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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 22 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 22

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सती और शिवका बिहार- वर्णन

ब्रह्माजी बोले- किसी समय वर्षाऋतु जब श्रीमहादेवजी कैलासपर्वतके शिखरपर विराजमान थे, उस समय सती शिवजीसे कहने लगीं ॥1॥

सती बोलीं- हे देवदेव! हे महादेव! हे शम्भो ! हे मेरे प्राणवल्लभ! हे नाथ! मेरे वचनको सुनिये और हे मानद ! सुन करके उसे कीजिये ॥ 2 ॥

हे नाथ! यह परम कष्टदायक वर्षाकाल आ गया है तथा अनेक वर्णके मेघोंके गर्जनसे आकाश तथा दिशाएँ व्याप्त हो गयी हैं ॥ 3 ॥

कदम्बके परागसे समन्वित, जलबिन्दुओंको लेकर बहनेवाली मनोहारिणी तथा तीव्रगतिवाली वायु प्रवाहित हो रही है ॥ 4 ॥

इस वर्षाकालमें जलसमूहकी धाराओंसे वृष्टि करते हुए तथा चमकती हुई बिजलीकी पताकावाले इन मेघोंकी गर्जनाके कारण किसका मन विक्षुब्ध नहीं हो जाता ॥ 5 ॥

विरहीजनोंको दुःखदायी कर देनेवाला यह वर्षाकाल महाभयानक है। इस समय आकाशके मेघाच्छन्न होनेके कारण दिनमें न तो सूर्यका दर्शन हो पा रहा है और न तो रात्रिमें चन्द्रमा ही दिखायी पड़ता है। [इस कालमें) दिन भी रात्रिके समान ही प्रतीत हो रहा है ॥ 6 ॥

प्रचण्ड वायुके झोंकोंके कारण मेघ शब्द करते हुए आकाशमें कहीं भी स्थिर नहीं हो पा रहे हैं। है शंकर ये मेथ ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, जैसे अभी लोगोंके सिरपर गिर जायेंगे ॥7॥हे शंकर! हवाके वेगसे ये बड़े-बड़े वृक्ष आकाशमें नाचते हुए-से प्रतीत हो रहे हैं। ये कामीजनोंके लिये सुख देनेवाले तथा भीरुजनोंको भयभीत करनेवाले हैं ॥ 8 ॥

काले तथा चिकने बादलोंवाले आकाशके ऊपर उड़ती हुई बकपंक्ति यमुनानदीके ऊपर बहते हुए फेन-जैसी प्रतीत हो रही है ॥ 9 ॥

ईश! काली रात्रिमें बादलोंमें छिपा हुआ यह चन्द्रमण्डल समुद्रमें प्रदीप्त हुई वडवाग्निके समान प्रतीत हो रहा है ॥ 10 ॥

हे विरूपाक्ष ! इस मन्दराचल पर्वतशिखरके प्रांगण में भी वर्षाकालीन घासें उग आयी हैं, फिर अन्य स्थानोंकी चर्चा ही क्या करूँ ? ॥ 11 ॥

मन्दराचलपर आश्रय ग्रहण करनेवाले इन काले, श्वेत तथा रक्तवर्णके मेघोंसे यह विशाल हिमालय इस प्रकार प्रतीत हो रहा है, जैसे पत्तोंसे पूर्ण | दुग्धका समुद्र हो ॥ 12 ॥

श्री (शोभा) सभी वृक्षोंको त्यागकर केवल विषमतासे किंशुक वृक्षोंको शोभित कर रही है, जिस प्रकार महालक्ष्मी कलियुगमें सज्जनोंको त्यागकर सभी ऊँचे-नीचे पुरुषोंको प्राप्त होती हैं ॥ 13 ॥

मन्दराचल पर्वतके शिखरपर वास करनेवाले बादलोंके शब्दसे हर्षित होकर मोर वनमें अपनी पीठ दिखाकर नृत्य कर रहे हैं ॥ 14 ॥

मेघोंके लिये उत्सुक इन चातकोंकी मधुर ध्वनि इस वर्षाकालमें सुनायी पड़ रही है और पथिकगण तीव्र जल वर्षाके कारण रास्तेमें होनेवाली थकानको दूर कर रहे हैं। हे शंकर मेरी देहपर मेघोंद्वारा ओले गिराये जानेसे उत्पन्न हुई इस दुर्नीतिको देखिये, जो अपने अनुगामी मोर तथा चातकोंपर भी उपलकी वर्षाकर उन्हें ओलोंसे आच्छादित कर रहे हैं ।। 15-16 ॥

