सुब्रह्मण्य बोले- इसके पश्चात् मध्याह्नकालमें स्नान करके समाहितचित्त होकर गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि पूजन सामग्रियोंको एकत्रित करे ॥ 1 ॥ नैर्ऋत्यकोणमें देवपूजित विघ्नेश्वर देवकी पूजा करे। पहले 'गणानां त्वा0'- इस मन्त्रद्वारा विधि विधानसे उनका आवाहन करे रक्तवर्णवाले, विशालकाय, सभी आभरणोंसे विभूषित और अपने करकमलों में पाश- अंकुश अक्षमाला तथा अभीष्ट (वर) मुद्रा धारण किये हुए शम्भुपुत्र गजाननका इस प्रकार आवाहन तथा ध्यान करके खीर, मालपूआ, नारियल, गुड़ आदिसे पूजन करके उत्तम नैवेद्य अर्पण करे और इसके बाद ताम्बूल दे। इस प्रकार उन्हें प्रसन्न करके नमस्कारकर निर्विघ्नताहेतु प्रार्थना करे ॥ 2-5 ॥
तत्पश्चात् अपने गृह्यसूत्र के अनुसार औपासन अग्निमें आज्यभागान्त हवन करे और इसके बाद अग्निसम्बन्धी मखतन्त्र आरम्भ करे। 'भूः स्वाहा' आदि तीनों व्याहृतियोंसे पूर्णाहुति प्रदानकर हवनकी क्रिया सम्पन्न करके आलस्यरहित होकर अपराह्नकालतक गायत्रीमन्त्रका जप करे ॥ 6-7 ॥
इसके पश्चात् स्नान करके सायंकालकी सन्ध्या | तथा सायंकालिक होम करनेके पश्चात् मौन हो गुरुसे आज्ञा माँगे ॥ 8 ॥
तदुपरान्त चरुको पकाकर अग्निमें समिधा अन्न तथा घीके द्वारा रुद्रसूक्त तथा सद्योजात आदि पाँच ब्रह्ममन्त्रोंसे हवन करे तथा अग्निमें अम्बासहित महादेवकी भावना करे। पुनः गौरीका स्मरण करते हुए 'गौरीर्मिमाय' मन्त्रसे हवन करनेके अनन्तर अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा' इस मन्त्रसे एक बार फिर आहुति प्रदान करे। इस प्रकार निर्दिष्ट विधिसे हवनके पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष अग्निके उत्तरकी ओर कुशा, मृगचर्म तथा वस्त्रसे समन्वित आसनपर बैठकर मौन हो स्थिर चित्तसे ब्राह्ममुहूर्तपर्यन्त गायत्रीका जप करे ।। 9-12 ॥तदनन्तर स्नान करके अथवा यदि [जलसे स्नान करनेमें] असमर्थ हो तो विधिपूर्वक भस्मस्नान करके उसी अग्निमें चरु पकाकर घृतसे सिक्त करे और उसे निकालकर उत्तरदिशाकी ओर कुशापर रखे और चरुमें घी मिलाकर शिवजीके चरणकमलमें ध्यान लगाकर व्याहृति, रुद्रसूक्त तथा ईशानादि पंच ब्रह्ममन्त्रोंका जप करे। इसके बाद प्रजापति, इन्द्र, विश्वेदेव तथा ब्रह्माके चतुर्थ्यन्त नामोंके आगे प्रणव तथा अन्तमें स्वाहा लगाकर जप करके पुनः पुण्याहवाचन करनेके अनन्तर 'अग्नये स्वाहा' कहकर अग्निके मुखमें आहुति देनेतकका कार्य करे। तदनन्तर 'प्राणाय स्वाहा' आदि पाँच मन्त्रोंसे घृतयुक्त चरुसे आहुतियाँ देकर 'अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा'-ऐसा कहकर हवन करे। इसके बाद फिरसे रुद्रसूक्त एवं ईशानादि पंच ब्रह्ममन्त्रोंका जप करे ॥ 13-18 ॥
इसके बाद महेशादि (ईशानादि) चतुर्व्यूहके मन्त्रोंका जपकर बुद्धिमान् पुरुष अपनी शाखाके अनुसार उन उन देवगणोंको उद्देश्यकर सांग होम करे। इस तरह जो अग्निमुखादि कर्मतन्त्र प्रवृत्त किया गया है, उसका निर्वाह करे ।। 19-20 ।।
