ब्रह्माजी बोले- हे मुने। एक समय आपके साथ जाकर मैंने त्रिलोकीकी सर्वस्वभूता उन सतीको अपने पिताके पास बैठी हुई देखा ॥ 1 ॥पिताके द्वारा नमस्कृत तथा सत्कृत होते हुए हमदोनोंको देखकर लोकलीलाका अनुसरण करनेवाली उन सतीने प्रेमपूर्वक भक्तिके साथ आपको तथा मुझे प्रणाम किया ॥ 2 ॥
हे नारद! प्रणाम करनेके पश्चात् दक्षके द्वारा दिये गये आसनपर हम दोनों बैठ गये, इसके बाद विनम्र सतीको देखकर मैंने कहा- हे सति। जो तुम्हें चाहता है तथा जिसे तुम चाहती हो, उन सर्वज्ञ जगदीश्वरको तुम पतिरूपमें प्राप्त करो जिसने [[तुम्हारे अतिरिक्त] दूसरी स्त्रीका पाणिग्रहण नहीं किया है, जो वर्तमानमें भी न करते हैं, न करेंगे और हे शुभे। जिनकी समता कोई और करनेवाला नहीं है, वे ही [इस समय ] तुम्हारे पति हों ॥ 3-5 ॥ हे नारद! ऐसा कहकर कुछ दिन दक्षके घर निवासकर हमदोनों उनसे विदा लेकर अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥ 6 ॥
मेरी बात सुनकर दक्ष परम प्रसन्न होकर चिन्तारहित हो गये और अपनी कन्याको परमेश्वरी जानकर उनका बड़ा सत्कार करने लगे ॥ 7 ॥
अपनी इच्छासे मनुष्यशरीर धारण करनेवाली, | भक्तवत्सला देवीने मनोहर कौमारोचित विहार करके अपनी कौमार्यावस्था समाप्त की ॥ 8 ॥
अपनी तपस्याके प्रभावसे सर्वागमनोहरा उन सतीने धीरे-धीरे बाल्यावस्था समाप्तकर युवावस्थाको प्राप्त किया ॥ 9 ॥
लोकेश दक्षप्रजापति उस कन्याको युवावस्थाको प्राप्त हुई देखकर विचार करने लगे कि अपनी इस पुत्रीको शिवके लिये किस प्रकार प्रदान करूँ ॥ 10 ॥
इधर, वे सती भी प्रतिदिन शिवको प्राप्त करनेकी इच्छा करने लगीं। पिताके मनोभावको जानकर में माताके पास आयी। विशाल बुद्धिवाली 1 उन सती परमेश्वरीने शंकरको प्राप्त करनेकी इच्छा तप करनेके लिये अपनी माता वीरिणीसे आज्ञा माँगी। तब दृढ़ व्रतवाली वे सती माताकी आज्ञासे महेश्वरको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये घरमें ही तपस्या करने लगीं ॥। 11-13 ॥उन्होंने विनासकी प्रत्येक नन्दा तिथि प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशीमें गुड़, भात तथा सवनसे भक्तिपूर्वक हरका पूजन किया, इस प्रकार उस मासको बिता दिया ॥ 14 ॥
कार्तिकमासकी चतुर्दशीको खीर तथा अपूपसे शिवजीकी आराधनाकर वे उनका स्मरण करने लगीं ।। 15 ।।
वे मार्गशीर्षके कृष्णपक्षकी अष्टमीको यव, | तिल एवं चावलसहित कीलोंसे शिवजीका पूजनकर दिन बिताने लगीं ॥ 16 ॥
वे सती पौषमासके शुक्लपक्षको सप्तमी तिथिको रात्रिमें जागरण करके प्रातः काल खिचड़ीसे शिवका पूजन करने लगीं ॥ 17 ॥
माघकी पूर्णिमा तिथिको रात्रिमें जागरणकर प्रातःकाल भीगे कपड़े पहनकर वे नदीके किनारे शिवका पूजन करने लगीं ॥ 18 ॥
