View All Puran & Books

शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 2 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 2

Previous Page 54 of 466 Next

सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य

सूतजी बोले- हे नैमिषारण्यनिवासी मुनियो ! [ब्रह्माके] इस वचनको सुनकर नारदने पुनः पापोंको नष्ट करनेवाली कथा पूछी- ॥ 1 ॥

नारदजी बोले - हे विधे! हे विधे! हे महाभाग हे महाप्रभो! आपके मुखकमलसे कही जानेवाली कल्याण कारिणी कथाको सुनकर मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ll 2 ॥

हे विश्वस्रष्टा ! सतीकी कीर्तिसे युक्त शिवजीके कल्याणमय तथा दिव्य उस सम्पूर्ण चरित्रको कहिये, मैं उसे सुनना चाहता हूँ। दक्षकी अनेक पत्नियोंमें से शोभामयी सती किस प्रकार उत्पन्न हुई और हरने किस प्रकार स्त्रीसे विवाह करनेका विचार किया ? ॥ 3-4 ll

पूर्वकालमें सतीने दक्षपर क्रोधसे किस प्रकार अपने शरीरका त्याग किया? पुनः किस प्रकार हिमालयकी कन्या पार्वती हुईं और किस प्रकारसे प्रकाशमें आय ? ॥ 5 ॥

पार्वतीका कठोर तप तथा उनका विवाह किस प्रकार हुआ ? फिर वे कामदेवका नाश करनेवाले शिवकी अर्धांगिनी कैसे हुई ? ॥ 6 हे महामते। इन सब बातोंको आप विस्तारके साथ कहिये; आपके समान संशयोंको दूर करनेवाला कोई दूसरा न तो है और न ही होगा ॥ 7 ॥ब्रह्माजी बोले- हे मुने शिव तथा सती के परम पावन दिव्य एवं गुझसे गुह्यतम तथा परम कल्याणकारी चरित्रको सुनिये हे मुने। पूर्वकालमें परोपकार के लिये विष्णुद्वारा महान् भक्तिसे पूछे जानेपर शिवजीने भक्तवर विष्णुसे इसका वर्णन किया था ।। 8-9 ।।

हे मुनिश्रेष्ठ! उसके बाद मैंने भी यह कथा शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ बुद्धिमान् विष्णुसे पूछी, तब उन्होंने प्रीतिपूर्वक विस्तारसे मुझसे कहा था मैं सभी कामनाओं का फल प्रदान करनेवाली एवं शिवके यशसे युक्त उस प्राचीन कथाको आपसे कहूँगा ॥ 10-11 ॥

पहले भगवान् शिव निर्गुण, निर्विकल्प, रूप हीन, शक्तिसे रहित, चिन्मात्र एवं सत्-असत्से परे थे; फिर हे विप्र वे प्रभु सगुण, द्विरूप, शक्तिमान् उमासहित दिव्य आकृतिवाले, विकाररहित तथा परात्पर हो गये । ll 12-13 ।।

हे मुनिसत्तम! उनके वामांग से विष्णु दक्षिणांग मैं ब्रह्मा तथा हृदयसे रुद्रकी उत्पत्ति हुई। मैं ब्रह्मा सृष्टि करनेवाला और विष्णु पालन करनेवाले तथा रुद्र स्वयं लय करनेवाले हुए। इस प्रकार सदाशिवके तीन रूप हुए। ll 14-15 ।।

लोकपितामह मुझे ब्रह्माने उन्हीं सदाशिवकी आराधनाकर देव, दैत्य, मनुष्य आदि समस्त प्रजाओंकी सृष्टि की। दक्ष आदि प्रमुख प्रजापतियोंकी तथा | देवश्रेष्ठोंकी रचनाकर मैं बड़ा ही प्रसन्न हुआ तथा अपनेको सबसे महान् समझने लगा ॥ 16-17॥

हे मुने! जिस समय मुझ ब्रह्माने मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वसिष्ठ, नारद, दक्ष एवं भृगु — इन महान् प्रभुतासम्पन्न मानस पुत्रोंकी सृष्टि की, उसी समय मेरे मनसे एक सुन्दर रूपवाली श्रेष्ठ युवती भी उत्पन्न हुई ।। 18-19 ।।

वह सन्ध्याके नामसे प्रसिद्ध हुई, जो प्रातः सन्ध्या तथा सायं सन्ध्याके रूपमें क्रमशः दिवाक्षान्ता तथा जपन्तिका कही गयी। वह अत्यन्त सुन्दरी, सुन्दर भौकाली तथा मुनियोंकि मनको मोहित करनेवाली थी ॥ 20 ॥सम्पूर्ण गुणोंसे युद्ध कैसी स्त्री देवलोक, मृत्युलोक और पाताललोकमें न उत्पन्न हुई, न है और न तो होगी। वह सम्पूर्ण गुणोंसे परिपूर्ण थी ॥ 21 ॥