तत्पश्चात् छब्बीस तत्त्वोंसे बने हुए इस शरीरमें अवस्थित तत्त्वोंकी शुद्धिके लिये विरजा होम करे। मनमें भावना करे कि 'मेरे शरीरमें विराजमान ये सभी तत्त्व शुद्ध हो जायँ; हे मुने! उस प्रसंगमें आत्मशुद्धिके निमित्त आरुणकेतुक मन्त्रोंसे पृथ्वीतत्त्वसे लेकर पुरुषतत्त्वपर्यन्त क्रमशः सभी तत्त्वोंकी शुद्धिके लिये मौन धारणकर शिवके चरणकमलका स्मरण करते हुए घृत तथा चरुसे हवन करे । ll 21 - 23 ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पृथिव्यादिपंचक कहलाते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये शब्दादि पंचक हैं। वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ-ये वागादिपंचक हैं। श्रोत्र, नेत्र, नासिका, रसना और त्वक्-ये श्रोत्रादिपंचक हैं। शिर, पार्श्व, पृष्ठ और उदर-ये चार हैं। इन्हीं में जंघाको भी जोड़ ले। फिर त्वक् आदि सात धातुएँ हैं। प्राण, अपान आदि पाँच वायुओंको प्राणादिपंचक | कहा गया है। अन्नमयादि पाँचों कोशोंको कोशपंचककहते हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय।) इनके सिवा मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, ख्याति, संकल्प, गुण, प्रकृति और पुरुष हैं। भोक्तापनको प्राप्त हुए पुरुषके लिये भोग- कालमें जो पाँच अन्तरंग साधन हैं, उन्हें तत्त्वपंचक कहा गया है। उनके नाम ये हैं-नियति, काल, राग, विद्या और कला। ये पाँचों मायासे उत्पन्न हैं । ll 24-28 ।।
श्रुतिमें प्रकृतिको ही माया कहा गया है तथा उसी मायासे इन तत्त्वोंकी उत्पत्ति भी श्रुतिमें कही गयी है; इसमें संशय नहीं है ।। 29 ।।
कालका स्वभाव ही नियति है-ऐसा श्रुतिने कहा है। इन्हीं [ नियति आदि] पाँचोंके समूहको पंचकंचुक भी कहा जाता है। इन पाँच तत्त्वोंको बिना जाने विद्वान् भी मूर्ख ही होता है। प्रकृतिके नीचे नियति और ऊपर पुरुष है ॥ 30-31 ll
काकाक्षिगोलकन्यायका आश्रय लेकर पुरुष नियति एवं प्रकृति दोनोंके पार्श्वमें रहता है, इसीको विद्यातत्त्व कहा गया है। शुद्ध विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव यही पंचक या तत्त्वसमुदाय [समष्टिरूपमें] शिवतत्त्व कहा गया है। हे ब्रह्मन् ! 'प्रज्ञानं ब्रह्म' इस वाक्यसे यह शिवतत्त्व ही जाना जाता है ।। 32-33 ॥
हे मुनीश्वर ! पृथ्वीसे लेकर शिवपर्यन्त जो तत्त्वसमूह हैं, उसमेंसे प्रत्येकको क्रमशः अपने- अपने कारणमें लीन करते हुए उसकी शुद्धि करना चाहिये । 1. पृथिव्यादिपंचक, 2. शब्दादिपंचक, 3. वागादिपंचक, 4. श्रोत्रादिपंचक, 5. शिरादिपंचक, 6. त्वगादिधातुसप्तक, 7. प्राणादिपंचक, 8. अन्नमयादिकोश- पंचक, 9. मन आदि पुरुषान्त तत्त्व, 10. नियत्यादि तत्त्वपंचक (अथवा पंचकंचुक) और 11. शिवतत्त्व- पंचक ये ग्यारह वर्ग हैं; इन एकादश- वर्गसम्बन्धी मन्त्रोंके अन्तमें 'परस्मै शिवज्योतिषे इदं न मम' इस वाक्यका उच्चारण करे*। इसके द्वारा अपने उद्देश्यका त्याग बताया गया है। इसके बाद विविद्या' तथा'कर्षोत्क' सम्बन्धी मन्त्रोंके अन्तमें अर्थात् 'विविद्यायै स्वाहा', 'कर्षोत्काय स्वाहा' इनके अन्तमें स्वत्वत्यागके लिये 'व्यापकाय परमात्मने शिवज्योतिषे विश्वभूतघसनोत्सुकाय परस्मै देवाय इदं न मम' इसका उच्चारण करे ।। 34-38 ॥
