वसिष्ठजी बोले [हे गिरिश्रेष्ठ!] इन्द्रसावर्णि नामक चौदहवें मनुके वंशमें वह अनरण्य नामक राजा उत्पन्न हुआ था ॥ 1 ॥
वह राजराजेश्वर तथा सात द्वीपोंका सम्राट् था। वह मंगलारण्यका पुत्र अनरण्य महाबलवान् एवं विशेषरूपसे शिवजीका भक्त था। उसने महर्षि भृगुको अपना पुरोहित बनाकर एक सौ यज्ञ किये और देवताओंके द्वारा इन्द्रपद दिये जानेपर भी उसने उसे स्वीकार नहीं किया ।। 2-3 ।।
हे हिमालय उस राजाके सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे और लक्ष्मीसदृश सुन्दर एक पद्मा नामकी कन्या उत्पन्न हुई ॥ 4 ॥
हे नगश्रेष्ठ ! उस राजाका जो प्रेम अपने सौ पुत्रोंके प्रति था, उससे भी अधिक उस कन्यापर रहा करता था ॥ 5 ॥
उस अनरण्य राजाकी सर्वसौभाग्यशालिनी पाँच रानियाँ थीं, जो राजाको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय थीं ॥ 6 ॥
जिस समय वह कन्या पिताके घरमें युवावस्थाको प्राप्त हुई, तब राजाने उसके लिये उत्तम वर प्राप्त करने हेतु [अपने दूतोंसे] पत्र भेजा ॥ 7 ॥एक समय ऋषि पिप्पलाद जब अपने आश्रम जानेके लिये तत्पर थे, तभी तपस्याके योग्य एक निर्जन स्थानमें उन्होंने कामकलामें निपुण तथा स्त्रीके साथ शृंगाररसके सागरमें निमग्न हो बड़े प्रेमसे बिहार करते हुए एक गन्धर्वको देखा ।। 8-9 ।।
वे मुनिश्रेष्ठ उसे देखकर कामके वशीभूत हो गये और तपसे चित्त हटाकर दारसंग्रहकी चिन्तामें पड़ गये ॥ 10 ll
इस प्रकार कामसे व्याकुलचित्त हुए उन श्रेष्ठ मुनि पिप्पलादका कुछ समय बीत गया ॥ 11 ॥ एक समय जब वे मुनिश्रेष्ठ पुष्पभद्रा नदीमें स्नान करनेके लिये जा रहे थे, तब उन्होंने लक्ष्मीके समान मनोरम युवती पद्माको देखा ॥ 12 ॥ उसके बाद मुनिने आस-पासके लोगोंसे पूछा कि यह किसकी कन्या है, तब शापके भयसे व्याकुल उन लोगोंने नमस्कार करके बताया ॥ 13 ॥
लोग बोले- यह [राजा] अनरण्यकी पद्मा नामक कन्या है, जो साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान है, श्रेष्ठ राजागण गुणोंकी निधिस्वरूपा इस सुन्दरीको पानेकी इच्छा कर रहे हैं ।। 14 ।। ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार वे मुनि उन सत्यवादी मनुष्योंकी बात सुनकर अत्यन्त व्याकुल हो उठे और मनमें उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करने लगे ॥ 15 ॥
हे गिरे ! उसके बाद मुनि स्नानकर विधिपूर्वक अपने इष्टदेव शंकरका विधिवत् पूजन करके कामके वशीभूत हो भिक्षाके लिये अनरण्यकी सभा में गये ॥ 16 ॥
राजाने मुनिको देखते ही भयभीत होकर प्रणाम किया और मधुपर्कादि देकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ 17 ॥
पूजा ग्रहण करनेके अनन्तर मुनिने कन्याकी याचना की, तब राजा [इस बातको सुनकर] अवाक् हो गया और कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हुआ ॥ 18 ॥ उन मुनिने कन्याको माँगा और कहा- हे नृपेश्वर। तुम अपनी कन्या हमें दे दो, अन्यथा मैं क्षणभरमें सब कुछ भस्म कर दूंगा ॥ 19 ॥[उस समय] हे मुने मुनिके तेजसे [राजाके ] सब सेवक हक्के बक्के हो गये और वृद्धावस्थासे जर्जर उस विप्रको देखकर परिकरोंसहित राजा रोने लगे ॥ 20 ॥ सभी रानियों को भी कुछ सूझ नहीं रहा था, वे रोने
