उपमन्यु बोले- ब्राह्मणहन्ता, सुरापान करनेवाला, चोरी करनेवाला, गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करनेवाला, माता-पिताका वध करनेवाला, राजहन्ता तथा भ्रूणहत्या करनेवाला भी बिना मन्त्रके ही भक्तिपूर्वक परम कारण शिवका पूजन करके उन-उन पापोंसे क्रमसे बारह वर्षोंमें मुक्त हो जाता है। अतः पतितको भी सभी प्रयत्नोंसे शिवकी पूजा करनी चाहिये। भक्त ही मुक्त होता है, दूसरा कोई नहीं, चाहे वह भिक्षाहारी और जितेन्द्रिय ही हो ॥ 1-3॥उपमन्यु कहते हैं- [ यदुनन्दन !] कोई बड़ा भारी पाप करके भी भक्तिभावसे पंचाक्षर मन्त्रद्वारा यदि देवेश्वर शिवका पूजन करे तो वह उस पापसे मुक्त हो जाता है ॥ 4 ॥
जो जल तथा वायुका आहार ग्रहण करनेवाले और व्रतोंके द्वारा शरीरको कृश करनेवाले अन्य लोग हैं, [ वे भले ही इनका आचरण करते रहें, पर बिना शिवभक्तिके] उनका इन व्रतोंके द्वारा शिवलोक सान्निध्य नहीं हो सकता है ॥ 5 ॥
जो भक्तिभावसे पंचाक्षर मन्त्रद्वारा एक ही बार शिवका पूजन कर लेता है, वह भी शिवमन्त्रके गौरववश शिवधामको चला जाता है ॥ 6 ॥
अतः सभी तप, यज्ञ तथा सर्वस्व दक्षिणाएँ ये सब शिवमूर्तिके पूजनके करोड़वें अंशके भी बराबर नहीं हैं ॥ 7 ॥
कोई बद्ध हो अथवा मुक्त हो, पंचाक्षरमन्त्रसे पूजा करनेवाला भक्त मुक्त हो जाता है, इसमें कोई विचार नहीं करना चाहिये। कोई सरुद्र अर्थात् रुद्रोपासक हो या अरुद्र अर्थात् परम्परासे उपासक न हो, अथवा पतित या मोहग्रस्त ही क्यों न हो, किंतु [शास्त्रोंमें] भलीभाँति कहे गये [ पंचाक्षरमन्त्र ] के द्वारा यदि एक बार भी शिवपूजन करता है तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है ।। 8-9 ।।
दीक्षित अथवा अदीक्षित शिवभक्तको चाहिये कि वह क्रोधादि विकारोंको जीतकर [शास्त्रों में ] भलीभाँति प्रतिपादित इस षडक्षरमन्त्रके द्वारा भगवान् शिवका पूजन करे ॥ 10 ॥
दीक्षाविहीनकी अपेक्षा शिवोपासनामें दीक्षित साधकका विशेष अधिकार निश्चय ही बताया गया है। पंच ब्रह्ममन्त्रों तथा हंस मन्त्रके [पारायण - जप आदिके] द्वारा मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ 11 ॥
अतः प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस प्रशंसित मन्त्रसे शिवका पूजन करना चाहिये। जो लोग प्रतिदिन एक समय, दो समय अथवा तीन समय महादेवकी पूजा करते हैं, उन्हें [साक्षात्] शिवका प्रमुख गण समझना चाहिये। जिसने आत्मसहायक ज्ञानसे भगवान् शिवका अर्चन नहीं किया, वह इस दुःखसागररूपी संसारमें दीर्घकालतक भ्रमण करता रहता है ॥ 12-131/2 ॥जो मूढ़ दुर्लभ मानव जन्म पाकर भगवान् शिवकी अर्चना नहीं करता, उसका वह जन्म निष्फल | है; क्योंकि वह मोक्षका साधक नहीं होता ।। 149/2 ॥
जो दुर्लभ मानव-जन्म पाकर पिनाकपाणि महादेवजीकी आराधना करते हैं, उन्हींका जन्म सफल है और वे ही कृतार्थ एवं श्रेष्ठ मनुष्य हैं। जो भगवान् शिवकी भक्तिमें तत्पर रहते हैं, जिनका चित्त भगवान् शिवके सामने प्रणत होता है तथा जो सदा ही भगवान् शिवके चिन्तनमें लगे रहते हैं, वे कभी दुःखके भागी नहीं होते ।। 15-161/2 ॥
