ब्रह्माजी बोले- वसिष्ठजीकी बात सुनकर अपने गणों एवं भार्यासहित विस्मित होकर गिरिराज हिमालय पर्वतोंसे कहने लगे-॥ 1 ॥हिमालय बोले- हे गिरिराज मेरो! हे सहा! हे गन्धमादन! हे मन्दर! हे मैनाक हे विन्ध्य! हे पर्वतेश्वरो ! आप सब लोग मेरी बात सुनें। वसिष्ठजी ऐसा कह रहे हैं। अब मुझको क्या करना चाहिये। इस सम्बन्धमें आपलोग विचार करें और मनसे सब बातोंका निर्णय करके जैसा ठीक हो, वैसा बताइये ।। 2-3
ब्रह्माजी बोले- उनकी बात सुनकर सुमेरु आदि वे पर्वत भलीभाँति निर्णय करके प्रेमपूर्वक हिमालयसे कहने लगे- 4 ॥
पर्वत बोले- इस समय बहुत विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है, कार्य तो हो ही गया है। हे महाभाग ! यह [ कन्या] देवताओंके कार्यके लिये ही उत्पन्न हुई है। इसका अवतार ही जब शिवके लिये हुआ है, तो इसे शिवजीको ही देना चाहिये। इसने रुद्रकी आराधना की है और रुद्रने इसे स्वीकृति भी दी है ।। 5-6 ll
ब्रह्माजी बोले- मेरु आदि पर्वतोंकी यह बात सुनकर हिमालयको बड़ी प्रसन्नता हुई और गिरिजा भी मन-ही-मन हँसने लगीं। अरुन्धतीने [शिव पार्वतीके विवाहके लिये] अनेक प्रकारके वचनों तथा विविध इतिहासोंसे उन मेनाको समझाया ll 7-8 ।।
तब शैलपत्नी मेना सब कुछ समझ गयीं और प्रसन्नचित्त हो गयीं। उन्होंने मुनियों, अरुन्धती तथा हिमालयको भोजन कराकर स्वयं भोजन किया ॥ 9 ॥ तदनन्तर ज्ञानी गिरिश्रेष्ठ उन मुनियोंकी सेवा करके प्रसन्नचित्त और भ्रमरहित होकर हाथ जोड़कर प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे - ॥ 10 ॥
हिमालय बोले - हे महाभाग्यवान् सप्तर्षिगण ! आपलोग मेरी बात सुनिये, मैंने शिवा और शिवजीका सारा चरित्र सुन लिया, जिससे मेरा सारा सन्देह दूर हो गया है। मेरा यह शरीर, पत्नी मेना, पुत्री, पुत्र, ऋद्धि सिद्धि तथा अन्य जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब शिवका ही है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 11-12 ॥
ब्रह्माजी बोले- उन्होंने इस प्रकार कहकर उस पुत्रीकी ओर आदरपूर्वक देखकर उसके अंगोंको [अलंकारोंसे] सुसज्जितकर उसे ऋषियोंकी गोदमेंबैठा दिया। तदनन्तर शैलराजने पुनः प्रेमसे ऋषियोंसे कहा- मुझे शंकरका यह भाग उन्हें अवश्य देना है, ऐसा मैंने निश्चय किया है ।। 13-14 ॥
ऋषि बोले- हे गिरे ! भगवान् शंकर ग्रहीता होनेके कारण भिक्षुक हैं, आप कन्यादान देनेके कारण दाता हैं और देवी पार्वती भिक्षा हैं, अब इससे उत्तम और क्या बात हो सकती है। हे हिमालय! जिस प्रकार सभी शिखरोंसे ऊँचे होनेके कारण आपके शिखरोंकी श्रेष्ठता है, उसी प्रकार आप भी सम्पूर्ण पर्वतोंके अधिपति होनेके कारण सबसे उत्तम हैं तथा धन्य हैं ll 15-16 ll
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर निर्मल मनवाले मुनियोंने हाथसे स्पर्श करके कन्याको आशीर्वाद दिया कि शिवको सुख देनेवाली बनो तुम्हारा कल्याण हो। जिस प्रकार शुक्लपक्षका चन्द्रमा बढ़ता है, उसी प्रकार तुम्हारे गुणोंकी वृद्धि हो। ll 17-184 ll
इस प्रकार कहकर उन सभी मुनियोंने। प्रसन्नतापूर्वक हिमालयको [आशीर्वाद रूपमें] फूल तथा फल अर्पित करके विश्वास उत्पन्न कराया ॥ 19 ॥ परम पतिव्रता सुमुखी अरुन्धतीने शिवजीके गुणोंसे मेनाको प्रलोभित किया॥ 20 ॥ तदनन्तर हिमालयने दाढ़ीमें हरिद्रा तथा कुंकुमसे मार्जन किया और लौकिकाचारपूर्वक सारा मंगल किया ॥ 21 ॥
तदनन्तर चौथे दिन शुभ लग्नका निश्चयकर परस्पर सन्तुष्ट हो वे [मुनिगण] शिवजीके पास गये ॥ 22 ॥
वहाँ जाकर शिवजीको प्रणामकर अनेक सूडोंसे उनकी स्तुतिकर वे वसिष्ठ आदि सभी मुनि |कहने लगे ॥ 23 ॥
ऋषि बोले- हे देवदेव! हे महादेव! हे परमेश्वर! हे महाप्रभो! आपके सेवक हम लोगोंने जो किया है, उस बातको प्रेमसे सुनिये ॥ 24 ॥
हे महेशान! हमलोगोंने इतिहासपूर्वक अनेक प्रकारके उत्तम वचनोंसे पर्वतराज [हिमालय ] तथा मेनाको बहुत समझाया, जिससे वे समझ गये, अब उन्हें सन्देह नहीं रहा। गिरीन्द्रने वाग्दान देकर प्रतिज्ञाकी है कि यह पार्वती आपकी है। अब आप अपने गणों तथा देवताओंको लेकर विवाहके लिये चलिये ।। 25-26 हे महादेव! हे प्रभो! आप शीघ्र ही विवाहके लिये हिमालयके घर चलिये तथा सन्तान उत्पादनके लिये रीतिके अनुसार पार्वतीसे विवाह कीजिये ॥ 27 ॥
ब्रह्माजी बोले- उनकी यह बात सुनकर शिवजी प्रसन्नचित्त हो गये और लौकिकाचारमें तत्पर होकर
हँसते हुए इस प्रकार कहने लगे- ॥ 28 ॥
महेश बोले- हे महाभाग! मैंने तो विवाह न देखा है और न सुना है, आपलोग ही जैसी विधि देखे सुने हैं, उसे बताइये ॥ 29 ॥
ब्रह्माजी बोले- शिवजीके लौकिक शुभ वचनको सुनकर वे देवाधिदेव सदाशिवसे हँसते हुए कहने लगे- ॥ 30 ॥
ऋषि बोले- हे प्रभो! आप समाजसहित विष्णुको विशेष रूपसे शीघ्र बुलाकर पुत्रसहित ब्रह्माजी, इन्द्रदेव, सभी ऋषि, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, अप्सरा- इन सबको तथा अन्य लोगोंको आदरपूर्वक यहाँ बुलाइये। वे सब आपका कार्य सिद्ध करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 31-33 ॥
ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर उनकी आज्ञा लेकर वे सभी सप्तर्षि शिवजीकी महिमाका वर्णन करते हुए
प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको चले गये ॥ 34 ॥