ब्रह्माजी बोले- हे नारद! पूर्वकालमें प्रयागमें एकत्रित हुए समस्त मुनियों तथा महात्माओंका विधि विधानसे एक बहुत बड़ा यज्ञ हुआ ॥ 1 ॥
उस यज्ञमें सिद्धगण, सनक आदि, देवर्षि, प्रजापति, देवता तथा ब्रह्मका साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानी आये ॥ 2 ॥ मैं भी मूर्तिमान् महातेजस्वी निगमों और आगमोंसे युक्त हो सपरिवार वहाँ गया था ॥ 3 ॥
अनेक प्रकारके उत्सवोंके साथ वहाँ उनका विचित्र समाज जुटा था। वहाँ अनेक शास्त्रोंसे सम्बन्धित ज्ञानचर्चा होने लगी ॥ 4 ॥
हे मुने। उसी समय सती और पार्षदोंके साथ त्रिलोकहितकारी, सृष्टिकर्ता एवं सबके स्वामी भगवान् रुद्र भी वहाँ पहुँचे ll 5 ॥
शिवको देखकर सम्पूर्ण देवताओं, सिद्धों, मुनियों और मैंने भक्तिभावसे उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की ॥ 6 ॥
तत्पश्चात् शिवजीकी आज्ञा पाकर सब लोग प्रसन्नतापूर्वक यथास्थान बैठ गये। भगवान्के दर्शनसे सन्तुष्ट होकर सब लोग अपने भाग्यकी सराहना करने लगे ॥ 7 ॥
उसी समय प्रजापतियोंके स्वामी महातेजस्वी प्रभु दक्षप्रजापति घूमते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ अकस्मात् आये। वे मुझे प्रणामकर मेरी आज्ञासे वहाँ बैठ गये।वे दक्ष ब्रह्माण्डके अधिपति और सबके मान्य थे, परंतु अहंकारी तथा तत्त्वज्ञानसे शून्य थे ॥ 8-9 ॥
उस समय समस्त देवर्षियोंने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणामद्वारा दोनों हाथ जोड़कर उत्तम तेजयुक्त दक्षका आदर-सत्कार किया ॥ 10 ॥
किंतु नाना प्रकारके लीलाविहार करनेवाले सबके स्वामी और परम रक्षक महेश्वरने उस समय | दक्षको प्रणाम नहीं किया। वे अपने आसनपर बैठे ही रह गये ॥ 11 ॥
महादेवजीको वहाँ मस्तक न झुकाते देख मेरे पुत्र दक्ष मन-ही-मन अप्रसन्न हो गये। दक्ष प्रजापति रुद्रपर कुपित हो गये ॥ 12 ॥
ज्ञानशून्य तथा महान् अहंकारी दक्ष महाप्रभु रुद्रको क्रूर दृष्टिसे देखकर सबको सुनाते हुए उच्च स्वरमें कहने लगे- ॥ 13 ॥
दक्ष बोले- ये सब देवता, असुर, श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा ऋषि मुझे विशेष रूपसे मस्तक झुकाते हैं, परंतु वह जो प्रेतों और पिशाचोंसे घिरा हुआ महामनस्वी है, वह दुष्ट मनुष्यके समान कैसे हो गया ? ।। 14 ।।
श्मशानमें निवास करनेवाला निर्लज मुझे इस समय प्रणाम क्यों नहीं करता ? इसके [वेदोक्त] कर्म लुप्त हो गये हैं, यह भूतों और पिशाचोंसे सेवित हो मतवाला बना रहता है, शास्त्रीय विधिसे रहित है तथा नीतिमार्गको सदा कलंकित करता है ॥ 15 ॥
इसके साथ रहनेवाले या इसका अनुसरण करनेवाले लोग पाखण्डी, दुष्ट, पापाचारी तथा ब्राह्मणको देखकर उद्दण्डतापूर्वक उसकी निन्दा करनेवाले होते हैं। यह स्वयं ही स्वीमें आसक्त रहनेवाला तथा रतिकर्ममें ही दक्ष है। अतः मैं इसे शाप देनेके लिये उद्यत हूँ ॥ 16 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर वे महादुष्ट दक्ष कुपित होकर रुद्रके प्रति कहने लगे। हे ब्राह्मणो एवं देवताओ। यह रुद्र मेरे तथा आप सभीके द्वारा वध्य है ॥ 17 ॥