मनोहर भवन, हाव, भाव, विलाससे विभूषित [तरुणी] स्त्रियाँ और जिससे पूर्ण तृप्ति हो जाय, | इतना धन - ये सब भगवान् शिवकी आराधनाके फल हैं। जो देवलोकमें महान् भोग और राज्य चाहते हैं, वे सदा भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हैं। सौभाग्य, कान्तिमान् रूप, बल, त्याग, दयाभाव, शूरता और विश्वमें विख्याति - ये सब बातें भगवान् शिवकी पूजा करनेवाले लोगोंको ही सुलभ होती हैं ॥ 17- 191/2 ॥
इसलिये जो अपना कल्याण चाहता हो, उसे सब कुछ छोड़कर केवल भगवान् शिवमें मन लगा उनकी आराधना करनी चाहिये। जीवन बड़ी तेजीसे जा रहा है, यौवन शीघ्रतासे बीता जा रहा है और रोग तीव्रगतिसे निकट आ रहा है, इसलिये सबको पिनाकपाणि महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये, जबतक मृत्यु नहीं आती है, जबतक वृद्धावस्थाका आक्रमण नहीं होता और जबतक इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण नहीं हो जाती है, तबतक ही भगवान् शंकरकी आराधना कर लो। भगवान् शिवकी आराधनाके समान दूसरा कोई धर्म तीनों लोकोंमें नहीं है । ll 20 - 23 ॥
इस बात को समझकर प्रयत्नपूर्वक भगवान् | सदाशिवकी अर्चना करनी चाहिये। यदि शिवजीकी पूजा प्रासादमें की जाय, उस अवसरपर द्वारयाग, वृक्षारोपण, | परिवार देवताओंके लिये बलि-निवेदन तथा नित्योत्सव | करना चाहिये। हविको निवेदित करनेसे पहले स्वयं (आचार्य) अथवा अनुचर (शिष्य) प्रासादमें स्थित | परिवार देवताओंको बतायी गयी रीतिसे बलि प्रदानकरे। उस समय प्रासादसे बाहर जाकर उन-उन देवताओंके समक्ष स्थित होकर मंगलवाद्य भी बजवाने चाहिये। बलि देनेसे पूर्व पुष्प, धूप, दीप आदि अन्य उपचार समर्पितकर उस महापीठमें उत्तराभिमुख स्थित होकर साधक अन्न, जलादिके सहित बलि प्रदान करे। पहले जो अन्न आदि शिवजीको निवेदन किया जा चुका है और उससे जो बच गया है, यह सब चण्डको निवेदित कर दे ।। 24-28 ॥ तदुपरान्त सविधि हवन करके अवशिष्ट पूजनको सम्पन्न करे, इस अनुष्ठानको पूर्णकर यथा सामर्थ्य मन्त्र जप भी करे। इस प्रकार शिवशास्त्रमें बतायी गयी विधिसे नित्योत्सव करना चाहिये ॥ 291/2 ।।
रक्तवर्णके [अष्टदल] कमलसे सुशोभित एक बड़े [सुवर्ण] धातुपात्रमें [भगवान् शिवके] दिव्य पाशुपत अस्त्रका आवाहनकर उसकी पूजा करे। यजमान अस्त्रमन्त्रसे न्यास करके उस पात्रको [वस्त्र माल्यादिसे] अलंकृत तथा चमकती हुई छड़ी | लेकर स्थित ब्राह्मणके सिरपर रखकर उसके साथ शिवप्रासादके परिवार देवताओंको [पूजा-बलि आदि प्रदान करके] न अधिक वेगसे न ही मन्द गतिसे अर्थात् मध्यम गतिसे उस महापीठकी तीन बार प्रदक्षिणा करे। उस समय प्रासादसे बाहर मांगलिक ध्वनि (शंख, मृदंग आदि) तथा नृत्य-गीतादि भी होने चाहिये। साधक [पूजाके अंगके रूपमें] दीपदान तथा ध्वजदान भी करे। महापीठकी तीन बार प्रदक्षिणा करके अंजलि बाँधे हुए यजमान मन्दिरके द्वारपर आये और अस्त्रके सहित मन्दिरके अन्दर प्रविष्ट हो उस अस्त्रराजका विसर्जन कर दे। तदुपरान्त पूर्वमें बतायी गयी विधिसे क्रमपूर्वक प्रदक्षिणा आदि सम्पन्न करके आठ पुष्प लेकर पूजाका समापन करे ।। 30-35 ॥