सूतजी बोले- तदनन्तर सत्यव्रत उनकी सेवाके उद्देश्यसे तथा कृपासे और अपनी प्रतिज्ञासे विश्वामित्रकी
पत्नीका [भरण ] पोषण करने लगा ॥ 1 ॥ हे मुने! वह मृग, वाराह, महिष तथा अन्य वनेचर जन्तुओंका वधकर उनका मांस नित्य विश्वामित्रके आश्रमके समीप रख देता था ॥ 2 ll
इधर व्यारुणिके वन चले जानेपर ] मुनि वसिष्ठ यजमान तथा पुरोहितके सम्बन्धसे उनके तीर्थ, पृथ्वी, राज्य तथा अन्तःपुरकी रक्षा करने लगे ॥ 3 ॥
सत्यव्रतके वचनसे अथवा होनहारकी प्रेरणासे वसिष्ठजी उसके प्रति अधिक क्रोध रखते थे। इसी कारणसे पिताके द्वारा राज्यसे अपने पुत्रके निकाल दिये जानेपर भी मुनि वसिष्ठने मना नहीं किया था ।। 4-5 ।।
यद्यपि पाणिग्रहण क्रियाकी समाप्ति सप्तपदीपर होती है, [ इससे पूर्व कन्याग्रहण विहित है, तथापि इसी बहाने इसका व्रत हो जायगा, इस प्रकारके] वसिष्ठजीके आशयको सत्यव्रत समझ नहीं सका। वसिष्ठजीने सोचा कि ऐसा करनेसे पिता भी प्रसन्न हो जायेंगे। और इसके कुलकी निष्कृति भी हो जायगी। इसलिये पिताके द्वारा परित्याग करनेपर भी वसिष्ठने उन्हें मना नहीं किया। उन्होंने सोचा कि उपांशुव्रत पूरा हो जानेपर में स्वयं इसका अभिषेक करूँगा, इसलिये उस समय मुनिने कुछ नहीं कहा ।। 6-8 ll
इस प्रकार उस बली राजपुत्रने बारह वर्षतक उस दीक्षाको धारण किया। किसी समय कहीं भी मांस न मिलनेपर उस राजकुमारने महात्मा वसिष्ठकी गौको देखा, जो सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी। हे मुने! क्रोध, लोभ एवं मोहके कारण चाण्डालधर्मको प्राप्त हुए क्षुधासे पीड़ित उस राजाने उस गायको मार दिया और उसने उसके मांगको स्वयं खाया और विश्वामित्रके पुत्रको भी खिलाया। तब यह सुनकर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ उसपर बहुत कुपित हुए और क्रोधित होकर उससे कहने लगे-॥ 9-12 ॥वसिष्ठजी बोले- अरे क्रूर। यदि तुझमें फिरसे -अरे किये गये ये दो शंकु (पाप) न होते तो मैं तेरे प्रथम शंकुको अवश्य नष्ट कर देता ॥ 13 ॥
[कन्याहरणद्वारा ] पिताको असन्तुष्ट करने, गुरुकी गायका वध करने और अप्रोक्षित मांसका भक्षण करनेके कारण तुमने तीन प्रकारका अपराध किया है, अतः तुम त्रिशंकु हो जाओगे, तब उनके इस प्रकार कहने पर वह त्रिशंकु -इस नामसे प्रसिद्ध हो गया । ll 149/2 ॥
जब विश्वामित्र तपस्याकर [ अपने आश्रम ] आये, तब त्रिशंकुके द्वारा अपनी स्त्रीका भरण पोषण किये जानेके कारण उन्होंने वर माँगनेके लिये उससे कहा, तब राजपुत्रने वर माँगा और उन मुनिने प्रसन्न होकर उस त्रिशंकुको वर प्रदान किया । ll 15-16 ॥
बारह वर्षकी इस अनावृष्टिका भय दूर हो जानेपर मुनिने उसे पिताके राज्यपर अभिषिक्त करके उससे यज्ञ कराया। उसके बाद प्रभु विश्वामित्रने वसिष्ठ एवं सभी देवताओंके देखते-देखते उसे सशरीर स्वर्ग भेज दिया ।। 17-18 ॥