हे गिरिश! मोर तथा सारंग भी अपने मित्र (बादल)-से पराभवको प्राप्तकर दूर होनेपर भी हर्षपूर्वक मानसरोवरको चले जा रहे हैं॥ 17 ॥

[हे सदाशिव!] इस विषम परिस्थितिमें [केवल ] आपको छोड़कर कौआ और चकोर पक्षी भी अपना घोंसला बना रहे हैं। अब आप ही बताइये, घरके बिना आप किस प्रकार शान्ति प्राप्त करेंगे ? ॥ 18 ॥हे पिनाकधारिन् ! मुझे इन मेघोंसे बहुत बड़ा भय उत्पन्न हो गया है, इसलिये मेरे कहनेसे निवासके लिये शीघ्र ही घर बनानेका प्रयत्न कीजिये ॥ 19 ॥ वृषभध्वज ! आप कैलासपर्वतपर, हिमालयपर अथवा महाकोशीपर या पृथ्वीपर अपने योग्य निवासस्थान बनाइये ॥ 20 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद।] इस प्रकार दक्षकन्या सतीके द्वारा बार-बार कहे जानेपर शिवजी अपने सिरपर स्थित चन्द्रमाके प्रकाशपुंजके समान उज्ज्वल मुखसे हँसने लगे ॥ 21 ॥

तदनन्तर मुसकराहटके कारण खुले ओठोंवाले वे सर्वतत्त्वज्ञाता महात्मा परमेश्वर महादेवजी सतीको प्रसन्न करते हुए कहने लगे - ॥ 22 ॥

ईश्वर बोले- हे मनोहरे! हे मेरी प्रिये ! तुम्हारी प्रीतिके लिये मैं तुम्हारे रहनेके योग्य निवासस्थान उस जगहपर बना दूँगा, जहाँ मेघ कभी भी नहीं जा सकेंगे ॥ 23 ॥

हे मनोहरे वर्षाकालमें भी ये मेघ हिमालय पर्वत (मध्य भाग) के नीचे ही नीचे घूमते रहते हैं 24 ॥ उसी प्रकार हे देवि! ये मेघ इस कैलासपर्वतके भी नीचे ही नीचे घूमते हैं, कैलास पर्वतके ऊपर नहीं जाते हैं ॥ 25 ॥

पुष्कर, आवर्तक आदि मेघ भी जम्बूके मूलभागतक ही रह जाते हैं ये जम्बूके ऊपर रहनेवाले सुमेरु पर्वतके शिखरपर नहीं जाते हैं॥ 26 ॥ हे प्रिये इन वर्णित पर्वतोंमें जिस पर्वतपर तुम्हारी निवास करनेकी इच्छा हो, उस पर्वतको शीघ्र ही बताओ ॥ 27 ॥

इस हिमालय पर्वतपर निवास करनेसे स्वच्छन्द विहार करनेवाले सुवर्णके सदृश पंखवाले ये अनिल नामक पक्षिसमूह ऊँचे ऊँचे मधुर शब्दोंसे तुम्हारे कौतुक (केलिक्रीडा) का गान करेंगे ॥ 28 ॥

सिद्धोंकी कमनीय स्त्रियाँ मणियोंके द्वारा कूटकर बनायी गयी इस हिमालयकी भूमिपर स्वेच्छा विहारकालमें कौतुकसे तुम्हारे बैठनेके लिये आसनका निर्माणकर स्वच्छ पृथिवीको तुम्हारे लिये अर्पण करेंगी और अनेक प्रकारके फल-मूल आदि लाकर देनेकी इच्छा करेंगी ॥ 29 ॥नागकन्याएँ, पर्वतकन्याएँ एवं तुरंगमुखी किन्नरियाँ- ये सभी मनको मोहनेवाले अपने हाव भावसे सदैव तुम्हारी सहायता करेंगी ॥ 30 ॥

तुम्हारे इस अतुलनीय रूप तथा मनोहारी मुखको देखकर वहाँकी स्त्रियाँ अपने पतिके लिये मनोहर लगनेवाले शरीर, अपने रूप तथा गुणोंको धिक्कार करेंगी तथा तुम्हारी ओर निरन्तर देखती रहेंगी ॥ 31 ॥

पर्वतराज हिमालयकी पत्नी मेनका, जो अपने रूप तथा गुणसे त्रिलोकमें विख्यात हैं, वे भी तुम्हारे मनोऽनुकूल ऐश्वर्य, आशीर्वाद तथा प्रार्थनासे तुम्हें प्रसन्न करना चाहेंगी ॥ 32 ॥

