ब्रह्माजी बोले- हे मुने! इस प्रकार शंकरजीके साथ विहार करके वे सती कामसे सन्तुष्ट हो गयीं और उनके मनमें वैराग्य उत्पन्न होने लगा ॥ 1 ॥
एक दिनकी बात है, देवी सती एकान्तमें भगवान् शंकरसे मिलीं और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणामकर दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीं। भगवान् शंकरको प्रसन्नचित्त जानकर विनयभावसे दक्षकुमारी सती कहने लगीं - ll 2-3 ॥
सती बोलीं- हे देवदेव! हे महादेव! हे करुणासागर! हे प्रभो! हे दीनोद्धारपरायण ! हे महायोगिन् ! मुझपर कृपा कीजिये 4 ॥ आप परमपुरुष हैं, इस जगत्के स्वामी हैं, रजोगुण तमोगुण एवं सत्त्वगुणसे परे हैं, निर्गुण हैं,
सगुण भी हैं, सबके साक्षी हैं, निर्विकार हैं और
महाप्रभु हैं ॥ 5 ॥
मैं धन्य हूँ, जो आपकी कामिनी और आपके साथ सुन्दर विहार करनेवाली आपकी प्रिया हुई। हे स्वामिन्! हे हर! आप अपनी भक्तवत्सलताके कारण ही मेरे स्वामी हुए ॥ 6 ॥हे नाथ! मैंने आपके साथ बहुत दिनोंतक विहार किया। हे महेशान! इससे मैं सन्तुष्ट हो गयी हूँ। अब मेरा मन उधरसे हट गया है ॥ 7 ॥
हे देवेश ! अब मैं परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूँ, जो सुख प्रदान करनेवाला है तथा हे हर! जिसको जान लेनेपर समस्त जीव संसारदुःखसे अनायास ही उद्धार प्राप्त कर लेते हैं ॥ 8 ॥
हे नाथ! जिस कर्मका अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परमपदको प्राप्त कर लेता है तथा पुनः संसारबन्धनमें नहीं पड़ता है, उस परमतत्त्वको आप बताइये, मुझपर कृपा कीजिये ॥ 9 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने। इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सतीने केवल जीवोंके उद्धारके लिये उत्तम भक्तिभावसे भगवान् शंकरसे इस प्रकार पूछा ॥ 10 ॥ तब इसे सुनकर स्वेच्छासे शरीर धारण करनेवाले तथा योगके द्वारा भोगसे विरक्त चित्तवाले स्वामी शिवजी अत्यन्त प्रसन्न होकर सतीसे कहने लगे- ॥ 11 ॥
शिवजी बोले- हे देवि! हे दक्षनन्दिनि ! हे महेश्वरि ! सुनो, मैं उस परमतत्त्वका वर्णन करता हूँ, जिससे वासनाबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो जाता है ॥ 12 ॥
हे सती! तुम विज्ञानको परमतत्त्व जानो। विज्ञान वह है, जिसके उदय होनेपर 'मैं ब्रह्म हूँ', ऐसा इड़ निश्चय हो जाता है। ब्रह्मके सिवा दूसरी किसी वस्तुका स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुषकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है ॥ 13 ॥
हे प्रिये ! वह विज्ञान दुर्लभ हैं, त्रिलोकीमें उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है। वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरूप ही है। साक्षात् परात्पर ब्रह्म है ।। 14 ।।
इस प्रकारके विज्ञानकी माता केवल मेरी भक्ति है, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करती है। वह मेरी कृपासे सुलभ होती है। वह भक्ति नौ प्रकारकी कही गयी है। हे सति ! भक्ति और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है। भक्त और ज्ञानी दोनोंको ही सदा सुख प्राप्त होता है। भक्तिके विरोधीको विज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती ।। 15-16 ।।हे देवि! मैं सदा भक्तके अधीन रहता है और भक्ति के प्रभावसे जातिहीन नीच मनुष्योंके घरोंमें भी चला जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ 17 ॥
