व्यासजी बोले- सूतजीका यह वचन सुनकर वे सब महर्षि बोले-अब आप हमें वेदान्तके सार सर्वस्वरूप अद्भुत शिवपुराणको सुनाइये ll 1 ll मुनियोंका यह वचन सुनकर अतिशय प्रसन्न हो वे सूतजी शंकरजीका स्मरण करते हुए उन श्रेष्ठ मुनियोंसे कहने लगे ॥ 2 ॥
सूतजी बोले- आप सब महर्षिगण रोग शोकसे रहित कल्याणमय भगवान् शिवका स्मरण करके वेदके सारतत्त्वसे प्रकट पुराणप्रवर शिवपुराणको सुनिये। जिसमें भक्ति, ज्ञान और वैराग्य-इन तीनोंका प्रीतिपूर्वक गान किया गया है और वेदान्तवेद्य सद्वस्तुका विशेषरूपसे वर्णन किया गया है। ll 3-5 ॥
हे ऋषिगण ! अब आपलोग वेदके सारभूत पुराणको सुनें बहुत कालमें पुनः पुनः पूर्वकल्प व्यतीत होनेपर इस वर्तमान कल्पमें जब सृष्टिकर्म आरम्भ हुआ था, उन दिनों छः कुलोंके महर्षि परस्पर वाद-विवाद करते हुए कहने लगे-'अमुक वस्तु सबसे उत्कृष्ट है और अमुक नहीं है।' उनके इस विवादने अत्यन्त महान् रूप धारण कर लिया। तब वे सब के सब अपनी शंकाके | समाधानके लिये सृष्टिकर्ता अविनाशी ब्रह्माजीके पास गये और हाथ जोड़कर विनयभरी वाणीमें बोले - [हे प्रभो!] आप सम्पूर्ण जगत्का धारण-पोषण करनेवाले हैं तथा समस्त कारणोंके भी कारण हैं; हम यह जानना चाहते हैं कि सम्पूर्ण तत्त्वोंसे परे परात्परं पुराणपुरुष कौन हैं ? ।। 6 - 91/2 ll
ब्रह्माजी बोले- जहाँ से मनसहित वाणी उन्हें न पाकर लौट आती है तथा जिनसे ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र आदिसे युक्त यह सम्पूर्ण जगत् समस्त भूतों एवं इन्द्रियोंके साथ पहले प्रकट हुआ है, वे ही ये देव, महादेव सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं ये ही सबसे उत्कृष्ट हैं। उत्तम भक्तिसे ही इनका साक्षात्कार होता है, दूसरे किसी उपायसे कहीं इनका दर्शन नहीं होता। रुद्र, हरि, हर तथा अन्य देवेश्वर सदा उत्तम भक्तिभावसे | उनका नित्य दर्शन करना चाहते हैं ।। 10-13 llअधिक कहनेकी क्या आवश्यकता, भगवान शिवमें भक्ति होनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। देवताओंके कृपाप्रसादसे ही उनमें भक्ति होती है और भक्तिसे देवताका कृपाप्रसाद प्राप्त होता है-ठीक उसी तरह, जैसे यहाँ अंकुरसे बीज और बीजसे अंकुर उत्पन्न होता है। इसलिये हे द्विजो । | आप लोग भगवान् शंकरका कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये भूतलपर जाकर वहाँ सहस्र वर्षोंतक चलनेवाले एक विशाल यज्ञका आयोजन करें ।। 14-15 ॥
"इन यज्ञपति भगवान् शिवकी ही कृपासे वेदोक्त विद्याके सारभूत साध्य-साधनका ज्ञान होता है ॥ 16 ॥ मुनिगण बोले- हे भगवन् ! परम साध्य क्या है और उसका परम साधन क्या है? उसका साधक कैसा होता है? ये सभी बातें यथार्थ रूपसे कहें ॥ 17 ॥ ब्रह्माजी बोले- शिवपदकी प्राप्ति ही साध्य है, उनकी सेवा ही साधन है तथा उनके प्रसादसे जो | नित्य नैमित्तिक आदि फलोंकी ओरसे निःस्पृह होता है, वही साधक है॥ 18 ॥
वेदोक कर्मका अनुष्ठान करके उसके महान् फलको भगवान् शिवके चरणोंमें समर्पित कर देना ही परमेश्वरपदकी प्राप्ति है। वही सालोक्य आदिके क्रमसे प्राप्त होनेवाली मुक्ति है ॥ 19 ॥
उन-उन पुरुषोंकी भक्तिके अनुसार उन सबको उत्कृष्ट फलकी प्राप्ति होती है। उस भक्तिके साधन अनेक प्रकारके हैं, जिनका प्रतिपादन साक्षात् महेश्वरने ही किया है ॥ 20 ॥
उसे संक्षिप्त करके मैं सारभूत साधनको बता रहा हूँ। कानसे भगवान् के नाम-गुण और लीलाओंका श्रवण वाणीद्वारा उनका कीर्तन तथा मनके द्वारा उनका मनन इन तीनोंको महान् साधन कहा गया है। [तात्पर्य यह कि] महेश्वरका र कीर्तन और मनन करना चाहिये यह श्रुतिका वाक्य हम सबके लिये प्रमाणभूत है। सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धिमें लगे हुए आपलोग इसी साधनसे परम साध्यको प्राप्त हो। लोग प्रत्यक्ष वस्तुको नेत्रसे देखकर उसमें प्रवृत्त होते हैं; परंतु जिस वस्तुका कहीं भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता, उसे श्रवणेन्द्रियद्वारा जान-सुनकर मनुष्य | उसकी प्राप्तिके लिये चेष्टा करता है॥ 21-24 ॥अत: पहला साधन श्रवण ही है। उसके द्वारा गुरुके मुखसे तत्त्वको सुनकर बुद्धिशाली विद्वान् पुरुष अन्य साधन-कीर्तन एवं मननकी सिद्धि करे ॥ 25 ॥ क्रमशः मननपर्यन्त इस साधनकी अच्छी तरह साधना कर लेनेपर उसके द्वारा सालोक्य आदिके क्रमसे धीरे-धीरे भगवान् शिवका संयोग प्राप्त होता है ॥ 26 ॥ पहले सारे अंगोंके रोग नष्ट हो जाते हैं। तत्पश्चात् सब प्रकारका लौकिक आनन्द भी विलीन हो जाता है । अभ्यासके ही समय यह साधन कष्टप्रद है, किंतु बादमें निरन्तर मंगल देनेवाला है । ll 27 ।।