दक्ष बोले- मैं इस रुद्रको यज्ञसे बहिष्कृत करता हूँ। यह चारों वर्णोंसे बाहर, श्मशानमें निवास | करनेवाला तथा उत्तम कुल और जन्मसे हीन है। इसलिये यह देवताओंके साथ यज्ञमें भाग न पाये ll 18 llब्रह्माजी बोले- हे नारद! दक्षकी कही हुई यह बात सुनकर भृगु आदि बहुतसे महर्षि रुद्रदेवको दुष्ट मानकर देवताओंके साथ उनकी निन्दा करने लगे ॥ 19 ॥
दक्षकी बात सुनकर गणेश्वर नन्दीको बड़ा रोष हुआ। उनके नेत्र चंचल हो उठे और वे दक्षको शाप देनेके विचारसे तुरंत इस प्रकार कहने लगे- ॥ 20 ॥
नन्दीश्वर बोले- हे शठ! महामूढ़! हे दुष्टबुद्धि दक्ष! तुमने मेरे स्वामी महेश्वरको यज्ञसे बहिष्कृत क्यों कर दिया ? जिनके स्मरणमात्रसे यज्ञ सफल और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं महादेवजीको तुमने शाप कैसे दे दिया ? ॥ 21-22 ॥
हे दुर्बुद्धि दक्ष ! तुमने ब्राह्मणजातिकी चपलतासे प्रेरित हो इन निर्दोष महाप्रभु रुद्रदेवको व्यर्थ ही शाप दिया और इनका उपहास किया है। हे ब्राह्मणाधम। जिन्होंने इस जगत्की सृष्टि की है, जो इसका पालन करते हैं और अन्तमें जिनके द्वारा इसका संहार होता है, उन्हीं महेश्वर रुद्रको तूने शाप कैसे दे दिया ? ।। 23-24 ॥ नन्दीके इस प्रकार फटकारनेपर प्रजापति दक्ष रुष्ट हो गये और नन्दीको शाप दे दिया ॥ 25 ॥
दक्ष बोले- हे रुद्रगणो! तुमलोग वेदसे बहिष्कृत हो जाओ, वैदिक मार्ग से भ्रष्ट हो जाओ, महर्षियोंद्वारा परित्यक्त हो जाओ, पाखण्डवादमें लग जाओ, शिष्टाचारसे दूर रहो, सिरपर जटा और शरीरमें भस्म एवं हड्डियोंके आभूषण धारण करो और मद्यपानमें आसक्त रहो ।। 26-27 ॥
ब्रह्माजी बोले- जब दक्षने शिवगणोंको इस प्रकार शाप दे दिया, तब उस शापको सुनकर शिवभक्त नन्दी अत्यन्त रोषमें भर गये ॥ 28 ॥
शिलादके पुत्र, शिवप्रिय, तेजस्वी नन्दी गर्वसे भरे हुए महादुष्ट दक्षको तत्काल इस प्रकार उत्तर देने लगे-- ॥ 29 ॥
नन्दीश्वर बोले- हे शठ! हे दुर्बुद्धि दक्ष ! ब्रह्मचापल्यके कारण शिवतत्त्वको न जानते हुए तुमने | शिवके पार्षदोंको व्यर्थ ही शाप दिया है ॥ 30 ॥
हे अहंकारी दक्ष! दूषित चित्तवाले मूढ़ भृगु आदिने भी ब्राह्मणत्वके अभिमानमें आकर महाप्रभु महेश्वरका | उपहास किया है। अतः यहाँ जो भगवान् रुद्रसे विमुखतुम जैसे खल ब्राह्मण विद्यमान हैं, उनको मैं रुद्रतेजके प्रभावसे शाप दे रहा हूँ ॥ 31-32 ॥
तुम-जैसे ब्राह्मण [कर्मफलके प्रशंसक ] वेदवाद में फँसकर वेदके तत्त्वज्ञानसे शून्य हो जायँ, वे ब्राह्मण सदा भोगोंमें तन्मय रहकर स्वर्गको ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ मानते हुए स्वर्गसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है - ऐसा कहते रहें तथा क्रोध, लोभ एवं मदसे युक्त, निर्लज्ज और भिक्षुक बने रहें । ll 33-34 ॥
[कितने ही] ब्राह्मण वेदमार्गको सामने रखकर शूद्रोंका यज्ञ करानेवाले और दरिद्र होंगे। वे सदा दान लेनेमें लगे रहेंगे। दूषित दान ग्रहण करनेके कारण वे | सबके सब नरकगामी होंगे। हे दक्ष ! उनमें से कुछ ब्राह्मण तो ब्रह्मराक्षस होंगे ॥ 35-36 ॥