केकयवंशमें उत्पन्न उसकी सत्यरथा नामक भार्यांने हरिश्चन्द्र नामक निष्पाप पुत्रको उत्पन्न किया। वे ही राजा हरिश्चन्द्र त्रिशंकुके पुत्र होनेसे शंकव भी कहे गये हैं। ये राजसूययज्ञके कर्ता और चक्रवर्ती राजाके रूपमें प्रसिद्ध हुए ll 19-20 ॥
हरिश्चन्द्रका पुत्र रोहित नामसे प्रसिद्ध हुआ । | रोहितका पुत्र वृक था और वृकसे बाहु उत्पन्न हुआ ॥ 21 ॥
हे विप्रो उस धर्मयुगमें वह राजा सम्यग् रीति से धर्मका पालन नहीं करता था, [जिसके कारण] हैहय और तालगंध राजाओंने उसे [धर्महीन जानकर ] राज्यसे हटा दिया। [तत्पश्चात् ] और्वके आश्रम में आकर भार्गवके द्वारा रक्षित उस बाहुने गरसहित सगर नामक पुत्रको उत्पन्न किया ॥ 22-23 ॥ राजा सगरने भार्गवसे आग्नेयास्त्र पाकर हैहयवंशी तालबंधों, शकों, बहूदकों, पारदों एवं गणोंसहित खशोंको मारकर पृथ्वीको जीत लिया एवं उत्तम धर्मकी स्थापना की तथा धर्मपूर्वक पृथ्वीपर शासन किया ।। 24-25 ।।शौनक बोले- हे सूतजी! वे [सगर] क्षत्रिय बाहुसे किस प्रकार गरके सहित उत्पन्न हुए और उन्होंने किस प्रकार सभीको जीता, इसे विस्तारपूर्वक कहिये ll 26 ll
सूतजी बोले- हे मुने! परीक्षित् पुत्र (जनमेजय के पूछनेपर वैशम्पायनने जो कहा था, उसीको मैं कह रहा हूँ, आप एकाग्रचित्त होकर सुनें ॥ 27 ॥
परीक्षित्के पुत्र (जनमेजय) बोले- हे मुने! वे राजा सगर किस प्रकार गरसहित उत्पन्न हुए और उन्होंने उन राजाओंका वध कैसे किया ? आप इसे बतानेकी कृपा करें ।। 28 ।।
वैशम्पायन बोले—हे तात! हे विशाम्पते ! व्यसन- ग्रस्त बाहुका सारा राज्य शर्कोंके साथ हैहयवंशी तालजंघोंने छीन लिया ।। 29 ।।
यवन, पारद, काम्बोज, पाह्रव और बहूदक राक्षसोंके ये पाँच गण कहे गये हैं। हे राजन् ! राक्षसोंके इन पाँच गणोंने हैहयोंके लिये पराक्रम करके बलपूर्वक बाहुका राज्य उन्हें दे दिया । ll 30-31 ॥
नष्ट राज्यवाला वह राजा [बाहु] दुःखित होकर अपनी पत्नीके साथ वन चला गया और उसने प्राण त्याग दिये। उसकी जो यादवी नामक पत्नी साथमें गयी थी, वह गर्भिणी अवस्थामें थी और उसकी सौतने पुत्रके ईर्ष्यावश उसे विष दे दिया ।। 32-33 ॥
हे राजन् ! वह पतिकी चिता बनाकर अग्निमें प्रवेश करने लगी, तब भार्गव और्वने दयापूर्वक उसे [सती होनेसे] रोक दिया। उसके अनन्तर अपने गर्भकी रक्षाके लिये वह उन्हींके आश्रममें निवास करने लगी और मनमें शंकरका ध्यान करती हुई उन महामुनिकी सेवा करने लगी ॥ 34-35 ॥
किसी समय पाँच उच्च ग्रहोंसे युक्त शुभ मुहूर्त तथा शुभ लग्नमें उसका गर्भ विषके साथ उत्पन्न हुआ ।। 36 ।।