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीको रात्रिमें जागरणकर सब प्रहरोंमें बिल्वपत्र तथा बिल्वफलसे शिवकी विशेष पूजा करने लगीं ॥ 19 ॥
चैत्र शुक्ल चतुर्दशीको वे सती पलाशपुष्प तथा दवनों [दौनों]-से शिवजीकी पूजा करती थीं और दिन-रात उनका स्मरण करती हुई समय व्यतीत करती थीं ॥ 20 ॥
वैशाख शुक्ल तृतीयाको गव्य, तिलाहार, यव एवं चावलोंसे शिवजीका पूजनकर उस मासको व्यतीत करने लगीं ॥ 21 ॥
ज्येष्ठकी पूर्णिमाके दिन निराहार रहकर रात्रिमें वस्त्र एवं भटकटैयाके पुष्पोंसे शिवजीका पूजन करके वे सती उस मासको व्यतीत करने लगीं ॥ 22 ॥
वे आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशीको काले वस्त्र एवं भटकटैयाके पुष्पोंसे शिवजीकी पूजा करने लगीं ॥ 23 ॥
वे श्रावण शुक्ल अष्टमी तथा चतुर्दशी तिथिको पवित्र यज्ञोपवीत तथा वस्त्रोंसे शिवका पूजन करने लगीं ।। 24 ।।
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशीको अनेक प्रकारके पुष्पों तथा फलोंसे शिक्का पूजन करके वे चतुर्दशी तिथिमें केवल जलका आहार करती थीं ॥ 25 ॥इस प्रकार वे परिमित आहार करके जप करती हुई उन-उन कालोंमें उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकारके फल, पुष्प तथा शस्योंद्वारा प्रत्येक महीने शिवार्चन करती थीं ॥ 26 ॥
अपनी इच्छासे मानवरूप धारण करनेवाली वे सती दृढ़ व्रतसे युक्त होकर सभी महीनोंमें तथा सभी दिनोंमें शिवपूजनमें तत्पर रहने लगीं ॥ 27 ॥
इस प्रकार नन्दाव्रतको पूर्णरूपसे समाप्त करके भगवान् शिवमें अनन्य भाव रखनेवाली सती एकाग्रचित्त होकर बड़े प्रेमसे भगवान् शिवका ध्यान करने लगों तथा उनके ध्यानमें ही निश्चलभावसे स्थित हो गयीं ॥ 28 ॥
हे मुने। इसी समय सब देवता और ऋषि भगवान् विष्णुको और मुझको आगे करके सतीकी तपस्या देखनेके लिये गये ॥ 29 ॥
वहाँ आकर देवताओंने देखा कि सती मूर्तिमती दूसरी सिद्धिके समान जान पड़ती हैं। वे उस समय भगवान् शिवके ध्यानमें निमग्न थीं और सिद्धावस्थामें | पहुँच गयी थीं ॥ 30 ॥
विष्णु आदि समस्त देवताओं तथा मुनियोंने प्रसन्नचित्त होकर दोनों हाथ जोड़कर तथा सिर झुकाकर प्रेमपूर्वक सतीको नमस्कार किया ॥ 31 ॥
इसके बाद अति प्रसन्न श्रीविष्णु आदि सब देवता और मुनिगण आश्चर्यचकित होकर सती देवीकी तपस्याकी [भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ॥ 32 ॥
तदनन्तर वे सभी देवता और ऋषिगण सती | देवीको पुनः प्रणामकर भगवान् शिवजीके परमप्रिय श्रेष्ठ कैलास पर्वतपर शीघ्र ही चले गये॥ 33॥
लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णु और सावित्री सहित मैं भी प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिवके समीप गया ॥ 34 ॥
