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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 22 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 22

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श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना

सनत्कुमार बोले- इसके बाद रौद्ररूपवाले महाप्रभु शंकर बैलपर सवार हो वीरगणोंके साथ हँसते हुए संग्रामभूमिमें गये जो रुद्रगण पहले पराजित होकर भाग गये थे, वे शिवजीको आते हुए देखकर सिंहनाद करते हुए युद्धभूमिमें पुनः लौट आये। वे और शंकरके अन्य गण भी शब्द करते हुए आयुधोंसे युक्त हो बड़े उत्साहके साथ बाणोंकी वर्षासे दैत्योंको मारने लगे ॥ 1-3 ॥

उस समय सभी दैत्य भयंकर रुद्रको देखकर इस प्रकार भागने लगे, जिस प्रकार शिवभक्तको देखकर उसके भयसे पाप भाग जाते हैं। तदनन्तर युद्धमें असुरोंको पराङ्मुख देखकर वह जलन्धर हजारों बाणोंको छोड़ता हुआ शंकरजीकी ओर दौड़ा। शुम्भ निशुम्भ आदि हजारों दैत्यराज भी क्रोधसे ओठोंको चबाते हुए बड़े वेगसे शंकरजीकी ओर जाने लगे ॥ 4-6 ॥ वीर कालनेमि, खड्गरोमा, बलाहक, घस्मर, प्रचण्ड तथा अन्य दैत्य भी शिवजीकी ओर दौड़ पड़े ॥ 7 ॥

हे मुने। शुम्भ आदि सभी वीरों [दैत्यगणों ] ने शीघ्र ही बाणोंके द्वारा रुद्रगणोंको ढंक दिया और उनके अंगोंको छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ 8 ॥तब शंकरने अपने गणोंको बाणोंके अन्धकारसे आवृत देखकर शीघ्रतापूर्वक दैत्योंके बाणसमूहों को काटकर अपने बाणोंसे आकाशको भर दिया ॥ 9 ॥

उन्होंने बागोंकी आंधी पोंको पीड़ित कर दिया और वाणसमूहोंसे दैत्योंको पृथ्वीतलपर गिरा | दिया। उन्होंने अपने परशु खड्गरोमाका सिर धड़से अलग कर दिया और खट्वांगसे बलाहकके सिरके दो टुकड़े कर दिये। घस्मर नामक दैत्यको पाशमें बाँधकर उसे भूमिपर पटक दिया और अपने त्रिशूलसे महावीर प्रचण्डको काट डाला ।। 10-12 ॥

शिवजीके वृषभने कुछको मार डाला, कुछ बाणोंके द्वारा मार दिये गये और कुछ दैत्य सिंहसे पीड़ित हाथियोंकी भाँति स्थित रहनेमें असमर्थ हो गये ll 13 ll

तब क्रोधाविष्ट मनवाला वह महादैत्य जलन्धर शुम्भादि दैत्योंको धिक्कारने लगा और धैर्ययुक्त होकर हँसता हुआ कहने लगा- ॥ 14 ॥

जलन्धर बोला - [ पहले शंकरजीसे बोला-] भागकर पीठ दिखाते हुए माताके मलके समान इन दैत्योंको मारनेसे क्या लाभ क्योंकि भयभीत लोगोंको मारना श्लाघ्य तथा वीरोंके लिये स्वर्गप्रद नहीं होता। यदि युद्ध करनेमें तुम्हारी श्रद्धा है, हृदयमें थोड़ा भी साहस है तथा यदि ग्राम्यसुखमें थोड़ी भी स्पृहा नहीं है, तो मेरे सामने खड़े रहो ।। 15-16 ।।

