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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 6, अध्याय 5 - Sanhita 6, Adhyaya 5

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संन्यासदीक्षा हेतु मण्डलनिर्माणकी विधि

ईश्वर बोले- भूमिके गन्ध, वर्ण, रस आदिकी भलीभाँति परीक्षाकर यहाँ अपने मनके अनुकूल स्थानपर वस्त्रका विशाल चंदोवा लगाकर दर्पणतलके तुल्य [सम तथा स्निग्ध] पृथ्वीतलपर दो हाथ प्रमाणके चौकोर मण्डलका निर्माण करे ॥ 1-2 ॥

ताड़का पत्ता लेकर उसीके समान लम्बे एवं चीड़े स्थानमें बराबर तेरह भाग करे। उस ताड़पत्रको वहीं रखकर पश्चिमकी ओर मुख करके बैठे और रँगा हुआ सुदृढ़ धागा लेकर उसे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण- चारों दिशाओंमें लपेटे हे देवदेवेशि इस प्रकार करनेसे उस मण्डलके एक सौ उनहत्तर कोष्ठक हो जायेंगे। उसके मध्यका कोष्टक कर्णिका है, उसके बाहरके आठ कोष्ठक आठ दल कहे जाते हैं । ll 3-6 ॥

सभी दलोंको श्वेत वर्णका बनाये। कर्णिकाको पीले रंगसे रंगना चाहिये और उसके चारों ओर लाल रंगका वृत बनाकर हे सुरेश्वरि [उस अष्टदल ] कमलके दलोंके दाहिनी ओरसे आरम्भ करके दलोंके सन्धिस्थानको क्रमसे लाल तथा काले रंगसे रँगना चाहिये ।। 7-8 ।।

कर्णिकामै प्रणवार्थको प्रकाशित करनेवाला यन्त्र लिखे पुनः नीचेकी ओर पीठ और उसके ऊपर श्रीकण्ठ लिखकर उसके ऊपर अमरेश, मध्यमें महाकाल और महाकालके मस्तकके समीप दण्ड लिखकर फिर ईश्वरको लिखे। श्याम रंगसे पीठ और पीत रंगसे श्रीकण्ठको चित्रित करे। अमरेश और | महाकालको क्रमशः लाल तथा काले रंगसे चित्रित करे बुद्धिमान्‌को चाहिये कि दण्डको धूमवर्ण तथा ईश्वरको धवलवर्णका बनाये। इस प्रकार रंग भरकर बनाये गये यन्त्रको सद्योजात मन्त्रसे वेष्टित कर दे ॥ 9-12 ॥

हे ईश्वरि उस मन्त्रसे उठे हुए नादसे ईशानका भेदन करे और आग्नेय आदिके क्रमसे उनकी बाह्य पंक्तियोंको ग्रहण करे ॥ 13 ॥हे सुन्दरि । उन कोणोंके चार कोष्ठकों को श्वेत तथा लाल धातुओंसे रँगकर चार द्वारोंकी परिकल्पना करे। उनके बगलके दोनों कोष्ठकोंको पीले रंगसे परिपूर्ण करना चाहिये ॥ 14-15 ॥

● आग्नेय कोणके कोष्ठके मध्यभागमें पीतवर्णवाले चौकोर स्थानमें लालरंगके अष्टदल कमलका निर्माण करना चाहिये और उसकी कर्णिकाको पीले रंगसे रँगना चाहिये ॥ 16 ॥

तत्पश्चात् सावधान होकर उसके मध्यमें बिन्दुयुक्त हकार लिखे। उस कमलके नैर्ऋत्यकोणवाले कोष्ठक में चौकोर [वृत्तवाला] रक्तवर्णका अष्टदल कमल बनाये और उसकी कर्णिकाओंमें पीला रंग भर दे। उसमें शवर्गके तीसरे अक्षर 'स' को छठे स्वर 'ऊ' से युक्त करके 'सू' लिखे ॥ 17-18 ।।

हे भद्रे ! बिन्दु- नादसे युक्त चौदहवाँ स्वर 'औं' इस श्रेष्ठ बीजमन्त्रको पद्मके मध्यमें लिखे ॥ 19 ॥

इसी प्रकार पद्मके ईशानकोणवाले कोष्ठकमें भी रक्तवर्णका वैसा ही कमल बनाये और उसमें कवर्गके तीसरे अक्षर 'ग' को पंचम स्वरसे युक्त करके 'गु' लिखे। उस वर्णके कण्ठभागमें बिन्दु लिखे। हे पार्वति ! हे शिवे ! इसकी बाहरवाली तीन पंक्तियोंमें पूर्वादि दिशाके क्रमसे चारों ओरके पाँच कोष्ठ ग्रहण करे और उसके मध्यमें कर्णिकाको पीला करे एवं वृत्तको रक्तवर्णका कर दे ॥ 20-22 ॥

