श्रीराम बोले- देवि! प्राचीन कालमें एक समय परम स्रष्टा भगवान् शम्भुने अपने परम धाममें विश्वकर्माको बुलाकर उनके द्वारा अपनी गोशाला मेंहे हरे! भूतलपर जो आपके अवतार होंगे, वे सबके रक्षक और मेरे भक्त होंगे। मैं उनका दर्शन करूँगा। वे मेरे वरसे सदा प्रसन्न रहेंगे ॥ 29 ॥
श्रीरामजी बोले- इस प्रकार श्रीहरिको अपना अखण्ड ऐश्वर्य प्रदानकर उमापति भगवान् हर स्वयं कैलासपर्वतपर रहते हुए अपने पार्षदोंके साथ स्वच्छन्द क्रीड़ा करने लगे। तभीसे भगवान् लक्ष्मीपतिने गोपवेश धारण कर लिया और वे गोप-गोपी तथा गौओंके अधिपति होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ रहने लगे । 30-31 ।।
ये विष्णु भी प्रसन्नचित्त होकर समस्त जगत्की रक्षा करने लगे। वे शिवजीकी आज्ञासे नाना प्रकारके अवतार धारण करके जगत्का पालन करने लगे ॥ 32 ॥
इस समय वे श्रीहरि भगवान् शंकरकी आज्ञासे चार रूपोंमें अवतीर्ण हुए हैं। उनमें एक मैं राम हूँ और भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हैं ॥ 33 ॥
हे देवि ! हे सति! मैं पिताकी आज्ञासे सीता और लक्ष्मणके साथ वनमें आया हूँ और भाग्यवश इस समय मैं दुखी हूँ। यहाँ किसी निशाचरने मेरी पत्नीका हरण कर लिया है और मैं विरही होकर भाईके साथ वनमें अपनी प्रियाकी खोज कर रहा हूँ ।। 34-35 ।।
हे सति ! हे मातः ! जब आपका दर्शन प्राप्त हो गया, तब आपकी कृपासे सर्वथा मेरा कुशल ही होगा, | इसमें सन्देह नहीं है। हे देवि! आपका दर्शन मेरे लिये सीता-प्राप्तिका वरस्वरूप होगा, आपकी कृपासे उस दुःख देनेवाले पापी राक्षसको मारकर मैं सीताको प्राप्त कर लूँगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 36-37 ॥
आज मेरा महान् सौभाग्य है, जो आप दोनोंने मुझपर कृपा की। जिसपर आप दोनों दवाई हो जायें, वह पुरुष धन्य और श्रेष्ठ है ॥ 38 ॥
इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कल्याणमयी सती देवीको प्रणाम करके रघुकुलशिरोमणि श्रीराम उनकी आज्ञासे उस वनमें विचरने लगे। पवित्र हृदयवाले रामकी शिव भक्तिपरायण तथा शिवप्रशंसापरक बात सुनकर सती मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुईं ॥ 39-40 ।।
[ तदनन्तर] अपने कर्मको याद करके उनके मनमें | बड़ा शोक हुआ। उनकी अंगकान्ति फीकी पड़ गयी और वे उदास होकर शिवजीके पास लौट आयीं ॥ 41 ॥मार्ग जाती हुई देवी सती बारम्बार चिन्ता करने लगीं कि मैंने भगवान् शिवकी बात नहीं मानी और श्रीरामके प्रति कुत्सित बुद्धि कर ली। अब शंकरजीके पास जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगी, इस प्रकारके विचार करनेपर उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ । ll 42-43 ॥ शिवजीके पास जाकर उन सतीने उन्हें हृदयसे प्रणाम किया। उनके मुखपर विषाद छा गया। वे शोकसे व्याकुल और निस्तेज हो गयी थीं ॥ 44 ॥
सतीको दुखी देखकर भगवान् हरने उनका कुशल क्षेम पूछा और प्रेमपूर्वक कहा तुमने किस प्रकार | उनकी परीक्षा ली ? शिवजीकी यह बात सुनकर मैंने कोई परीक्षा नहीं ली-ऐसा कहकर वे सती सिर झुकाये शोकाकुल होकर उनके पास खड़ी हो गयीं ॥ 45-46 ।।
इसके बाद महायोगी तथा अनेकविध लीला करनेमें प्रवीण भगवान् महेश्वरने मनमें ध्यान लगाकर दक्षपुत्री सतीका सारा चरित्र जान लिया ॥ 47 ॥