हे देवि वह भक्ति दो प्रकारकी कही गयी है. सगुण और निर्गुण जो वैधी अर्थात् शास्त्रविधिसे प्रेरित और स्वाभाविकी भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है और इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति है, वह निम्नकोटिकी कही गयी है। सगुण और निर्गुण भक्ति- ये दोनों प्रकारकी भक्तियाँ नैष्ठिकी और अनैष्ठिकीके भेदसे दो प्रकारकी हो जाती हैं। नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकारवाली जाननी चाहिये और अनैष्ठिकी एक ही प्रकारकी कही गयी है ॥ 18-19 ॥
विद्वान् पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेदसे उसे अनेक प्रकारकी मानते हैं इन द्विविध भक्तियोंके बहुतसे भेद-प्रभेद होनेके कारण इनके तत्त्वका अन्यत्र वर्णन किया गया है। हे प्रिये ! मुनियोंने सगुण और निर्गुण दोनों भक्तियोंके नौ अंग बताये हैं। हे दक्षनन्दिनि । मैं उन नौ अंगोंका वर्णन करता हूँ, तुम प्रेमसे सुनो ॥ 20-21 ॥
हे देवि श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण विद्वानोंने भक्तिके ये नौ अंग माने हैं। हे शिवे इसके अतिरिक्त उस भक्तिके बहुत से उपांग भी कहे गये हैं ।। 22-23 ॥
हे देवि ! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्तिके नौ अंगों पृथक् पृथक् लक्षण सुनो, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। जो स्थिर आसनपर बैठकर तन मन आदिसे मेरे कथा-कीर्तन आदिका नित्य सम्मान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक [अपने श्रवणपुटोंसे] उसका पान किया जाता है, उसे श्रवण कहते हैं ॥ 24-25 ॥
जो हृदयाकाशके द्वारा मेरे दिव्य जन्म एवं | कर्मोंका चिन्तन करता हुआ प्रेमसे वाणीद्वारा उनका उच्च स्वरसे उच्चारण करता है, उसके इस भजनसाधनको कीर्तन कहा जाता है। हे देवि! मुझ नित्य महेश्वरको सदा और सर्वत्र व्यापक जानकर संसारमें निरन्तर | निर्भय रहनेको स्मरण कहा गया है [ यह निर्गुण स्मरण भक्ति है ] ॥ 26-27 ।।अरुणोदयकालसे प्रारम्भकर शयनपर्यन्त तत्पर चित्तसे निर्भय होकर भगवद्विग्रहकी सेवा करनेको स्मरण कहा जाता है [ यह सगुण स्मरण भक्ति है ।] ॥ 28 ॥ हर समय सेव्यकी अनुकूलताका ध्यान रखते हुए हृदय और इन्द्रियोंसे जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही सेवन नामक भक्ति है। अपनेको प्रभुका किंकर समझकर हृदयामृतके भोगसे स्वामीका सदा प्रिय सम्पादन करना दास्य कहा गया है ॥ 29 ॥
अपनेको सदा सेवक समझकर शास्त्रीय विधिसे मुझ परमात्माको सदा पाद्य आदि सोलह उपचारोंका जो समर्पण करना है, उसे अर्चन कहा जाता है ॥ 30 ॥ वाणीसे मन्त्रका उच्चारण करते हुए तथा मनसे ध्यान करते हुए आठों अंगोंसे भूमिका स्पर्श करते हुए जो इष्टदेवको अष्टांग प्रणाम किया जाता है, उसे * वन्दन कहा जाता है ॥ 31 ॥ ईश्वर मंगल अमंगल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मंगलके लिये है-ऐसा दृढ़ विश्वास रखना सख्य भक्तिका लक्षण है ॥ 32 ॥
देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जानेवाली वस्तु है, वह सब भगवानकी प्रसन्नताके लिये उन्हींको समर्पित करके अपने निर्वाहके लिये कुछ भी बचाकर न रखना अथवा निर्वाहकी चिन्तासे भी रहित हो जाना, आत्मसमर्पण कहा जाता है ॥ 33 ॥
मेरी भक्तिके ये नौ अंग हैं, जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। इनसे ज्ञान प्रकट हो जाता है तथा ये साधन मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मेरी भक्तिके अनेक उपांग भी कहे गये हैं। जैसे बिल्व आदिका सेवन, इनको विचारसे समझ लेना चाहिये ।। 34-35 ।।