वहाँ पहुँचकर आश्चर्यचकित होकर सभी लोगोंने प्रभुका दर्शनकर उन्हें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे थे उनकी स्तुति करने लगेll 35 ॥देवता बोले- परम पुरुष, महेश्वर, परमेश्वर और महान् आत्मावाले सभी प्राणियोंके आदिबीज, चेतन स्वरूप, परात्पर, ब्रह्मस्वरूप, निर्विकार और प्रकृति तथा पुरुषसे परे उन आप भगवान्को नमस्कार है, जिनसे यह चराचर जगत् उत्पन्न हुआ है । ll 36-37 ।।
जो प्रपंचरूपसे स्वयं सृष्टिस्वरूप हैं तथा जिनकी सत्तासे समस्त संसार भासित हो रहा है, जिनके द्वारा यह जगत् उत्पन्न हुआ है, जिनके अधीन यह समस्त जगत् है, जिनका यह सब कुछ है ॥ 38 ॥
जो इस जगत्के बाहर तथा भीतर व्याप्त हैं, जो निर्विकार और महाप्रभु हैं, जो अपनी आत्मामें ही इस समस्त विश्वको देखते हैं, उन स्वयम्भू परमेश्वरको हमलोग नमस्कार कर रहे हैं ॥ 39 ॥
जिनकी दृष्टि कही नहीं रुकती, जो परात्पर, सभी प्राणियोंके साक्षी, सर्वात्मा, अनेक रूपोंको धारण करनेवाले, आत्मस्वरूप, परब्रह्म तथा तप करनेवाले हैं, हमलोग उनकी शरणमें आये हैं ॥ 40 ॥
देवता, ऋषि तथा सिद्ध भी जिनके पदको नहीं जानते हैं तो फिर अन्य प्राणी उनको किस प्रकार जान सकते हैं? और किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं? जिनको देखनेके लिये मुक्तसंग साधुजन ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका आचरण करते हैं, वे आप हमारी उत्तम गति हैं ।। 41-42 ।।
हे प्रभो! दुःख देनेवाले जन्मादि कोई भी विकार आपमें नहीं होते, फिर भी आप अपनी मायासे कृपापूर्वक उन्हें ग्रहण करते हैं ।। 43 ।।
आश्चर्यमय कर्म करनेवाले उन आप परमात्माको नमस्कार है। वाणीसे सर्वथा परे आप परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है ॥ 44 ll
बिना रूपके होते हुए भी बहुत रूपोंवाले, परात्पर, अनन्तशक्तिसे समन्वित, त्रिलोकपति, सर्वसाक्षी तथा सर्वव्यापीको नमस्कार है। स्वयं प्रकाशमान, निर्वाणसुख तथा सम्पत्तिस्वरूप, ज्ञानात्मा तथा व्यापक आप ईश्वरको नमस्कार है ।। 45-46 ।।
निष्काम कर्मके द्वारा प्राप्त होनेवाले कैवल्य पतिको नमस्कार है। परम पुरुष, परमेश्वर तथा सब कुछ देनेवाले आप प्रभुको नमस्कार है ॥ 47 ॥क्षेत्रज्ञ, आत्मस्वरूप, सभी प्रत्ययोंके हेतु सबके पति महान् तथा मूलप्रकृतिको नमस्कार है। पुरुष, परेश तथा सब कुछ प्रदान करनेवाले आप [ परमात्मा] को नमस्कार है ।। 48-49 ।।
हे कारणरहित! त्रिनेत्र, पाँच मुखवाले तथा सर्वदा ज्योतिः स्वरूप! आपको नमस्कार है। सभी इन्द्रियों और गुणोंको देखनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है ॥ 50 ॥
तीनों लोकोंके कारण, मुक्तिस्वरूप, मोक्ष प्रदान करनेवाले, शीघ्र ही शरणागतको तारनेवाले, आम्नाय [वेद] तथा आगमशास्त्र के समुद्र, परमेष्ठी तथा भक्तोंके आश्रयरूप आप प्रभुको नमस्कार है ॥ 51-52 ॥