इसके अनन्तर 'उत्तिष्ठस्व विश्वरूपाय पुरुषाय ॐ स्वाहा'- इस प्रकार उच्चारणकर आहुति प्रदान करे ।। 39 ।।
तदनन्तर 'त्रैलोक्यव्यापिने परमात्मने शिवाय इदं न मम' - ऐसा कहे और पुनः अपनी शाखाके अनुसार पहले तन्त्रकर्म समाप्तकर घृतयुक्त चरुका प्राशन कराके अपने पुरोहितको सुवर्णादिसे युक्त दक्षिणा प्रदान करे। पुनः ब्रह्माको विसर्जित करके प्रातः काल होनेपर औपासनिक हवन करे ।। 40-42 ॥
तत्पश्चात् साधक 'सं मा सिञ्चन्तु मरुतः ' इस मन्त्रका जप करे और 'या ते अग्ने'- इस मन्त्रके द्वारा | हाथको अग्निमें तपाकर अद्वैत धामस्वरूप अपनी आत्मामें अग्निको आरोपित करे। इसके पश्चात् प्रभातकालीन सन्ध्योपासन तथा सूर्योपस्थान करके नाभिमात्र जलमें प्रविष्ट हो स्थिरचित्त तथा श्रद्धायुक्त होकर प्रेमपूर्वक | सूर्यके मन्त्रोंका जप करे ।। 43-45 ।।
यदि अग्निहोत्रीको विरजा होम करना हो तो वह स्थापित अग्निमें प्राजापत्येष्टि करे, फिर अच्छी प्रकार श्रौताग्निमें हवनकर दक्षिणाके सहित समस्त वेदोंका दान करे ॥ 46 ॥
तदनन्तर अपनी आत्मामें अग्निको धारणकर | साधक घरसे निकल जाय। इसके बाद गायत्रीके प्रथम पादका उच्चारण करके 'सावित्रीं प्रवेशयामि' ऐसा कहकर 'भूरोम्' यह बोले इसके बाद दूसरे पादका उच्चारण करके 'सावित्रीं प्रवेशयामि' कहकर 'भुवरोम् ' - ऐसा कहे। इसके अनन्तर तीसरे पादका उच्चारण करके 'सावित्रीं प्रवेशयामि' शब्दके अन्तमें 'सुवरोम् ' - ऐसा कहे। हे मुनीश्वर ! इसके बाद निश्चल मनवाला होकर प्रेमपूर्वक तीनों पादोंका एक साथ उच्चारण करे और बादमें 'सावित्रीं प्रवेशयामि' कहकर 'भूर्भुवस्सुवरोम् ' का उच्चारण करे ।। 47-51 ॥ये भगवती सावित्री साक्षात् शंकरकी अर्धांगिनी हैं, पाँच मुख- दस भुजाएँ तथा पंद्रह नेत्रोंसे समन्वित हैं, इनके शरीरका वर्ण अत्यन्त उज्ज्वल है, नवरत्नसे जटित इनका किरीट मस्तकपर चन्द्रमाकी लेखासे सुशोभित हो रहा है, शुद्ध स्फटिकके समान इनके शरीरकी कान्ति है, मंगलमयी ये हाथोंमें दस आयुध धारण की हुई हैं, इनके अंगोंमें हार केयूर किंकिणी तथा नूपुर आदि आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, ये दिव्य वस्त्र तथा रत्नोंके आभूषणोंसे मण्डित है । ll 52-54॥
ये शिवा सर्वव्यापिनी हैं एवं विष्णु, ब्रह्मा देवता, ऋषि, गन्धर्व, दानव एवं मनुष्योंसे सर्वदा सेवनीय हैं, ये सदाशिवकी मनोहर धर्मपत्नी हैं, जगदम्बा हैं, तीनों लोकोंको उत्पन्न करनेवाली हैं, त्रिगुणात्मिका, निर्गुणा एवं अजा हैं ।। 55-56 ll
इस प्रकारका विचार करके बुद्धिमान् पुरुषको गायत्रीका जप करना चाहिये; क्योंकि ये आदिदेवी हैं, त्रिपदा हैं, ब्राह्मणत्व आदि प्रदान करनेवाली एवं अजा हैं जो पापी शास्त्रीयविधिका अतिक्रमणकर शिवरूपा गायत्रीका जप करते हैं, वे कल्पपर्यन्त नरकमें यातना प्राप्त करते हैं ।। 57-58 ।।