[पुनः अपने वीरोंसे बोला ] युद्धभूमिमें मर जाना अच्छा है, यह सभी कामनाओंका फल देनेवाला, यशकी प्राप्ति करानेवाला तथा विशेषकर मोक्ष देनेवाला भी कहा गया है। जो रणभूमिमें युद्ध करते हुए मारा जाता है, वह संन्यासी एवं परमज्ञानी होता है और सूर्यमण्डलको भेदकर परमपदको प्राप्त करता है। बुद्धिमानोंको कभी भी कहीं भी मृत्युसे भयभीत नहीं होना चाहिये; क्योंकि समस्त उपायोंसे भी इसे रोका नहीं जा सकता है । ll 17- 19 ॥

हे वीरो यह मृत्यु तो जन्म लेनेवालोंके शरीरके साथ ही पैदा होती है, वह आज हो अथवा सौ वर्ष बाद हो, प्राणियोंकी मृत्यु तो निश्चित है ॥ 20 ॥इसलिये मृत्युका भय त्यागकर संग्राममें | प्रसन्नतापूर्वक युद्ध करो, ऐसा करनेसे इस लोकमें तथा परलोकमें भी निःसन्देह परम आनन्दकी प्राप्ति होती है। ll 217 ll

सनत्कुमार बोले - [ हे व्यास!] ऐसा कहकर उसने अपने वीरोंको अनेक प्रकारसे समझाया, किंतु वे भयके कारण धैर्य धारण न कर सके और रणसे भागने लगे ॥ 22 ॥

तब अपनी सेनाको भागती हुई देखकर महाबली सिन्धुपुत्र जलन्धरको बड़ा क्रोध उत्पन्न हो गया ॥ 23 ॥

इसके बाद क्रोधसे आविष्ट मनवाला वह जलन्धर क्रोधसे वज्रकी ध्वनिके समान कठोर शब्द करके युद्धभूमिमें रुद्रको ललकारने लगा ll 24 ll

जलन्धर बोला- हे जटाधर! तुम आज मेरे साथ युद्ध करो, इन्हें मारनेसे क्या लाभ ! यदि तुम्हारे पास कुछ बल है, तो उसे दिखाओ ।। 25 ।।

सनत्कुमार बोले- ऐसा कहकर उस महादैत्य जलन्धरने सत्तर बाणोंसे अक्लिष्टकर्मा वृषभध्वज शिवजीपर प्रहार किया। महादेवजीने अपनेतक न पहुँचे हुए जलन्धरके उन बाणोंको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे शीघ्र ही हँसते-हँसते काट दिया और सात बाणोंसे उस जलन्धर दैत्यके घोड़े, पताका, छत्र और धनुषको काट गिराया। हे मुने! शंकरके लिये यह अद्भुत बात नहीं थी ॥ 26-28 ll

तब कटे हुए धनुषवाला तथा रथविहीन वह सिन्धुपुत्र दैत्य जलन्धर गदा लेकर क्रोधके साथ वेगशील होकर शिवजीकी ओर दौड़ा ॥ 29 ॥

हे पराशरपुत्र ! तब महान् लीला करनेवाले प्रभु महेश्वरने उसके द्वारा चलायी गयी गदाको शीघ्र ही सहसा दो टुकड़ोंमें कर दिया। फिर भी वह महादैत्य क्रोधमें भरकर अपनी मुष्टिका तानकर उन महादेवको मारनेकी इच्छासे बड़े वेगसे उनपर झपटा ।। 30-31 ।।

इतनेमें अक्लिष्ट कर्म करनेवाले ईश्वरने अपने बाणसमूहों से शीघ्र ही उस जलन्धरको एक कोस पीछे ढकेल दिया। तत्पश्चात् दैत्य जलन्धरने रुद्रकोअपनेसे अधिक बलवान् जानकर उनको मोहित करनेवाली अद्भुत गान्धर्वी मायाका निर्माण किया। उस समय उसकी मायाके प्रभावसे शंकरजीको मोहित करनेके लिये अप्सराओं एवं गन्धर्वोके अनेक गण प्रकट हो गये ।। 32-34 ॥

उसके बाद गन्धर्व तथा अप्सराओंके वे गण नाचने-गाने लगे तथा दूसरे ताल, वेणु और मृदंग बजाने लगे ॥ 35 ॥

