ब्रह्माजी बोले- हे पुत्रवर! हे महाप्राज्ञ ! अब सन्ध्याके द्वारा किये गये महान् तपको सुनिये। जिसके सुननेसे पापसमूह उसी क्षण निश्चय ही नष्ट हो जाता है ॥ 1 ॥तपस्याका उपदेशकर वसिष्ठजीके अपने घर चले जानेपर सन्ध्या भी तपस्याकी विधिको जानकर अत्यन्त हर्षित हो गयी ॥ 2 ॥
वह बृहत्लोहितसरके सन्निकट प्रसन्नचित होकर अनुकूल वेष धारण करके तपस्या करने लगी ॥ 3 ॥ वसिष्ठजीने तपस्याके साधनभूत जिस मन्त्रको बताया था, उस मन्त्रसे वह शंकरजीका पूजन करने लगी 4 ॥
इस प्रकार सदाशिवमें चित्त लगाकर एकाग्र मनसे घोर तपस्या करती हुई उस सन्ध्याका एक चतुर्युग बीत गया ॥ 5 ॥
उसके पश्चात् उस तपस्यासे सन्तुष्ट हुए शिवजी उसके ऊपर प्रसन्न हो गये और बाहर-भीतर तथा आकाशमें उसे अपना विग्रह दिखाकर, वह [शिवजीके] जिस रूपका ध्यान करती थी, उसी रूपसे उसके समक्ष प्रकट हो गये ॥ 6-7 ॥
सन्ध्या अपने मनमें चिन्तित, प्रसन्नमुख तथा शान्तस्वरूप भगवान् शिवको सामने देखकर बहुत प्रसन्न हुई ॥ 8 ॥
मैं शिवजीसे क्या कहूँ तथा किस प्रकार इनकी स्तुति करूँ इस प्रकार चिन्तित होकर सन्ध्याने भयपूर्वक अपने नेत्रोंको बन्द कर लिया। तब नेत्र बन्द की हुई उस सन्ध्याके हृदयमें प्रविष्ट होकर शिवजीने उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य वाणी और दिव्य चक्षु प्रदान किये ।। 9-10 ॥
इस प्रकार उसने दिव्य ज्ञान, दिव्य चक्षु, दिव्य वाणी प्राप्त की और जगत्पति दुर्गेशको प्रत्यक्ष खड़ा देखकर वह उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगी - ॥ 11 ॥
सन्ध्या बोली- जिनका रूप निराकार, ज्ञानगम्य तथा पर है; जो न स्थूल, न सूक्ष्म, न उच्च ही है तथा जो योगियोंके द्वारा अन्तःकरणसे चिन्त्य है, ऐसे रूपवाले लोककर्ता आपको नमस्कार है ॥ 12 ॥
जिनका रूप सर्वस्वरूप, शान्त, निर्मल, निर्विकार, ज्ञानसे परे, अपने प्रकाशमें स्थित विकाररहित, आकाशमार्गस्वरूप एवं अन्धकारमार्गसे परे तथा प्रसन्न रहनेवाला है, ऐसे आपको नमस्कार है। जिनका रूपएक (अद्वितीय), शुद्ध, देदीप्यमान, मायारहित, चिदानन्द, सहज, विकाररहित, नित्यानन्दस्वरूप, सत्य और विभूतिसे युक्त, प्रसन्न रहनेवाला तथा समस्त श्रीको प्रदान करनेवाला है, उन आपको नमस्कार है ।। 13-14 ॥
जिनका रूप महाविद्याके द्वारा ध्यान करनेयोग्य सबसे सर्वथा भिन्न, परम सात्त्विक, ध्येयस्वरूप, आत्मस्वरूप, सारस्वरूप, संसारसागरसे पार करनेवाला है और पवित्रको भी पवित्र करनेवाला है, उन आपको नमस्कार है ॥ 15 ॥
जिनका आकार शुद्धरूप, मनोज्ञ, रत्नके समान स्वच्छ, कर्पूरके समान गौरवर्ण और हाथोंमें वर अभयमुद्रा, शूल-मुण्डको धारण करनेवाला है, उन आप योगयुक्त [ सदाशिव] को नमस्कार है ॥ 16 ॥
आकाश, पृथिवी, दिशाएँ, जल, ज्योति और काल जिनके स्वरूप हैं, ऐसे आपको नमस्कार है ॥ 17 ॥
जिनके शरीरसे प्रधान एवं पुरुषकी उत्पत्ति हुई है, उन अव्यक्तस्वरूप आप शंकरको बार-बार नमस्कार है ॥ 18 ॥
जो ब्रह्मारूप होकर [इस जगत्की] सृष्टि करते हैं, विष्णुरूप होकर पालन करते हैं तथा रुद्ररूप होकर संहार करते हैं, उन आपको बार-बार नमस्कार है ।। 19 ।।
कारणोंके कारण, दिव्य अमृतस्वरूप ज्ञानसम्पदा देनेवाले, समस्त लोकोंको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, प्रकाशस्वरूप तथा परात्पर [ शंकर] को बार-बार नमस्कार है ।। 20 ।।