इसकी विधि जाननेवालेको चाहिये कि कमल दलोंको लाल बनाये और दलोंके बाहरवाले छिद्रोंको काले रंगसे भर दे । आग्नेय आदि चारों कोनोंको सफेद रंगसे परिपूर्ण करे। पूर्वकी ओर छः बिन्दुसे युक्त षट्कोणको काले रंगसे लिखे ll23-24 ॥

दक्षिण कोष्ठक में रक्तवर्ण त्रिकोण, उत्तरकोष्ठकमें श्वेताभ अर्धचन्द्र, पश्चिम कोष्ठकमें पीतवर्ण चतुरस्र अंकित करके क्रमशः चार बीज लिखे। पूर्वकोष्ठकमें शुक्लवर्ण बिन्दु दक्षिणकोष्ठकमें कृष्णवर्ण उकार, उत्तरकोष्ठकमें रक्तवर्ण मकार और पश्चिम कोष्ठकमें पीतवर्ण अकार लिखे हे सुन्दरि सबसे ऊपरकी पंक्तिसे नीचेवाली पंक्ति में पीला, श्वेत, लाल और काला - ये चारों रंग भरे ॥ 25-28 ॥उसके नीचे श्वेत, श्याम, पीत एवं रक्त रंगसे रँगे। हे वरानने! नीचेके त्रिकोणमें लाल, सफेद और पीला रंग भरे । हे ईश्वरि ! इस प्रकार दक्षिणसे प्रारम्भकर उत्तर दिशातक चित्रण करे। उसकी बाहरी पंक्तिमें पूर्वसे मध्यभागतक पीला, लाल, काला, श्याम, श्वेत, पीतवर्ण चित्रित करे। हे प्रिये ! रक्त, श्याम, श्वेत, लाल, कृष्ण, लाल- - ये छ: रंग कहे गये हैं। आग्नेयकोणसे आरम्भकर [वायुकोणपर्यन्त ] इन रंगोंका क्रमशः प्रयोग करे। हे महेशानि! दक्षिणसे लेकर पूर्वपर्यन्त ये सब बताये गये हैं । हे ईश्वरि ! वैसे ही नैर्ऋत्यदिशासे लेकर आग्नेयदिशापर्यन्त जानना चाहिये, उसी रीतिसे पश्चिमदिशासे लेकर दक्षिणदिशा पर्यन्त भी कहा गया है। हे महादेवि ! वायव्यसे लेकर नैर्ऋत्यदिशातक यह क्रम कह दिया। इसी प्रकार परमेशानि! पूर्वसे लेकर पश्चिम दिशातक कहा गया। हे अम्बिके! उत्तरसे लेकर वायव्यतक यह क्रम जानना चाहिये। हे पार्वति ! इस प्रकार मैंने मण्डलकी विधि आपसे कह दी। जितेन्द्रिय यतिको चाहिये कि स्वयं इस प्रकार मण्डल लिखकर ब्रह्ममें तत्पर हो सौरपूजा करे ॥ 29 - 36 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पुत्रप्राप्तिके लिये कैलासपर गये हुए श्रीकृष्णका उपमन्युसे संवाद
  2. [अध्याय 2] श्रीकृष्णके प्रति उपमन्युका शिवभक्तिका उपदेश
  3. [अध्याय 3] श्रीकृष्णकी तपस्या तथा शिव पार्वतीसे वरदानकी प्राप्ति, अन्य शिवभक्तोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] शिवकी मायाका प्रभाव
  5. [अध्याय 5] महापातकोंका वर्णन
  6. [अध्याय 6] पापभेदनिरूपण
  7. [अध्याय 7] यमलोकका मार्ग एवं यमदूतोंके स्वरूपका वर्णन
  8. [अध्याय 8] नरक - भेद-निरूपण
  9. [अध्याय 9] नरककी यातनाओंका वर्णन
  10. [अध्याय 10] नरकविशेषमें दुःखवर्ण
  11. [अध्याय 11] दानके प्रभावसे यमपुरके दुःखका अभाव तथा अन्नदानका विशेष माहात्यवर्णन
  12. [अध्याय 12] जलदान, सत्यभाषण और तपकी महिमा
  13. [अध्याय 13] पुराणमाहात्म्यनिरूपण
  14. [अध्याय 14] दानमाहात्म्य तथा दानके भेदका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ब्रह्माण्डदानकी महिमाके प्रसंगमें पाताललोकका निरूपण
  16. [अध्याय 16] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाले नरकोंका वर्णन और शिव नाम स्मरणकी महिमा
  17. [अध्याय 17] ब्रह्माण्डके वर्णन प्रसंगमें जम्बुद्वीपका निरूपण
  18. [अध्याय 18] भारतवर्ष तथा प्लक्ष आदि छः द्वीपोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] सूर्यादि ग्रहों की स्थितिका निरूपण करके जन आदि लोकोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तपस्यासे शिवलोककी प्राप्ति, सात्त्विक आदि तपस्याके भेद, मानवजन्मकी प्रशस्तिका कथन