उस महान् आश्चर्यको देखकर रुद्र अपने गणोंके साथ [उस रणभूमिमें] मोहित हो गये। उन्हें अपने हाथसे अस्त्रोंके गिरनेका भी ध्यान न रहा ॥ 36 ॥

इस प्रकार रुद्रको एकाग्रचित्त देखकर कामके वशीभूत वह दैत्य जलन्धर बड़ी शीघ्रतासे वहाँ पहुँचा, जहाँ गौरी विराजमान थीं। हे व्यास ! युद्धभूमिमें महाबली शुम्भ तथा निशुम्भको नियुक्तकर तथा स्वयं दस भुजा, पाँच मुख, तीन नेत्र तथा जटा धारणकर, महावृषभपर आरूढ़ हो वह जलन्धर अपनी आसुरी मायाके प्रभावसे सर्वथा शंकरके समान सुशोभित होने लगा । ll 37-39 ॥

शिवप्रिया पार्वती रुद्रको आते हुए देखकर सखियोंके मध्यसे उसके सामने आकर उपस्थित हो गयीं ॥ 40 ॥ उस दैत्यराजने ज्यों ही पार्वतीको देखा, उसी समय संयमरहित हो गया और उसके अंग जड़ हो गये ll 41 ॥ तदनन्तर वे गौरी उस दानवको पहचानकर भवसे व्याकुल हो वेगपूर्वक अन्तर्धान होकर उत्तरमानसकी ओर चली गयीं ॥ 42 ॥

तत्पश्चात् क्षणमात्रमें ही बिजलीकी लताके समान पार्वतीको न देखकर वह दैत्य पुनः युद्ध करनेके लिये बड़े वेगसे वहाँ पहुँच गया, जहाँ शिवजी थे ॥ 43 ll

तब पार्वतीने भी मनसे महाविष्णुका स्मरण किया और उन्होंने तत्क्षण अपने समीप उन विष्णुको बैठ हुआ देखा। तदनन्तर जगज्जननी शिवप्रिया पार्वती हाथ | जोड़कर प्रणाम करते हुए उन विष्णुको देखकर प्रसन्नचित्त हो उनसे कहने लगीं ॥। 44-45 llपार्वतीजी बोलीं- हे विष्णो! जलन्धर दैत्यने परम आश्चर्यजनक कार्य किया है, क्या आपको उस दुर्बुद्धिकी चेष्टा विदित नहीं है ? तब [ भगवान् ] गरुड़ध्वजने जगदम्बाका वह वचन सुनकर हाथ जोड़कर सिर झुकाकर शिवाको प्रणामकर कहा- ॥ 46-47 ।।

श्रीभगवान् बोले- हे देवि ! आपकी कृपासे मुझे वह वृत्तान्त ज्ञात है। हे माता! आप मुझे जो आज्ञा दें, उसे मैं आपके आदेशसे करनेके लिये तत्पर हूँ ॥ 48 ॥

सनत्कुमार बोले- विष्णुके इस वचनको | सुनकर जगन्माता पार्वती धर्मनीतिकी शिक्षा देती हुई हृषीकेशसे कहने लगीं- ॥ 49 ॥

पार्वतीजी बोलीं- उस दैत्यने ही ऐसा मार्ग प्रदर्शित किया है, अब उसीका अनुसरण आप भी कीजिये। मेरी आज्ञासे आप उसकी स्त्रीका पातिव्रत्य भंग कीजिये। हे लक्ष्मीपते! उसके बिना वह महादैत्य नहीं मारा जा सकता है; क्योंकि पातिव्रतधर्मके समान अन्य कोई भी धर्म पृथ्वीतलपर नहीं है ॥ 50-51 ॥ सनत्कुमार बोले- पार्वतीकी यह आज्ञा सुनकर विष्णुजी उसे शिरोधार्य करके छल करनेके लिये शीघ्र ही पुनः जलन्धरकी नगरीकी ओर चले ॥ 52 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य