जिनके अतिरिक्त यह जगत् और कुछ नहीं है। जिनके पैरसे पृथिवी, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, कामदेव तथा बहिर्मुख (अन्य देवता) और नाभिसे अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ है, उन आप शम्भुको मेरा नमस्कार है ॥ 21 ॥
हे हर आप सर्वश्रेष्ठ तथा परमात्मा हैं, आप विविध विद्या हैं, सद्ब्रह्म, परब्रह्म तथा ज्ञानपरायण हैं ।। 22 ll
जिनका न आदि है, न मध्य है तथा न अन्त है और जिनसे यह समस्त संसार उत्पन्न हुआ है, वाणी, तथा मनसे अगोचर उन सदाशिवकी स्तुति किस प्रकार करूँ ? ॥ 23 ॥ब्रह्मा आदि देवगण तथा तपोधन महर्षि भी
जिनके रूपोंका वर्णन नहीं कर पाते हैं, उनका वर्णन मैं किस प्रकार कर सकती हूँ ? 24 हे प्रभो! इन्द्रसहित समस्त देवगण तथा सभी असुर भी जब आपके रूपको नहीं जानते, तो आप जैसे निर्गुणके गुणोंको मेरे जैसी स्त्री किस प्रकार जान सकती है ॥ 25 ॥ हे महेशान! आपको नमस्कार है। हे तपोमय ! आपको नमस्कार है। हे शम्भो! हे देवेश! आपको बार बार नमस्कार है, आप [मेरे ऊपर] प्रसन्न होइये 26 ॥ ब्रह्माजी बोले- सन्ध्याके द्वारा स्तुत भक्तवत्सल परमेश्वर सदाशिव उसके वचनको सुनकर परम प्रसन्न हो गये ॥ 27 ॥
वे शिव वल्कल तथा कृष्णमृगचर्मयुक्त उसके शरीरको, जटासे आच्छन्न एवं पवित्री धारण किये हुए उसके सिरको तथा तुषारपातसे मुरझाये हुए | कमलके समान उसके मुखको देखकर दयामय होकर उससे इस प्रकार कहने लगे- ll 28-29 ।।
महेश्वर बोले - हे भद्रे ! तुम्हारी इस उत्कृष्ट तपस्यासे तथा तुम्हारी इस स्तुतिसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। हे शुभप्राज्ञे अब तुम वर माँगो ll 30 ll
जो भी तुम्हारा अभीष्ट हो तथा जिससे तुम्हारा कार्य पूर्ण हो, वह सब मैं करूँगा। हे भद्रे! तुम्हारी इस तपस्यासे मैं परम प्रसन्न हो गया हूँ ॥ 31 ॥ ब्रह्माजी बोले- महेश्वरका वचन सुनकर सन्ध्या बड़ी प्रसन्न हुई और उन्हें बार-बार प्रणामकर इस प्रकार कहने लगी- ॥32॥
सन्ध्या बोली हे महेश्वर! यदि आप प्रसन्नतापूर्वक वर देना चाहते हैं, यदि मैं आपसे वर प्राप्त करनेयोग्य हूँ तथा यदि मैं उस पापसे सर्वथा विशुद्ध हो गयी हूँ और हे देव! यदि आप इस समय मेरे तपसे प्रसन्न हैं, तो पहले मैं यह वर माँगती हूँ, उसे दीजिये। हे देवाधिदेव ! इस आकाश तथा पृथिवीमें उत्पन्न होते ही कोई भी प्राणी सद्यः कामयुक्त न हो। हे प्रभो। मैं अपने आचरणसे तीनों लोकोंमें इस प्रकार प्रसिद्ध होऊ जैसी और कोई दूसरी स्त्री न हो, एक और वर माँगती हूँ। मेरे द्वाराउत्पन्न की गयी कोई भी सन्तति सकाम होकर पतित न हो और हे नाथ! जो मेरा पति हो, वह भी मेरा | अत्यन्त सुहृद बना रहे। [मेरे पतिके अतिरिक्त] जो कोई भी पुरुष मुझे सकाम दृष्टिसे देखे, उसका पौरप नष्ट हो जाय और वह नपुंसक हो जाय ॥ 33-38 ॥
ब्रह्माजी बोले- निष्पाप सन्ध्याके इस प्रकारके वचनोंको सुनकर तथा उससे प्रेरित होकर भक्तवत्सल भूतभावन शंकर प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे- ।। 39 ।।
महेश्वर बोले- हे देवि हे सन्ध्ये! मेरी बात सुनो। तुम्हारा पाप नष्ट हो गया, अब मेरा क्रोध तुम्हारे ऊपर नहीं है और तुम तप करनेसे शुद्ध हो चुकी हो। हे भद्रे ! हे सन्ध्ये! तुमने जो जो वरदान माँगा है, तुम्हारी श्रेष्ठ तपस्यासे परम प्रसन्न होकर मैंने वह सब तुम्हें प्रदान कर दिया ।। 40-41 ।।