  21. [अध्याय 21] कर्मानुसार जन्मका वर्णनकर क्षत्रियके लिये संग्रामके फलका निरूपण
  22. [अध्याय 22] देहकी उत्पत्तिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शरीरकी अपवित्रता तथा उसके बालादि अवस्थाओंमें प्राप्त होनेवाले दुःखोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] नारदके प्रति पंचचूडा अप्सराके द्वारा स्त्रीके स्वभाव का वर्णन
  25. [अध्याय 25] मृत्युकाल निकट आनेके लक्षण
  26. [अध्याय 26] योगियोंद्वारा कालकी गतिको टालनेका वर्णन
  27. [अध्याय 27] अमरत्व प्राप्त करनेकी चार यौगिक साधनाएँ
  28. [अध्याय 28] छायापुरुषके दर्शनका वर्णन
  29. [अध्याय 29] ब्रह्माकी आदिसृष्टिका वर्णन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्माद्वारा स्वायम्भुव मनु आदिकी सृष्टिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] दैत्य, गन्धर्व, सर्प एवं राक्षसोंकी सृष्टिका वर्णन तथा दक्षद्वारा नारदके शाप- वृत्तान्तका कथन
  32. [अध्याय 32] कश्यपकी पलियोंकी सन्तानोंके नामका वर्णन
  33. [अध्याय 33] मरुतोंकी उत्पत्ति, भूतसर्गका कथन तथा उनके राजाओंका निर्धारण
  34. [अध्याय 34] चतुर्दश मन्वन्तरोंका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विवस्वान् एवं संज्ञाका वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अश्विनीकुमारों की उत्पत्तिका वर्णन
  36. [अध्याय 36] वैवस्वतमनुके नौ पुत्रोंके वंशका वर्णन
  37. [अध्याय 37] इक्ष्वाकु आदि मनुवंशीय राजाओंका वर्णन
  38. [अध्याय 38] सत्यव्रत- त्रिशंकु सगर आदिके जन्मके निरूपणपूर्वक उनके चरित्रका वर्णन
  39. [अध्याय 39] सगरकी दोनों पत्नियोंके वंशविस्तारवर्णनपूर्वक वैवस्वतवंशमें उत्पन्न राजाओंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] पितृश्राद्धका प्रभाव-वर्णन
  41. [अध्याय 41] पितरोंकी महिमाके वर्णनक्रममें सप्त व्याधोंके आख्यान का प्रारम्भ
  42. [अध्याय 42] 'सप्त व्याध' सम्बन्धी श्लोक सुनकर राजा ब्रह्मदत्त और उनके मन्त्रियोंको पूर्वजन्मका स्मरण होना और योगका आश्रय लेकर उनका मुक्त होना
  43. [अध्याय 43] आचार्यपूजन एवं पुराणश्रवणके अनन्तर कर्तव्य कथन
  44. [अध्याय 44] व्यासजीकी उत्पत्तिकी कथा, उनके द्वारा तीर्थाटनके प्रसंगमें काशीमें व्यासेश्वरलिंगकी स्थापना तथा मध्यमेश्वरके अनुग्रहसे पुराणनिर्माण
  45. [अध्याय 45] भगवती जगदम्बाके चरितवर्णनक्रममें सुरथराज एवं समाधि वैश्यका वृत्तान्त तथा मधु-कैटभके वधका वर्णन
  46. [अध्याय 46] महिषासुरके अत्याचारसे पीड़ित ब्रह्मादि देवोंकी प्रार्थनासे प्रादुर्भूत महालक्ष्मीद्वारा महिषासुरका वध
  47. [अध्याय 47] शुम्भ निशुम्भसे पीड़ित देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड आदि असुरोंका वध
  48. [अध्याय 48] सरस्वतीदेवीके द्वारा सेनासहित शुम्भ निशुम्भका वध
  49. [अध्याय 49] भगवती उमाके प्रादुर्भावका वर्णन
  50. [अध्याय 50] दस महाविद्याओं की उत्पत्ति तथा देवीके दुर्गा, शताक्षी, शाकम्भरी और भ्रामरी आदि नामोंके पड़नेका कारण
  51. [अध्याय 51] भगवतीके मन्दिरनिर्माण, प्रतिमास्थापन तथा पूजनका माहात्म्य और उमासंहिताके श्रवण एवं पाठकी महिमा