लगीं। कन्याकी माता महारानी शोकसे व्यथित होकर मूच्छित हो गयीं, राजाके सभी पुत्र भी शोकसे आकुल चित्तवाले हो गये। हे शैलपति ! इस प्रकार राजाके सभी सगे-सम्बन्धी शोकसे व्याकुल हो गये । ll 21-22 ॥
इसी समय महापण्डित, बुद्धिमान् तथा सर्वोत्तम गुरु एवं पुरोहित ब्राह्मण- दोनों राजाके समीप आये ॥ 23 ॥
राजाने प्रणामकर उनका पूजन करके उन दोनोंके आगे रुदन किया और अपना सारा वृत्तान्त निवेदन किया एवं पूछा कि [इस समय] जो उचित हो, उसको जल्दीसे बताइये ॥ 24 ll
तब राजाके नीतिशास्त्रज्ञ पण्डित गुरु तथा ब्राह्मण पुरोहित दोनोंने राजाको तथा शोकसे व्याकुल रानियों, राजपुत्रों तथा उस कन्याको सभीके हितकारक तथा नीतियुक्त वाक्योंसे आदरपूर्वक समझाया ।। 25-26 ll
गुरु तथा पुरोहित बोले- हे राजन्! हे महाप्राज्ञ ! आप हमारी हितकारी बात सुनिये, आप परिवारके सहित शोक मत कीजिये और शास्त्रमें अपनी बुद्धि लगाइये ॥ 27 ll
हे राजन्! आज ही अथवा एक वर्षके बाद आपको अपनी कन्या किसी-न-किसी पात्रको देनी ही है, वह पात्र चाहे ब्राह्मण हो अथवा अन्य कोई हो ॥ 28 ॥
किंतु हम इस ब्राह्मणसे बढ़कर सुन्दर पात्र इस त्रिलोकीमें अन्यको नहीं देख रहे हैं, अतः आप अपनी कन्या इन मुनिको देकर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्तिकी रक्षा कीजिये ॥ 29 ॥
हे राजन् ! [ यदि ऐसा नहीं करेंगे तो ] एकके कारण तुम्हारी सारी सम्पत्ति नष्ट हो जायगी। उस एकका त्यागकर सबकी रक्षा करो। शरणागतका त्याग नहीं करना चाहिये, चाहे उसके लिये सब कुछ नष्ट हो जाय ॥ 30 ॥
वसिष्ठजी बोले- राजाने उन दोनों बुद्धिमानों की बात सुनकर बार-बार विलाप करके उस कन्याको [वस्त्र तथा आभूषणसे] अलंकृतकर मुनीन्द्रको दे दिया ॥ 31 ॥हे गिरे ! इस प्रकार उस कन्यासे विधानपूर्वक विवाहकर महर्षि पिप्पलाद महालक्ष्मीके समान उस पद्माको लेकर प्रसन्नतासे युक्त अपने घर चले गये ॥ 32 ॥ इधर, राजा उस वृद्धको अपनी कन्या प्रदान करके सभी लोगोंको छोड़कर मनमें ग्लानि रखकर तपस्याके लिये वनमें चले गये ॥ 33 ॥
हे गिरे ! अपने प्राणनाथके वन चले जानेपर उनकी भार्याने भी पति तथा कन्याके शोकसे प्राण त्याग दिये ॥ 34 ॥
राजाके पूज्य लोग, पुत्र, सेवक राजाके बिना मूच्छित हो गये तथा अन्य सभी पुरवासी एवं दूसरे लोग यह सब जानकर उच्छास लेकर शोक करने लगे ॥ 35 ॥ [राजा] अनरण्य वनमें जाकर कठोर तप करके भक्तिपूर्वक शंकरकी आराधनाकर शाश्वत शिवलोकको चला गया। तदनन्तर राजाका कीर्तिमान् नामक धार्मिक ज्येष्ठ पुत्र राज्य करने लगा और पुत्रके समान प्रजाका पालन करने लगा ।। 36-37 ॥
हे शैल! मैंने अनरण्यका यह शुभ चरित्र आपसे कहा, जिस प्रकार अपनी कन्या प्रदानकर उन्होंने अपने वंशकी तथा सम्पूर्ण धनकी रक्षा की ॥ 38 ॥ इसी प्रकार हे शैलराज! आप भी अपनी कन्या शंकरजीको देकर अपने समस्त कुलकी रक्षा कीजिये और सभी देवताओंको भी वशमें कीजिये ॥ 39 ॥