अब प्राणियोंका प्रथम शैशव (बाल) - भाव, दूसरा कौमार भाव, तीसरा यौवन भाव तथा चौथा वार्धक्य भाव होगा ॥ 42 ॥
शरीरधारी तीसरी अवस्था आनेपर सकाम होंगे और कोई-कोई प्राणी दूसरीके अन्ततक सकाम होंगे ॥ 43 ॥ मैंने तुम्हारी तपस्यासे संसारमें यह मर्यादा स्थापित कर दी कि शरीरधारी उत्पन्न होते ही सकाम नहीं होंगे ll 44 ॥
तुम इस लोकमें ऐसा सतीभाव प्राप्त करोगी, जैसा तीनों लोकोंमें किसी अन्य स्त्रीका नहीं होगा ।। 45 ।। तुम्हारे पतिके अतिरिक्त जो तुमको सकाम दृष्टिसे देखेगा, वह तत्काल नपुंसक होकर दुर्बल हो जायगा ।। 46 ।।
तुम्हारा पति महान् भाग्यशाली, तपस्वी तथा रूपवान् होगा। वह तुम्हारे साथ सात कल्पोंतक जीवित रहेगा ।। 47 ।।
इस प्रकार तुमने जो-जो वर मुझसे माँगा, उन सभी वरोंको मैंने प्रदान किया। अब मैं तुम्हारे जन्मान्तरकी कुछ बातें कहूँगा ll 48 ॥
तुम अग्निमें अपने शरीरत्याग करनेकी प्रतिज्ञ पहले ही कर चुकी हो, अतः उसका उपाय मैं तुमको बता रहा हूँ, उसे निश्चित रूपसे करो ॥ 49 ॥वह उपाय यही है कि तुम महर्षि मेधातिथिके बारह वर्षतक चलनेवाले यज्ञमें प्रचण्डरूपसे जलती हुई अग्निमें शीघ्रतासे प्रवेश करो ॥ 50 ॥
इस समय मेधातिथि इसी पर्वतकी तलहटीमें चन्द्रभागा नदीके तटपर तपस्वियोंके आश्रम में महान् यज्ञ कर रहे हैं ॥ 51 ॥
वहाँ तुम अपनी इच्छासे जाकर मेरे प्रसादसे मुनियोंसे अलक्षित रहती हुई अग्निमें प्रवेश कर जाओ, फिर तुम यज्ञाग्निसे प्रकट होकर मेधातिथिको | पुत्री बनोगी ॥ 52 ॥
तुम्हारे मनमें जो कोई भी श्रेष्ठ पतिके रूपमें वांछनीय हो, उसे अपने अन्तःकरणमें रखकर अग्निमें अपना शरीर छोड़ना ॥ 53 ॥
हे सन्ध्ये! तुम इस पर्वतपर चारयुगसे घोर तपस्या कर रही हो, कृतयुगके बीत जानेपर और त्रेताका प्रथम भाग आनेपर दक्षकी जो शीलसम्पन्न कन्याएँ उत्पन्न हुई, वे यथायोग्य विवाहित हुई. उनमें से उन्होंने सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको [विवाह विधिद्वारा ] प्रदान कीं, किंतु चन्द्रमा उन सभीको | छोड़कर रोहिणीमें प्रीति करने लगा । 54-56 ॥
इस कारण जब दक्षने क्रोधसे चन्द्रमाको शाप | दे दिया, तब सभी देवता तुम्हारे पास आये थे ॥ 57 ॥
हे सन्ध्ये ! उस समय तुम मेरा ध्यान कर रही थी, इसलिये वे देवगण जो ब्रह्माजीके साथ आये हुए थे, तुमने उनकी तरफ देखा नहीं; क्योंकि तुम आकाशकी ओर देख रही थी, अब तुमने मेरा दर्शन प्राप्त कर लिया है ।। 58 ।
तब ब्रह्माजीने चन्द्रमाके शापको दूर करनेके लिये इस चन्द्रभागा नदीका निर्माण किया है, उसी समय यहाँ मेधातिथि उपस्थित हुए थे ॥ 59 ॥
तपस्या में उनके समान न तो कोई है, न कोई होनेवाला है और न कोई हुआ है। उन्होंने ही इस चन्द्रभागा नदीके तटपर विधिपूर्वक ज्योतिष्टोम यज्ञका आरम्भ किया है ॥ 60 ॥
वहाँ अग्नि प्रज्वलित हो रही है, उसीमें अपने शरीरको छोड़ो। इस समय तुम अत्यन्त पवित्र हो, तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण हो ॥ 61 ॥हे तपस्विनि ! अपने कार्यकी सिद्धिके लिये मैंने यह विधि बतायी है । अतः हे महाभागे ! तुम यहाँ मुनिके यज्ञमें जाओ और इसे करो। इस प्रकार वे देवेश उसका हित करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ 62 ॥