इस ब्राह्मणवेशको छोड़िये । दुष्टबुद्धिवाले क्षुवने आपकी आराधना की है। हे भगवन्! हे हरे ! मैं आपकी भक्तवत्सलताको जानता हूँ, यह छल छोड़िये, अपने रूपको ग्रहण कीजिये और भगवान् शंकरका स्मरण कीजिये ।। 7-8 ।।

शंकरकी आराधनामें लगे रहनेवाले मुझसे यदि किसीको भय हो, तो आप उसे यत्नपूर्वक सत्यकी शपथके साथ कहिये। शिवके स्मरणमें आसक्त बुद्धिवाला मैं कभी झूठ नहीं बोलता। मैं इस संसारमें किसी देवता या दैत्यसे भी नहीं डरता ॥ 9-10 ll

विष्णु बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हे दधीचि! आपका भय तो सर्वथा नष्ट ही है; क्योंकि आप शिवको आराधनामें तत्पर रहते हैं और सर्वज्ञ हैं ॥ 11 ॥आपको नमस्कार है। आप मेरे कहनेसे एक। बार अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा ध्रुवसे यह कह दीजिये हे राजेन्द्र ! मैं आपसे डरता हूँ ॥ 12 ॥

ब्रह्माजी बोले- विष्णुका यह वचन सुनकर भी शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ महामुनि दधीचि हँसकर निर्भव हो कहने लगे- ॥ 13 ॥ दधीचि बोले- मैं पिनाकधारी देवाधिदेव
शम्भुके प्रभावसे कहीं भी किसीसे किंचिन्मात्र भी
नहीं डरता हूँ ॥ 14 ॥

ब्रह्माजी बोले- उन मुनिका यह वचन सुनकर भगवान् विष्णु क्रोधित हो उठे और वे मुनिश्रेष्ठ दधीचिको जलानेकी इच्छासे अपने चक्रको ऊपर उठाकर खड़े हो गये। राजा क्षुवके सामने ही ब्राह्मणपर चलाया जानेवाला उनका भयंकर चक्र शिवजीके प्रभावसे वहीं पर कुण्ठित हो गया। इस प्रकार उस चक्रको कुण्ठित हुआ देखकर दधीचि हँसते हुए सत् एवं असत्की अभिव्यक्तिके कारणभूत भगवान् विष्णुसे कहने लगे-ll 15-17 ॥

दधीचि बोले- हे भगवन्! आपने पूर्व समयमें [ तपस्याके] प्रयत्नसे शिवजीसे सुदर्शन नामक अत्यन्त दारुण जिस चक्रको प्राप्त किया है, शिवजीका वह शुभ चक्र मुझे नहीं मारना चाहता है। तब भगवान् श्रीहरिने क्रुद्ध होकर क्रमसे सभी अस्त्रोंको उनपर चलाया। [इसपर दधीचिने कहा-] अब आप ब्रह्मास्त्र आदि बाणोंसे तथा अन्य प्रकारके अस्त्रोंसे प्रयत्न कीजिये ।। 18-19 ।।

ब्रह्माजी बोले- दोषिके वचनको सुनकर भगवान् विष्णु उन्हें अपने सामने अत्यन्त तुच्छ मनुष्य समझकर क्रोधित हो अन्य प्रकारके अस्त्रोंका उनपर प्रयोग करने लगे। उस समय एकमात्र उस ब्राह्मणसे युद्ध करनेके लिये मूर्ख देवता भी आदरपूर्वक विष्णुकी सहायता करने लगे । ll 20-21 ।।

विष्णुपक्षीय इन्द्र आदि देवगण भी दधीचिके ऊपर बड़े वेग से अपने- अपने अस्त्र शस्त्र शीघ्र चलाने लगे। तब वज्र हुई अस्थियोंवाले जितेन्द्रिय दधीचिने | शिवजीका स्मरण करते हुए मुट्ठीभर कुशा लेकर सभी देवताओंपर प्रयोग किया ।। 22-23 ।।हे मुने शंकरजी के प्रभावसे [ मुनीश्वर दधीचिके द्वारा प्रयुक्त ] वह मुट्ठीभर कुशा कालाग्निके समान दिव्य त्रिशूल बन गया ।। 24 ।।

चारों ओरसे जलता हुआ, प्रलयाग्निसे भी अधिक तेजवाला तथा ज्वालाओंसे युक्त वह शैव अस्त्र आयुधों सहित समस्त देवताओंको भस्म करनेका विचार करने लगा ॥ 25 ll

उस समय विष्णु इन्द्र आदि मुख्य देवताओंके द्वारा जो अस्त्र छोड़े गये थे, वे सभी उस त्रिशूलको प्रणाम करने लगे। तब नष्टपराक्रमवाले सभी स्वर्गवासी देवगण [इधर-उधर] भागने लगे। मायावियोंमें श्रेष्ठ स्वामी विष्णु ही एकमात्र भयभीत हो वहाँ स्थित रहे ।। 26-27 ।।

तब पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुने अपने शरीरसे अपने ही समान हजारों एवं लाखों दिव्य गणोंको उत्पन्न किया। हे देवर्षे तदनन्तर विष्णुके वीरगण अकेले शिवस्वरूप दधीचिसे युद्ध करने लगे ।। 28-29

तदनन्तर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ महर्षि दधीचिने रणमें उन गणोंके साथ वहाँ बहुत युद्धकर सहसा उन सबको जला दिया ॥ 30 ॥

तब मायाविशारद भगवान् विष्णु महर्षि दधीचिको विस्मित करनेके लिये शीघ्र ही विश्वमूर्ति हो गये ॥ 31 ॥

