शौनकजी बोले – [हे सूतजी ! ] तब वेदान्त- सारस्वरूप उस परम अद्भुत रहस्यको सुनकर वामदेवने महेश्वरपुत्र कार्तिकेयसे [और] क्या पूछा ? शिवज्ञानमें सदा तत्पर रहनेवाले योगी वामदेव धन्य हैं, जिनके सम्बन्धसे इस प्रकारकी दिव्य एवं परम पावनी कथा उत्पन्न हुई ॥ 1-2 ॥
इस प्रकार मुनियोंके उस स्नेहयुक्त वचनको सुनकर शिवमें आसक्त चित्तवाले बुद्धिमान् सूतजी प्रसन्न होकर उनसे कहने लगे- ॥ 3 ॥सूतजी बोले- आपलोग महादेवके भक्त एवं लोकोपकारी हैं, अतः धन्य हैं। हे मुनियो ! अब आप सभी लोग उन दोनोंके संवादको पुनः सुनें ॥ 4 ॥ इस प्रकार महेशपुत्र स्कन्दके द्वैतनाशक तथा अद्वैतज्ञानको उत्पन्न करनेवाले वचनको सुनकर महर्षि [वामदेव] प्रसन्न हुए। शिवपुत्र कार्तिकेयको बार बार नमस्कार करके तथा उनकी स्तुति करके महामुनिने विनयपूर्वक पुन: पूछा- ॥ 5-6 ॥
वामदेव बोले- हे भगवन्! हे सर्वतत्त्वज्ञ! हे अमृतवारिधि कार्तिकेय ! इन आत्मज्ञानी यतियोंका गुरुत्व कैसे है? जीवोंको भोग- मोक्षादिकी सिद्धि किस कारणसे होती है ? सम्प्रदायकी परम्पराके बिना इन्हें उपदेशमें अधिकार क्यों नहीं है ? ।। 7-8 ।।
इनका इस प्रकार क्षौरकर्म क्यों होता है तथा ऐसा अभिषेक क्यों किया जाता है ? इन सभी बातोंको बताइये। हे स्वामिन्! आप मेरा सन्देह दूर करनेकी कृपा कीजिये । वामदेवका यह वचन सुनकर कार्तिकेयजी मनमें शिव तथा पार्वतीका ध्यान करते हुए कहने लगे- ॥ 9-10 ॥ श्रीसुब्रह्मण्य बोले- अब मैं आपके स्नेहवश योगपट्टका वर्णन करूँगा, जिसके कारण गुरुत्व प्राप्त होता है। हे वामदेव ! यह अत्यन्त गोपनीय तथा
मुक्तिप्रद है ll 11 ॥
वैशाख, श्रावण, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष अथवा माघमासके शुक्लपक्षमें, उत्तम दिनमें पंचमी अथवा पूर्णमासीको प्रात: कालकी नित्य कर्मविधि समाप्तकर शिष्य गुरुकी आज्ञासे स्थिरचित्त होकर नियमपूर्वक स्नान करके पर्यंक अर्थात् आसनकी शुद्धि करे तथा उसके बाद वस्त्रसे अपने शरीरको पोंछकर दूना डोरा बाँध करके कटिवस्त्र एवं उत्तरीय धारण करे, फिर पैर धोकर दो बार आचमन करके सद्योजातादि मन्त्रसे विधिपूर्वक भस्म धारण करे। इसके बाद फिर भस्म लेकर उसे सारे शरीरमें लगाये ॥ 12-15 ॥
हे मुने! तब आचार्य प्रसन्न होकर शिष्यका हाथ ग्रहण करे और वह शिष्य दोनों हाथोंसे अंजलि बनाकर पूर्वाभिमुख अलंकृत मण्डपमें जहाँ कुश, उसके ऊपर मृगचर्म तथा उसपर वस्त्र बिछा हो - ऐसे आसनपर बैठे ॥ 16-17 ।।इसके बाद आचार्यको चाहिये कि अपने हाथमें आधारसहित शंख लेकर अस्त्रमन्त्रसे उसे शुद्ध करके [शिष्यके प्रति अनुकूल होकर उसके आगे] आधारपर स्थापित करे ॥ 18 ॥
तत्पश्चात् आधारसहित शंखकी कुसुमादिसे पूजाकर कवच एवं अस्त्रमन्त्रसे उस शंखमें शोधित किया गया उत्तम जल डाले और पूर्ववत् पुनः कथित षडंगके क्रमसे उसका पूजनकर प्रणवमन्त्रसे सात बार उस जलको अभिमन्त्रित करे। पुनः गन्ध, पुष्प आदिसे पूजनकर धूप तथा दीप दिखाकर अस्त्र मन्त्रसे रक्षा करके उस शंखको कवचमन्त्रसे अवगुण्ठित करे ।। 19-21 ॥
उसके बाद आचार्य स्वयं धेनु और शंखमुद्रा दिखाये । तदनन्तर उस शंखको अपने आगे दक्षिण दिशामें उत्तम स्थानपर रखकर पूजाके अर्घ्यविधानके अनुसार उत्तम तथा शुभ मण्डलका निर्माण करे और सुगन्धित पुष्पोंसे उसकी पूजा करे ॥ 22-23 ॥