हे महेश्वर! आप गुणरूपी अरणीसे आच्छन्न, चित्स्वरूप, अग्निरूप, मूर्खोके द्वारा प्राप्त न होनेवाले, ज्ञानियोंके हृदयमें सदा निवास करनेवाले, संसारी जीवोंके बन्धनको काटनेवाले, उत्तम भक्तोंको मुक्ति प्रदान करनेवाले, स्वप्रकाशस्वरूप, नित्य, अव्यय, निरन्तर ज्ञानस्वरूप, प्रत्यक्ष द्रष्टा, अविकारी तथा परम ऐश्वर्य धारण करनेवाले हैं, आप प्रभुको नमस्कार है ॥ 53-541/2 ।।
लोग धर्म-अर्थ-काम-मोक्षके लिये जिनका भजन करते हैं तथा जिनसे अपनी सद्गति चाहते हैं, ऐसे [हे प्रभो!] आप हम सभीके लिये दयारहित कैसे हो गये ? हमपर प्रसन्न हों, आपको नमस्कार है ॥ 55 ॥ आपके अनन्य भक्त आपसे किसी अन्य अर्थकी अपेक्षा नहीं करते हैं, वे तो केवल आपके मंगलस्वरूप चरित्रको ही गाया करते हैं ॥ 56 ॥
अविनाशी, परब्रह्म अव्यवस्वरूपवाले व्यापक अध्यात्म तथा योगसे जाननेयोग्य तथा परिपूर्ण आप प्रभुकी हमलोग स्तुति करते हैं ॥ 57 ॥
हे अखिलेश्वर इन्द्रियोंसे परे, स्वयं आधाररहित, सबके आश्रय, हेतुरहित, अनन्त, आद्य और सूक्ष्म आप प्रभुको हम सभी प्रणाम करते हैं ॥ 58 ॥
आपने अपनी तुच्छ कलामात्रसे नामरूपके द्वारा विष्णु आदि सभी देवताओं तथा इस चराचर जगत्की [अलग-अलग] सृष्टि की है ॥59॥जैसे अग्निकी चिनगारियाँ तथा सूर्यकी किरणें बार-बार निकलती हैं और फिर उन्हींमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार सृष्टिका यह प्रवाह त्रिगुणात्मक कहा जाता है ॥ 60 ॥
हे प्रभो! आप न देवता हैं, न असुर हैं, न मनुष्य हैं, न पक्षी हैं, न द्विज हैं, न स्त्री हैं, न पुरुष हैं, न नपुंसक हैं; यहाँतक कि सत्-असत् कुछ भी नहीं हैं। श्रुतियोंके निषेधसे जो शेष बचता है, वही निषेध स्वरूप आप हैं। आप विश्वकी उत्पत्ति करनेवाले, विश्वके पालक, विश्वका लय करनेवाले तथा विश्वात्मा हैं, उन ईश्वरको हम सभी प्रणाम करते हैं ।। 61-62 ll
योगसे दग्ध हुए कर्मवाले योगीलोग अपने योगासक्त चित्तमें जिन्हें देखते हैं, ऐसे आप योगेश्वरको हमलोग नमस्कार करते हैं ॥ 63 ॥
हे तीनों शक्तियोंसे सम्पन्न असह्य वेगवाले ! हे त्रयीमय! आपको नमस्कार है। अनन्त शक्तियोंसे युक्त तथा शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ 64 ॥
हे दुर्गेश ! दूषित इन्द्रियवालोंके लिये आप सर्वथा दुष्प्राप्य हैं; क्योंकि आपको प्राप्त करनेका मार्ग ही दूसरा है। सदा भक्तोंके उद्धारमें तत्पर | रहनेवाले तथा गुप्त शक्तिसे सम्पन्न आप प्रभुको नमस्कार है। जिनकी मायाशक्तिके कारण अहंबुद्धिसे युक्त मूर्ख अपने स्वरूपको नहीं जान पाता है, उन दुरत्यय महिमावाले आप महाप्रभुको हम नमस्कार करते हैं ।। 65-66 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] इस प्रकार महादेवजीकी स्तुति करके मस्तक झुकाये हुए विष्णु आदि सभी देवता उत्तम भक्तिसे युक्त हो प्रभु शिवजीके आगे चुपचाप खड़े हो गये ॥ 67 ॥