गिरिराजसे वन्दनाके योग्य समस्त पुरजन तुम्हें प्रसन्न करनेका सदा प्रयत्न करेंगे और यदि अत्यन्त उदाररूपा तुमको कभी शोक हुआ तो वे लोग तुम्हें शिक्षा देंगे तथा अपने गुणोंसे प्रसन्न रखेंगे ॥ 33 ॥

हे प्रिये ! कोकिलोंके विचित्र मधुर आलापोंसे परिपूर्ण कुंजसमूहोंसे आवृत स्थानमें जहाँ वसन्तकी उत्पत्तिका स्थान है, क्या तुम उस स्थानमें जाना चाहती हो ? ॥ 34 ॥

जहाँ विविध प्रकारके अनेक तालाब सैकड़ों कमलिनियोंसे समन्वित शीतल जलसे परिपूर्ण हैं, जहाँ अश्व, हाथी तथा गौओंका निवास है, हे देवि वहाँ सभी प्रकारकी कामनाओंको प्रदान करनेवाले कल्पसंज्ञक वृक्षोंसे घिरे हुए सुन्दर मनोहारी पुष्पोंको तथा हरे-भरे नवीन पासके मैदानोंको प्रफुल्लित नेत्रोंसे | देखना हे महामाये। इस प्रकारके उस हिमालयपर हिंसक जन्तुगण भी शान्तिपूर्वक निवास करते हैं, वह अनेक प्रकारके मृगगणोंसे युक्त है, वहाँपर स्थित देवालयों में मुनियों तथा यतियोंका निवास है ।। 35-37 ॥

उस पर्वतके शिखर स्फटिक, सुवर्ण एवं चाँदीसे व्याप्त हैं, वह मानसादि सरोवरोंसे चारों ओरसे सुशोभित है। वह सुवर्णसे बने हुए, रत्नोंके दण्डवाले अधखिले | कमलों से व्याप्त है। शिशुमार एवं असंख्य कच्छप एवं मकरोंसे वह मानसरोवर परिव्याप्त है ॥ 38-39॥

वह मनोहर नीलकमलों और उत्पलकमलोंसे शोभित है। हे देवेशि वह [कमलपुष्पोंसे] गिरते हुए सुगन्धित कुंकुमोंसे व्याप्त है। गन्धोंसे समन्वित स्वच्छ जलोंसे वह मानसरोवर पूर्ण है। मानसरोवरका | हरे-भरे जैसे एवं नवीन घासवाले भूमिभागसे सुशोभित है। यहाँके शाखोटके वृक्ष इस प्रकार प्रतीत हो रहे हैं, जैसे अपनी शाखाको हिलाकर नृत्य कर रहे हों। अपनी इच्छाके अनुसार अनेक प्रकारके रूप धारण करनेवाले देवताओं, सारसों एवं मतवाले चक्रवाकोंसे मानसरोवर सुशोभित हो रहा है ।। 40-42 ll

परम आनन्दको प्रदान करनेवाले भौरोंके मधुर शब्दोंसे गुंजित वह मानसरोवर महान् उद्दीपन करनेवाला है ।। 43

मेरुपर्वतके ऊंचे शिखरपर इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, अग्नि, निर्ऋति, वायु तथा ईशानकी पुरियों हैं, जहाँ देवताओंका निवासस्थान है। रम्भा, शची एवं मेनकादि अप्सराओंसे वह मेरुशिखर सुशोभित है ।। 44-45 ।।

[हे देवि !] क्या तुम उन समस्त पर्वतोंके राजा तथा पृथिवीके सारभूत महारम्य सुमेरु पर्वतपर विहार करना चाहती हो ? ॥ 46 ॥

वहाँ [निवास करनेसे] सखियों एवं अप्सराओं |सहित शची देवी तुम्हारी उचित सहायता करेंगी ॥ 47 ll

अथवा तुम मेरे भूत कैलासपर जो पतिन्द्रके नामसे विख्यात है, उसपर निवास करना चाहती हो, जहाँपर कुबेरकी अलकापुरी है। जहाँ गंगाकी जलधारा बह रही है, जो स्वयं पूर्णचन्द्रके समान समुज्ज्वल है और जिस कैलासकी कन्दराओं तथा शिखरोंपर ब्रह्मकन्याएँ मनोहर गान करती हैं । ll 48-49 ।।

यह कैलास अनेक प्रकारके मृगगणोंके समूहोंसे युक्त, सैकड़ों कमलोंसे परिपूर्ण एवं सुमेरुपर्वतकी अपेक्षा समस्त गुणोंसे युक्त तथा सुन्दर है ॥ 50 ॥