[उस मण्डलपर] आधारसहित, शोधित, धूपित, सूतसे आवेष्टित तथा सुगन्धित निर्मल जलसे भरा हुआ उत्तम घट स्थापित करे। हे मुनीश्वर उसमें पाँच वृक्षों [पीपल, प्लक्ष, गूलर, आम तथा बरगद ] की छाल, पंचपल्लव रखें और पाँच प्रकारकी मिट्टी में सुगन्धित जल मिलाकर कलशमें उसीसे लेप करे। इसके बाद वस्त्र, आम्रपत्र, दूर्वादल, [कुशाग्र ], नारियल तथा फूलोंसे कलशको पूर्ण करे। इसी प्रकार अन्य वस्तुओंसे भी उस घटको अलंकृत करे ।। 24-26 ।।
हे मुनीश्वर ! उस घटमें पंचरत्न अथवा उसके अभावमें भक्तिपूर्वक केवल सुवर्ण डाले। नीलम, माणिक्य, सुवर्ण, मूँगा, गोमेद - इन्हें पंचरत्न कहा गया है ।। 27-28 ॥
'नृम्लुस्क' इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करते हुए 'ग्लूम्' इस बीजको अन्तमें लगाकर आचार्य प्रेमसे विधिपूर्वक आधारशक्तिसे लेकर पंचावरणपर्यन्त उन उन देवोंका आवाहनकर पूजा करे ।। 29-30 ॥तत्पश्चात् पायसका नैवेद्य अर्पितकर पूर्वकी भाँति ताम्बूलादि उपचारोंको समर्पित करे और [शर्व आदि] आठ नामोंसे पूजन करे। तदुपरान्त अष्टोत्तरशत प्रणवका उच्चारण करके उस [घट]- को अभिमन्त्रित करे। उसके अनन्तर पंच ब्रह्ममन्त्रोंसे | सद्योजातादिका अर्चनकर [मुद्राओंका ] प्रदर्शन करते हुए अस्त्रमन्त्रसे रक्षण तथा कवचमन्त्रसे अवगुण्ठन करे। इसके पश्चात् भक्तिपूर्वक धूप एवं दीप दिखाकर बादमें धेनु और योनि नामक मुद्राएँ प्रदर्शित करे ।। 31-33 ॥
उसके बाद आचार्य उस शिष्यके मस्तकको कुशोंसे ढँककर मण्डलके ईशानकोणमें चौकोर मण्डलका निर्माण करे। उसके ऊपर विधिपूर्वक सुन्दर आसन रखकर उसपर उस शिशु शिष्यको प्रेमपूर्वक बैठाये ll 34-35 ।।
उसके बाद कलशको उठाकर स्वस्तिवाचन करते हुए गुरु प्रदक्षिणक्रमसे अपने शिष्यके मस्तकपर अभिषेक करे। तदनन्तर प्रणवका सात बार उच्चारणकर पंचब्रह्मके मन्त्रोंसे अभिषेककर शंखका जल उसके चारों ओर अभिवेष्टित कर दे ।। 36-37 ॥
तदनन्तर मनोहर दीप दिखाकर वस्त्रसे पोंछकर नये डोरेसे युक्त वस्त्र तथा कौपीन धारण कराये ॥ 38 ॥
इसके बाद पैर धोकर तथा दो बार आचमन कराके भस्म लगाकर आचार्य अपने हाथोंसे उसके दोनों हाथोंको पकड़कर मण्डपके मध्यमें उसे ले जाय। पुनः गुरु उसके अंगोंमें विधिपूर्वक भस्म लगाकर उसके लिये रखे हुए आसनपर सुखपूर्वक बैठाये ॥ 39-40 ॥
तदनन्तर पूर्वकी ओर मुखकर बैठे हुए शिष्यको आत्मतत्त्वज्ञानका अभिलाषी जानकर अपने आसनपर बैठा हुआ आचार्य उससे कहे-विशुद्ध आत्मावाले हो जाओ तत्पश्चात् गुरु 'परिपूर्ण शिव हूँ'-ऐसा कहकर अचल हो दो घड़ीतकके लिये स्थिरचित्त हो समाधिमें लीन रहे। इसके बाद नेत्र खोलकर अपने | सामने अंजलि बाँधकर खड़े हुए अपने शिष्यकी ओर प्रेमसे देखे ॥ 41-43॥इसके बाद भस्मलिप्त अपने हाथको शिष्यके मस्तकपर रखकर दाहिने कानमें 'हंसः सोऽहम्' इस मन्त्रका स्पष्ट उपदेश करे और शिष्यसे कहे कि इस मन्त्रके आद्य पद अहंका अर्थ स्वयं वे शक्त्यात्मा शिव हैं, वही शिव मैं हूँ-ऐसा अपने मनमें विचार करो ।। 44-45 ।।
'य इत्यणो0' इत्यादि मन्त्रके अर्थतत्त्वका उपदेशकर बादमें ब्रह्मके परोक्ष ज्ञानको कहनेवाले महावाक्योंको मैं तुमसे कहता हूँ, हे ब्रह्मन् ! सावधान होकर सुनो और उन्हें चित्तमें धारण करो - इस प्रकार कहकर स्पष्ट रूपसे उन महावाक्योंका उपदेश करे ।। 46-47 ॥