उस कन्याको देखते ही उठ करके उसे हृदयमें धारण करनेके लिये मैं मनमें सोचने लगा। दक्ष तथा मरीचि आदि लोकस्रष्टा मेरे पुत्र भी सोचने लगे। हे मुनिसत्तम! मैं ब्रह्मा अभी इस प्रकार सोच ही रहा था कि उसी समय एक अत्यन्त अद्भुत एवं मनोहर मानस पुरुष उत्पन्न हुआ ।। 22-23 ।।

हे तात! वह पुरुष तप्त सुवर्णके समान कान्तिवाला, स्थूल वक्षःस्थलवाला, सुन्दर नासिकावाला, सुन्दर तथा गोल ऊरु-कमर-जंघावाला, काले तथा घराले बालोंवाला, आपसमें मिली हुई भौंहाँवाला पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाला, कपाटके समान विस्तीर्ण छातीवाला, रोमराजिसे सुशोभित, बादलपर्यन्त ऊँचे गजराजके समान आकृतिवाला, महास्थूल तथा नीलवर्णका सुन्दर वस्त्र धारण किये, रक्तवर्णके हाथ, नेत्र, मुख, पैर और अँगुलियोंवाला, पतली कमरवाला, सुन्दर दाँतोंवाला, मतवाले हाथीकी-सी गन्धवाला, खिले हुए कमलके पत्रसदृश नेत्रोंवाला, अंगोंपर लगे हुए केसरसे नासिकाको तृप्त करनेवाला, शंखके समान गरदनवाला, मछलीके चिह्नसे अंकित ध्वजावाला, अत्यन्त ऊँचा, मकरके वाहनवाला, पुष्पोंके पाँच वाणोंसे युक्त, वेगवान्, पुष्पधनुषसे सुशोभित, कटाक्षपातसे अपने नेत्रोंको घुमाते हुए मनोहर प्रतीत होनेवाला, सुगन्धित श्वाससे युक्त और श्रृंगाररससे सेवित था ।। 24- 29 ॥

उस पुरुषको देखकर मेरे दक्ष आदि पुत्रोंका मन आश्चर्यसे भर गया और वे उसे जाननेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो गये ॥ 30 ॥

वासनासे आकुल चित्तवाले मेरे उन पुत्रोंका मन शीघ्र ही विकृत हो गया, हे तात! उन्हें थोड़ा भी धैर्य नहीं प्राप्त हुआ ॥ 31 ॥

वह पुरुष स्रष्टा तथा जगत्पति मुझ ब्रह्माको देखकर विनयभावसे सिर झुकाकर प्रणाम करके मुझसे कहने लगा- ॥ 32 ॥पुरुष बोला- हे ब्रह्मन्! मैं कौन-सा कार्य करूँ? [ मुझे जो कर्म करणीय हो, ] उस कर्ममें मुझे नियुक्त कीजिये। हे विधाता! आप मेरे मान्य पुरुष हैं, मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँ, यही उचित है तथा इसीसे मेरी शोभा भी होगी ॥ 33 ॥

मेरे लिये जो अभिमानयोग्य स्थान हो तथा जो मेरी पत्नी हो, उसे मुझे बताइये। हे त्रिलोकेश! आप जगत्के पति हैं ॥ 34 ॥

ब्रह्माजी बोले- उस महात्मा पुरुषके इस वचनको सुनकर मैं ब्रह्मा अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गया और थोड़ी देरतक कुछ नहीं बोला, फिर मनको नियन्त्रितकर और आश्चर्यका परित्याग करके उस कामदेवको बताते हुए कहने लगा- ॥ 35-36 ॥ ब्रह्माजी बोले- तुम अपने इस स्वरूपसे और पुष्पोंके पाँच बाणोंसे सभी स्त्री तथा पुरुषोंको मोहित करते हुए सनातन सृष्टिकी रचना करो। इस चराचर त्रिलोकीमें जीव तथा देवता आदि कोई भी तुम्हारा लंघन करनेमें समर्थ नहीं होंगे ।। 37-38 ll

हे पुरुषोत्तम मैं, वासुदेव अथवा शंकर भी तुम्हारे वशमें रहेंगे, अन्य प्राणधारियोंकी तो बात ही क्या ? ॥ 39 ll

तुम गुप्त रूपसे प्राणियोंके हृदयमें प्रवेश करते हुए स्वयं सबके सुखके कारण बनकर सनातन सृष्टि करो ।। 40 ।।

समस्त प्राणियोंका विचित्र मन तुम्हारे पुष्पवागों का सुखपूर्वक भेदनेयोग्य लक्ष्य होगा: तुम सभीको सदा उन्मत्त करनेवाले होगे ॥ 41 ॥ मैंने सृष्टिमें प्रवृत्त करनेवाला यह तुम्हारा कर्म कह दिया ये मेरे पुत्र तत्त्वत्पूर्वक तुम्हारे नामोंका वर्णन करेंगे ।। 42 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे सुरश्रेष्ठ! ऐसा कहकर अपने पुत्रोंके मुखकी ओर देखकर क्षणभरके लिये मैं अपने पद्मासनपर बैठ गया ll 43 ॥

Previous Page 54 of 466 Next

शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य