[हे देवि!] इन स्थानोंमें जहाँ कहीं भी तुम्हारी रहने की इच्छा हो, उस स्थानको शीघ्र मुझे बताओ। मैं वहाँपर तुम्हारे निवासस्थान निर्माण करूंगा ॥ 51 ॥

ब्रह्माजी बोले- शंकरके इस प्रकार कहनेपर | सतीदेवी अपने निवासभूत स्थानका लक्षण इस प्रकार कहने लगीं - ॥ 52 ॥

सती बोलीं- हे देव! मैं आपके साथ इस पर्वतराज हिमालयपर ही निवास करना चाहती हूँ, आप इसी पर्वतपरपूर्वक निवासस्थानका निर्माण कीजिये ॥ 53 ॥ब्रह्माजी बोले- सतीद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर शंकरजी अत्यधिक मोहित हो गये और सतीको साथ लेकर हिमालयपर्वतके ऊंचे शिखरपर चले गये॥ 54 ॥

सिद्धांगनाओंसे युक्त, पक्षियोंसे सर्वथा | अगम्य, अनेक छोटी-छोटी बावलियोंसे युक्त, विचित्र कमलोंसे चित्रित और प्रातः कालीन सूर्यके समान सुशोभित उस शिखरपर शिवजी सती देवीके साथ चले गये ।। 55-56 ।।

वह स्फटिकमणिके समान समुज्ज्वल, हरे-भरे वृक्षोंसे तथा घासोंसे परिपूर्ण, विचित्र पुष्पोंवाली बावलियोंसे युक्त था, उस शिखरके वृक्षोंकी शाखाओंका अग्रभाग विकसित पुष्पोंसे शोभित था, भरे गुंजार कर रहे थे. वह नील एवं अनेक वर्णके कमलोंसे परिव्याप्त था ॥ 57-58 ।।

चक्रवाक, कदम्ब, हंस, शुक, सारस और नीली गर्दनवाले क्रौंच पक्षियोंके शब्दोंसे वह शिखर शब्दायमान हो रहा था ।। 59 ।।

उस शिखरपर पुंस्कोकिल मनोहर शब्द कर रहे थे, वह अनेक प्रकारके गणों, किन्नरियों, सिद्धों, अप्सराओं तथा गुहाकोंसे सेवित था ॥ 60 ॥

विद्याधरियां, देवियाँ तथा किन्नरियाँ वहाँ विहार कर रही थीं तथा पर्वतीय स्त्रियों एवं कन्याओंसे वह युक्त था ॥ 61 ॥

वीणा, सितार, मृदंग एवं पटहके वाद्ययन्त्रोंपर नृत्य एवं कौतुक करती हुई अप्सराओंके समूहसे वह शिखर सुशोभित हो रहा था ॥ 62 ॥ देविकाओं, दीर्घिकाओं, खिले हुए तथा सुगन्धित पुष्पों और निकुंजोंसे वह शोभायमान हो रहा था ।। 63 ॥

इस प्रकारकी शोभासे युक्त पर्वतराज हिमालयके शिखरपर शंकरजी सती देवीके साथ बहुत कालतक रमण करते रहे ॥ 64 ॥

महादेवजी उस स्वर्गके समान दिव्य स्थानमें सतीके साथ देवताओंके वर्षके गणनानुसार दस हजार वर्षतक प्रसन्नतापूर्वक विहार करते रहे ।। 65 ।।

वे कभी उस स्थानको छोड़कर सती के साथ किसी दूसरे स्थानपर चले जाते थे और कभी देवी देवताओंसे व्याप्त मेरु शिखरपर चले जाते थे ॥ 66 ॥इस पृथ्वीतलके अनेक प्रकारके द्वीपों, उद्यानों एवं वनोंमें जाकर पुन: वहाँ आकर सतीके साथ रमण करने लगते थे ॥ 67 ॥

शिवजीका मन यज्ञ, ब्रह्म तथा समाधिमें नहीं लगता था, वे शम्भु दिन-रात मनसे सतीमें ही प्रीति करते रहते थे ॥ 68 ॥

इसी प्रकार सती भी निरन्तर महादेवजीके मुखका अवलोकन करती रहती थीं और शिवजी भी सतीके मुखको देखते रहते थे ॥ 69 ॥

इस प्रकार वे शिव तथा सती परस्परके संयोगसे स्नेहरूपी जलद्वारा अनुरागरूपी वृक्षको सिंचितकर बढ़ाने लगे ॥ 70 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य