यह अजन्मा प्रजापति दक्ष, जो परमेश्वर शिवको सामान्य देवता समझकर उनसे द्रोह करता है, यह दुष्ट बुद्धिवाला तत्त्वज्ञानसे विमुख हो जायगा ॥ 37 ॥
यह विषयसुखकी इच्छासे कामनारूपी कपटसे युक्त धर्मवाले गृहस्थाश्रममें आसक्त रहकर कर्मकाण्डका तथा कर्मफलकी प्रशंसा करनेवाले सनातन वेदवादका ही विस्तार करता रहेगा। दक्षका आनन्ददायी मुख नष्ट हो जाय, यह आत्मज्ञानको भूलकर पशुके समान हो जाय और कर्मभ्रष्ट तथा अनीतिपरायण होकर शीघ्र ही बकरेके मुखसे युक्त हो जाय। इस प्रकार कुपित हुए नन्दीने जब ब्राह्मणोंको शाप दिया और दक्षने महादेवजीको शाप दिया, तब वहाँ महान् हाहाकार मच गया ।। 38-40 ॥ [हे नारद!] दक्षका वह शाप सुनकर वेदों के प्रतिपादक तथा शिवतत्त्वको जाननेवाले मैंने उस दक्षकी तथा भृगु आदि ब्राह्मणोंकी बारंबार निन्दा की ।। 41 ।।
सदाशिव महादेवजी भी नन्दीकी वह बात | सुनकर हँसते हुए और समझाते हुए मधुर वचन कहने लगे- ॥ 42 ॥
सदाशिव बोले- हे नन्दिन् ! [मेरी बात] सुनो। हे महाप्राज्ञ! तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये। तुमने भ्रमसे यह समझकर कि मुझे शाप दिया गया है, व्यर्थमें ही ब्राह्मणकुलको शाप दे डाला ॥ 43 ॥वेद मन्त्राक्षरमय और सूक्तमय हैं। [ उसके प्रत्येक] सूक्तमें समस्त देहधारियोंकी आत्मा प्रतिष्ठित है। उन मन्त्रोंके ज्ञाता नित्य आत्मवेत्ता हैं, इसलिये तुम रोषवश उन्हें शाप न दो। किसी कुत्सित बुद्धिवालेको भी कभी वेदोंको शाप नहीं देना चाहिये ।। 44-45 ।।
इस समय मुझे शाप नहीं मिला है, इस बातको तुम्हें ठीक-ठीक समझना चाहिये। हे महामते! तुम तो सनकादिको भी तत्त्वज्ञानका उपदेश देनेवाले हो, अतः शान्त हो जाओ। मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही यज्ञकर्म हूँ, यज्ञोंके अंग भी मैं ही हूँ, यज्ञकी आत्मा मैं ही हूँ, यज्ञपरायण यजमान मैं ही हूँ और यज्ञसे बहिष्कृत भी मैं ही हूँ। 46-47 ।।
यह कौन है, तुम कौन हो और ये कौन हैं? वास्तवमें सब मैं ही हूँ। तुम अपनी बुद्धिसे इस बातका विचार करो। तुमने ब्राह्मणोंको व्यर्थ ही शाप दिया है। हे महामते! हे नन्दिन्। तुम तत्त्वज्ञानके द्वारा प्रपंच-रचनाको दूर करके विवेकपरायण, स्वस्थ तथा क्रोध आदिसे रहित हो जाओ ।। 48-49 ।।
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार भगवान् शिवद्वारा समझाये जानेपर वे नन्दी परम ज्ञानसे युक्त और क्रोधरहित होकर शान्त हो गये। वे भगवान् शिव भी अपने प्राणप्रिय गण नन्दीको बोध प्रदान करके गणोंसहित वहाँसे प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये ॥ 50-51 ॥
इधर, रोषसे युक्त दक्ष भी चित्तमें शिवके प्रति द्रोहयुक्त होकर ब्राह्मणोंके साथ अपने स्थानको लौट गये ॥ 52 ॥
उस समय रुद्रको शाप दिये जानेकी घटनाका स्मरण करके दक्ष सदा महान् रोषसे भरे रहते थे। मूर्ख बुद्धिवाले वे शिवके प्रति श्रद्धाको त्यागकर शिवपूजकोंकी निन्दा करने लगे। हे तात! इस प्रकार परमात्मा शम्भुके साथ [दुर्व्यवहार करके] दक्षने अपनी जिस दुष्ट बुद्धिका परिचय दिया था, वह मैंने आपको बता दिया, अब उनकी और बड़ी दुर्बुद्धि विषयमें सुनिये, मैं बता रहा हूँ ॥ 53-54 ll