ब्राह्मणश्रेष्ठ दधीचिने [उस समय] उन विष्णुके शरीरमें हजारों देवता आदिको और अन्य जीवोंको देखा। उस समय विश्वमूर्तिके शरीरमें करोड़ों भूत, करोड़ों गण तथा करोड़ों ब्रह्माण्ड विद्यमान थे । ll 32-33 ।।

इन सभीको देखकर दधीचि मुनि जगत्पति, जगत्स्तुत्य, अजन्मा तथा अविनाशी उन भगवान् विष्णुसे कहने लगे-॥ 34 ॥

दधीचि बोले- हे महाबाहो ! आप मायाको त्याग दीजिये। विचार करनेसे सब प्रतिभासमात्र प्रतीत होता है। हे माधव! मैंने भी हजारों दुर्विज्ञेय वस्तुओंको जान लिया है। अब आप निरालस्य होकर मुझमें अपने सहित ब्रह्मा, रुद्र तथा सम्पूर्ण जगत्‌को देखिये, मैं आपको दिव्य दृष्टि देता हूँ ll 35-36 llब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर भगवान् शिवके तेजसे पूर्ण शरीरवाले दधीचि मुनिने अपने शरीरमें समस्त ब्रह्माण्डको दिखाया। तत्पश्चात् शिवकोंमें श्रेष्ठ बुद्धिमान् दधीचि मनमें शंकरका स्मरण करते हुए निर्भय होकर देवेश भगवान् विष्णु कहने लगे ।। 37-38 ॥

दधीचि बोले- हे हरे! आपकी इस मायासे अथवा मन्त्रशक्तिसे क्या हो सकता है? आप श्रेष्ठ कामना करके यत्नपूर्वक मुझसे युद्ध कीजिये ।। 39 ।। ब्रह्माजी बोले- तब उन मुनिका यह वचन सुनकर विष्णु शिवजीके तेजसे निर्भय होकर उन मुनिपर अत्यन्त कुपित हो उठे ॥ 40 ॥

उस समय जो देवता भाग गये थे, वे भी प्रतापी दधीचिसे युद्ध करने की इच्छासे उन नारायणदेवके पास आ गये ॥ 41 ॥

इसी बीच मुझे साथ लेकर राजा क्षुव वहाँ आ गये। मैंने देवताओं तथा विष्णुको युद्ध करनेसे | मना किया और कहा कि यह ब्राह्मण [किसीसे] जीता नहीं जा सकता है। मेरी इस बातको सुनकर भगवान् विष्णुने मुनिके निकट जाकर उन्हें प्रणाम किया ।। 42-43 ।।

उसके बाद वे क्षुव भी अत्यन्त दीन होकर वहाँ मुनीश्वर दधीचिके पास जाकर व्याकुल हो प्रणाम करके प्रार्थना करने लगे- ॥ 44 ॥

क्षुव बोले- हे मुनिश्रेष्ठ प्रसन्न होइये हे शिवभक्तशिरोमणे! प्रसन्न होइये। हे परमेशान! आप दुर्जनोंके द्वारा सदा दुर्लक्ष्य हैं ।। 45 ।। ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] उन राजा क्षुबकी तथा देवताओंकी यह बात सुनकर तपस्यानिधि ब्राह्मण दधीचिने उनपर अनुग्रह किया 46 तदनन्तर विष्णु आदिको देखकर मुनिने क्रोध से व्याकुल होकर मनसे शिवजीका स्मरण करके विष्णु तथा देवताओंको शाप दे दिया ॥ 47 ॥

दधीचि बोले- देवराज इन्द्रसहित सभी देवता और मुनीश्वर तथा गणोंके साथ विष्णुदेव रुद्रकी क्रोधाग्निसे ध्वस्त हो जायें ॥ 48 ॥ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार देवताओंको शाप देकर पुनः क्षुवकी ओर देखकर मुनिने क्षुवसे कहा हे राजेन्द्र श्रेष्ठ द्विज देवताओं और राजाओंसे भी अधिक पूज्य होता है। हे राजेन्द्र! ब्राह्मण ही बली और प्रभावशाली होते हैं- ऐसा स्पष्टरूपसे कहकर वे ब्राह्मण दधीचि अपने आश्रममें प्रविष्ट हो गये।। 49-50ll

तत्पश्चात् दधीचिको नमस्कार करके क्षुव अपने घर चले गये और भगवान् विष्णु भी जैसे आये थे, उसी तरह देवताओंके साथ अपने वैकुण्ठलोकको लौट गये ॥ 51 ॥

[ इस प्रकार ] वह स्थान स्थानेश्वर नामक तीर्थके रूपमें प्रसिद्ध हो गया। स्थानेश्वरमें पहुँचकर मनुष्य शिवका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। हे तात! इस प्रकार मैंने आपसे संक्षेपमें क्षुव और दधीचिका विवाद कह दिया और शंकरको छोड़कर ब्रह्मा और विष्णुको जो | शाप प्राप्त हुआ, उसका भी वर्णन किया ।। 52-53 ।। जो [व्यक्ति ] क्षुव और दधीचिके इस विवाद सम्बन्धी प्रसंगका नित्य पाठ करता है, वह अपमृत्युको जीतकर शरीरत्यागके पश्चात् ब्रह्मलोकको जाता है ॥ 54 ॥

जो इसका पाठ करके रणभूमिमें प्रवेश करेगा, उसे सर्वदा मृत्युका भय नहीं रहेगा तथा वह विजयी होगा ॥ 55 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य