उन्हें अपनी उस प्रतिज्ञाका स्मरण हो आया, जिसे हरिके विशेष आग्रह करनेपर मर्यादाप्रतिपालक उन रुद्रने विवाहके लिये देवताओंके द्वारा निवेदन किये जानेपर पूर्वमें किया था। उन महाप्रभुके मनमें विषाद उत्पन्न हो गया। तब धर्मवक्ता, धर्मकर्ता तथा धर्मरक्षक प्रभुने अपने मनमें कहा- ।। 48-49 ।। शिवजी बोले- यदि मैं सतीसे अब पूर्ववत् स्नेह करूँ, तो लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले मुझ शिवकी महान् प्रतिज्ञा ही नष्ट हो जायगी ॥ 50 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार मनमें अनेक तरहसे विचारकर वेद और धर्मके प्रतिपालक शंकरजीने हृदयसे सतीका त्याग कर दिया, किंतु अपनी प्रतिज्ञाको नष्ट नहीं किया। तत्पश्चात् परमेश्वर शिवजी मनसे सतीको त्यागकर अपने कैलासपर्वतकी ओर चल दिये। उन प्रभुने अपने निश्चयको किसीके सामने प्रकट नहीं किया ॥ 51-52 ॥
मार्गमें जाते हुए महेश्वरको अन्य सबको तथा विशेषकर सतीको सुनाते हुए आकाशवाणी हुई ॥ 53 ॥
आकाशवाणी बोली- हे परमेश्वर! आप धन्य हैं, इस त्रिलोकीमें आपके समान कोई भी नहीं है, जिसने आजतक ऐसी प्रतिज्ञा की हो, आप महायोगी तथा महाप्रभु हैं ॥ 54 ॥ब्रह्माजी बोले- यह आकाशवाणी सुनकर कान्ति हीन देवी सतीने शिवसे पूछा- हे नाथ! आपने कौन. सी प्रतिज्ञा की है ? हे परमेश्वर ! मुझे बताइये ॥ 55 ॥
सतीके इस प्रकार पूछने पर भी सबका हित करनेवाले | प्रभुने पहले अपने विवाहके विषयमें भगवान् विष्णुके सामने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे नहीं बताया ॥ 56 ॥
हेमुने! उस समय सती अपने प्राणवल्लभ पति भगवान् शिवका ध्यान करके प्रियतमके द्वारा अपने त्याग सम्बन्धी समस्त कारणको जान गयीं ॥ 57 ॥
शम्भुने मेरा त्याग किया है इस बातको जानकर दक्षकन्या सती बार-बार श्वास भरती हुईं शीघ्र ही अत्यन्त शोकमें डूब गयीं, बारम्बार सिसकने लगीं ॥ 58 ॥
सतीके मनोभावको जानकर प्रभु शिवने उनके लिये जो प्रतिज्ञा की थी, उसे गुप्त ही रखा और वे दूसरी बहुत-सी कथाएँ कहने लगे ॥ 59 ॥
इस प्रकार नाना प्रकारकी कथाएँ कहते हुए वे सतीके साथ कैलासपर जा पहुँचे और श्रेष्ठ आसनपर स्थित हो समाधि लगाकर अपने स्वरूपका ध्यान करने लगे। सती अत्यन्त व्याकुलचित्त होकर अपने धाममें रहने लगीं। हे मुने शिवा और शिवके उस चरित्रको किसीने नहीं जाना। हे महामुने! इस प्रकार स्वेच्छासे शरीर धारण करके लोकलीलाका अनुसरण करनेवाले उन दोनों प्रभुओंका बहुत काल व्यतीत हो गया ॥ 60-62 ॥
तत्पश्चात् उत्तम लीला करनेवाले महादेवजीने ध्यान तोड़ा - यह जानकर जगदम्बा सती वहाँ आय और उन्होंने व्यथित हृदयसे शिवको प्रणाम किया। उदार चित्तवाले शम्भुने उन्हें अपने सामने [बैठने के [लिये] आसन दिया और वे बड़े प्रेमसे बहुत-सी मनोरम कथाएँ कहने लगे। उन्होंने वैसी ही लीला करके सतीके | शोकको तत्काल दूर कर दिया ।। 63-65 ॥
वे पूर्ववत् सुखी हो गयीं, फिर भी शिवजीने अपनी प्रतिज्ञाको नहीं तोड़ा। हे तात! परमेश्वर शिवजीके विषयमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये। हेमुने! मुनि लोग शिव और शिवाकी ऐसी हो कथा कहते हैं। कुछ मूर्ख लोग उन दोनोंमें वियोगमा हैं, परंतु उनमें वियोग कैसे सम्भव है ! ।। 66-67 ॥शिवा और शिवके वास्तविक चरित्रको कौन जान सकता है? वे दोनों सदा अपनी इच्छासे क्रीड़ा करते और [ भाँति-भाँतिकी] लीलाएँ करते हैं। सती और शिव वाणी और अर्थकी भाँति एक-दूसरेसे नित्य संयुक्त हैं। उन दोनोंमें वियोग होना असम्भव है, उनकी इच्छासे ही लीलामें वियोग हो सकता है ॥ 68-69 ।। सतीखण्डे सतीवियोगो नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ 25 ॥