हे मुनिश्रेष्ठ! उस सर्वथा बलवान् लग्नमें महाबाहु राजा सगरने जन्म लिया ॥ 37 ॥और्वने उस महात्माके जातकर्म आदि संस्कार करके बादमें वेद- शास्त्रोंको पढ़ाकर उसे अस्त्र विद्या सिखायी और उन नृपश्रेष्ठ महाभाग सगरने विधिपूर्वक प्रसन्नतासे देवताओंके लिये भी दुःसह उस आग्नेयास्त्रकी शिक्षा ग्रहण की ॥ 38-39 ।।
इसके बाद उसने अपनी सेनासे युक्त होकर आग्नेयास्त्रके बलसे क्रुद्ध हो शीघ्र ही हैहयोंका वध किया और यशस्वियोंमें श्रेष्ठ उन सगरने लोकों में अपना यश फैलाया तथा पृथ्वीतलपर धर्मकी स्थापना की ।। 40-41 ।।
तब उनके द्वारा मारे जाते हुए शक, यवन, काम्बोज तथा पाहूव [नरेश भयभीत हो] वसिष्ठकी शरणमें गये। महातेजस्वी वसिष्ठने नैतिक छल करके कुछ शर्तोंके द्वारा उन्हें अभय प्रदानकर राजा सगरको उनका वध करनेसे रोक दिया ।। 42-43 ॥
सगरने अपनी प्रतिज्ञा और गुरुके वाक्यको ध्यानमें रखकर उनके धर्म नष्ट कर दिये और उनके केशोंको विरूप कर दिया ।। 44 ।।
उन्होंने शकोंका आधा सिर और यवनों तथा काम्बोजोंका सारा सिर मुंडवाकर उन्हें छोड़ दिया ।। 45 ।। उन महात्माने पारदोंका केश मुड़वा दिया तथा पह्नवोंको दाढ़ी- मूँछ धारण करा दिया और उन्हें स्वाध्याय एवं वषट्कारसे रहित कर दिया ॥ 46 ॥
हे तात! पूर्वकालमें उस राजाने सम्पूर्ण पृथ्वीको धर्मपूर्वक जीत लिया और उन सभी क्षत्रियोंको 'धर्महीन बना दिया। इस प्रकार उस धर्मविजयी राजाने इस पृथ्वीको जीतकर अश्वमेध यज्ञ करनेके लिये एक घोड़ेका संस्कार कराया ।। 47-48 ।।
हे मुने! अश्वको छोड़ दिये जानेपर वह पूर्व | दक्षिण समुद्रके तटपर पहुँच गया, राजा सगरके साठ हजार पुत्र उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले देवराज इन्द्रने समुद्रके तटसे उस घोड़ेको चुरा लिया और उसे भूमितलमें रख दिया ।। 49-50 ।।
तब महाराज सगरने उस घोड़ेको खोजने के लिये अपने पुत्रोंसे उस देशको सभी ओरसे खुदवा डाला ॥ 51 ॥तदनन्तर उन सबने उस खोदे जाते हुए महासागरमें विश्वरूपी आदिपुरुष उन प्रभु [महर्षि] कपिलको प्राप्त किया ॥ 52 ॥
उनके जागते ही उनके नेत्रोंसे निकली हुई अग्निके द्वारा [ सगरके] साठ हजार पुत्र जल गये और केवल चार ही शेष रहे। हर्षकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और पराक्रमी पंचजन—ये ही उनके वंशको चलानेवाले राजा बचे थे ॥ 53-54 ॥
भगवान् कपिलने [प्रसन्न होकर] उन्हें स्वयं वंश, विद्या, कीर्ति, पुत्रके रूपमें समुद्र और धन- ये पाँच वर दिये। अपने उस कर्मसे समुद्रने सागरत्व अर्थात् सगरका पुत्रत्व प्राप्त किया और उन्होंने उस आश्वमेधिक घोड़ेको भी समुद्रसे प्राप्त किया। उन महायशस्वीने सौ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये और शिवकी विभूतियों तथा सच्चरित्र देवताओंका पूजन किया ॥ 55-57 ॥