व्याहृतियोंसे ही गायत्री उत्पन्न हुई हैं और उन्होंमें लीन हो जाती हैं और व्याहृतियाँ प्रणवसे उत्पन्न होकर उसीमें लीन होती हैं ॥ 59 ॥
सम्पूर्ण वेदोंका आदि प्रणव ही है तथा शिवका वाचक भी प्रणव ही है। यह श्रेष्ठ मन्त्र मन्त्रोंका राजाधिराज तथा महाबीजस्वरूप है 60 ॥ प्रणव ही शिव और शिव ही प्रणव कहे गये हैं: क्योंकि वाचक और वाच्यमें कुछ भी भेद नहीं है ॥ 61 ॥ काशीमें मृत्यु प्राप्त करते समय शिवजी प्राणियोंको इसी मन्त्रका उपदेश देकर मुक्त करते हैं। इसीलिये एकाक्षर स्वरूप, दिव्य, मंगलमय तथा परमकारणरूप इस मन्त्रकी यतिश्रेष्ठ हृदयकमलमें उपासना करते हैं । ll 62-63 ॥
अन्य मुमुक्षु धीर, विरक्त तथा लौकिक पुरुष भी इन विषयोंको अच्छी तरह जानकर परमकल्याणमय प्रणवकी उपासना करते हैं ॥ 64 ॥इस प्रकार गायत्रीको शिववाचक प्रणवमें लीन करनेके पश्चात् 'अहं वृक्षस्य रेरिवा" - इस अनुवाकका जप करना चाहिये ॥ 65 ॥
तत्पश्चात् ‘यश्छन्दसामृषभ:' ( तैत्तिरीय0 1।4। 1) — इस अनुवाकको आरम्भसे लेकर "श्रुतं मे गोपायर तक पढ़कर कहे- 'दारैषणायाश्च वित्तै षणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थितोऽहम्' अर्थात् 'मैं स्त्रीकी कामना, धनकी कामना और लोकोंमें ख्यातिकी कामनासे ऊपर उठ गया हूँ।' मुने! इस वाक्यका मन्द, मध्यम और उच्चस्वरसे क्रमश: तीन बार उच्चारण करे। तत्पश्चात् सृष्टि, स्थिति और लयके क्रमसे पहले प्रणवमन्त्रका उद्धार करे, फिर क्रमशः इन वाक्योंका उच्चारण करे- 'ॐ भूः संन्यस्तं मया', 'ॐ भुवः संन्यस्तं मया', 'ॐ सुवः संन्यस्तं मया', 'ॐ भूर्भुवः सुवः संन्यस्तं मया इन वाक्योंका मन्द, मध्यम और उच्चस्वरसे हृदयमें | सदाशिवका ध्यान करते हुए सावधान चित्तसे उच्चारण करे। तदनन्तर 'अभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा' (मेरी ओरसे सब प्राणियोंको अभयदान दिया गया) - ऐसा कहते हुए पूर्व दिशामें एक अंजलि जल लेकर छोड़े। इसके बाद शिखाके शेष बालोंको हाथसे उखाड़ डाले और यज्ञोपवीतको निकालकर जलके साथ हाथमें ले इस प्रकार कहे- 'ॐ भूः समुद्रं गच्छ स्वाहा' यों कहकर उसका जलमें होम कर दे। फिर 'ॐ भूः संन्यस्तं मया', 'ॐ भुवः संन्यस्तं मया', 'ॐ सुवः संन्यस्तं मया' - इस प्रकार तीन बार कहकर तीन बार जलको अभिमन्त्रित करके उसकाआचमन करे। फिर जलाशयके किनारे आकर वस्त्र और कटिसूत्रको भूमिपर त्याग दे तथा उत्तर या पूर्वकी ओर मुँह करके सात पदसे कुछ अधिक चले । कुछ दूर जानेपर आचार्य उससे कहे, 'ठहरो, ठहरो भगवन्! लोक व्यवहारके लिये कौपीन और दण्ड स्वीकार करो।' यों कह आचार्य अपने हाथसे ही उसे कटिसूत्र और कौपीन देकर गेरुआ वस्त्र भी अर्पित करे। तत्पश्चात् संन्यासी जब उससे अपने शरीरको ढककर दो बार आचमन कर ले तब आचार्य शिष्यसे कहे- 'इन्द्रस्य वज्रोऽसि' यह मन्त्र बोलकर दण्ड ग्रहण करो। तब वह इस मन्त्रको पढ़े और 'सखा मा गोपायौजः सखा योऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि वार्त्रघ्नः शर्म मे भव यत्पापं तन्निवारय ' * - इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए दण्डकी प्रार्थना करके उसे हाथमें ले। (तत्पश्चात् प्रणव या गायत्रीका उच्चारण करके कमण्डलु ग्रहण करे।) तदनन्तर भगवान् शिवके चरणारविन्दका चिन्तन करते हुए गुरुके निकट जा वह तीन बार पृथ्वीमें लोटकर दण्डवत् प्रणाम करे। उस समय वह अपने मनको पूर्णतया संयममें रखे। फिर धीरेसे उठकर प्रेमपूर्वक अपने गुरुकी ओर देखते हुए हाथ जोड़ उनके चरणोंके समीप खड़ा हो जाय। संन्यास दीक्षा विषयक कर्म आरम्भ होनेके पहले ही शुद्ध गोबर लेकर आँवले बराबर उसके गोले बना ले और सूर्यकी किरणोंसे ही उन्हें सुखाये। फिर होम आरम्भ होनेपर उन गोलोंको होमाग्निके बीचमें डाल दे। होम समाप्त होनेपर उन सबको संग्रह करके सुरक्षित रखे। तदनन्तर दण्डधारणके पश्चात् गुरु विरजाग्निजनित उस श्वेत भस्मको लेकर उसीको शिष्यके अंगोंमें लगाये अथवा उसे लगानेकी आज्ञा दे। उसका क्रम इस प्रकार है - ॐ अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म सर्वह वा इदं भस्म मन एतानि चक्षूषि' इस मन्त्रसे भस्मको अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर ईशानादि पाँचमन्त्रोंद्वारा उस भस्मका शिष्यके अंगोंसे स्पर्श कराकर उसे मस्तकसे लेकर पैरोंतक सर्वागमें लगानेके लिये दे दे। शिष्य उस भस्मको विधिपूर्वक हाथमें लेकर 'त्र्यायुषम् 01' तथा 'त्र्यम्बकम्0 2' इन दोनों मन्त्रोंको तीन-तीन बार पढ़ते हुए ललाट आदि अंगोंमें क्रमशः त्रिपुण्डु धारण करे ।। 66 - 85 ॥
इसके पश्चात् अत्यन्त भक्तिभावसे समन्वित हो | उत्तम शिष्य अपने हृदयकमलमें विराजमान उमासहित शिवजीका ध्यान करे ॥ 86 ॥
गुरु प्रसन्नतापूर्वक शिष्यके सिरपर हाथ रखकर दाहिने कानमें तीन बार ऋषि, छन्द, देवतासहित प्रणवमन्त्रका उपदेश करे। इसके बाद श्रेष्ठ गुरु शिष्यपर करुणा करके छः प्रकारके अर्थोंसे युक्त प्रणवके तात्पर्यको भी समझाये ॥ 87-88 ॥ शिष्य भी पृथ्वीपर दण्डवत् गिरकर बारह बार गुरुको प्रणाम करे और सदा गुरुके अधीन रहे तथा
[उनकी आज्ञाके बिना ] अन्य कर्म न करे ॥ 89 ॥ गुरुकी आज्ञासे शिष्य सर्वदा वेदान्तके अर्थके अनुसार सगुण एवं निर्गुण भेदसे शिवज्ञानमें तत्पर रहे। गुरु सर्वदा श्रवण, मनन, निदिध्यासन, प्रातः कालिक अनुष्ठान तथा अन्तमें जपादि कार्य उस शिष्यसे कराता रहे । ll 90-91 ॥
शिष्य भी कैलासप्रस्तर नामक मण्डलमें शिवजीद्वारा कही गयी विधिके अनुसार शिवपूजन करता रहे ।। 92 ।।
यदि शिष्य गुरुके आज्ञानुसार मण्डलमें शिवजीका सदा पूजन करनेमें असमर्थ हो, तो गुरुसे शिवका पीठयुक्त स्फटिक लिंग ग्रहणकर उसीकी पूजा करे । चाहे मेरे प्राण चले जायँ अथवा भले ही सिर कटा लेना पड़े, किंतु भलीभाँति भगवान् त्र्यम्बकका अर्चन किये बिना कभी भी भोजन नहीं करूँगा, इस प्रकार | शिवभक्ति रखते हुए वह शिष्य गुरुके समीप दृढ़चित्त होकर तीन बार उच्चारण करके शपथ ग्रहण करे।इसके बाद शिवभक्तिमें तत्पर मनवाला वह पंचावरण मार्गसे परम भक्तिके साथ नित्य महादेवका पूजन करे ।। 93-96 ॥