हे प्रिये इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है। यह ज्ञान-वैराग्यकी जननी है और मुक्ति इसकी दासी है। हे देवि भक्ति सर्वदा सभी कर्मोंके फलोंको देनेवाली है, यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है। जिसके चित्तमें नित्य निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है । 36-37॥हे देवेशि ! तीनों लोकों और चारों युगों में भक्तिके समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुगमें तो यह विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है; क्योंकि कलियुगमें प्राय: ज्ञान और वैराग्य दोनों ही ग्राहकके अभावके कारण वृद्ध, उत्साहशून्य और जर्जर हो जाते हैं ॥ 38-39 ।।
परंतु भक्ति कलियुगमें तथा अन्य सभी युगों में भी प्रत्यक्ष फल देनेवाली है। भक्तिके प्रभावसे मैं सदा भतके वशमें रहता हूँ, इसमें सन्देह नहीं है ll 40 ll
संसारमें जो भक्तिमान् पुरुष है, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ और उसके कष्टोंको दूर करता हूँ। उस भक्तका जो शत्रु होता है, वह मेरे लिये दण्डनीय है, इसमें संशय नहीं है ॥ 41 ll
हे देवि मैं अपने भक्तोंका रक्षक है, भक्तकी रक्षाके लिये ही मैंने कुपित होकर अपने नेत्रजनित अग्निसे कालको भी भस्म कर डाला था ॥ 42 ॥
हे देवि! भक्तकी रक्षाके लिये मैं पूर्वकालमें सूर्यपर भी अत्यन्त क्रोधित हो उठा था और मैंने त्रिशूल लेकर सूर्यको भी जीत लिया था ॥ 43 ॥ हे देवि मैंने भक्तके लिये सैन्यसहित रावणको भी क्रोधपूर्वक त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया। हे देवि! भक्तोंके लिये ही मैंने कुमतिसे ग्रस्त व्यासको नन्दीद्वारा दण्ड दिलाकर उन्हें काशीके बाहर निकाल दिया ।। 44-45 ll हे देवेशि ! बहुत कहनेसे क्या लाभ, मैं सदा ही भलके अधीन रहता हूँ और भक्ति करनेवाले पुरुषके अत्यन्त वशमें हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ll 46 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ नारद!] इस प्रकार भक्तिका महत्त्व सुनकर दक्षकन्या सतीको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिवको मन ही मन प्रणाम किया ।। 47 ।।
हे मुने। देवी सतीने पुनः भक्तिविषयक शास्त्रके विषयमें बड़े आदरपूर्वक पूछा, जो लोकमें सुखदायक तथा जीवोंके उद्धारका साधन है ॥ 48 ॥
हे मुने ! उन्होंने यन्त्र, मन्त्रशास्त्र, उनके माहात्म्य तथा अन्य जीवोद्धारक धर्ममय साधनों के विषय में विशेष रूपसे जाननेकी इच्छा प्रकट की ।। 49 ।।सतीके इस प्रश्नको सुनकर शंकरजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने जीवोंके उद्धारके लिये सब शास्त्रोंका प्रेमपूर्वक वर्णन किया ॥ 50 ॥
महेश्वरने पाँचों अंगसहित तन्त्रशास्त्र, यन्त्रशास्त्र तथा भिन्न-भिन्न देवेश्वरोंकी महिमाका वर्णन किया ॥ 51 ॥
हे मुनीश्वर ! महेश्वरने कृपा करके इतिहास - कथासहित उन देवताओंके भक्तोंकी महिमा, वर्णाश्रमधर्म, राजधर्म, पुत्र और स्त्रीके धर्मकी महिमा, कभी नष्ट न होनेवाले वर्णाश्रम, जीवोंको सुख देनेवाले वैद्यकशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र, उत्तम सामुद्रिकशास्त्र तथा अन्य भी बहुतसे शास्त्रोंका तत्त्वतः वर्णन किया ॥ 52-54 ॥
इस प्रकार लोकोपकार करनेके लिये सद्गुणसम्पन्न शरीर धारण करनेवाले, तीनों लोकोंको सुख देनेवाले सर्वज्ञ परब्रह्मस्वरूप शिव और सतीने हिमालयपर्वतके कैलासशिखरपर तथा अन्यान्य स्थानोंमें अनेक प्रकारकी लीलाएँ कीं ॥ 55-56 ॥