व्यासजी बोले- हे मुनीश्वर सूतजीके चले जानेपर मुनिगण बहुत ही आश्चर्यचकित हुए और आपसमें विचार करके कहने लगे कि वामदेवका मत जिसे सूतजीने कहा था और जो बहुत कठिन है, उसे तो हमलोगोंने भुला दिया ॥ 1 ॥
अब यही ज्ञात नहीं कि उन मुनिवर्यके कब दर्शन होंगे? उनका उत्तम दर्शन तो संसारसागरके दुःखसमूहसे पार करनेवाला है। हमारी इच्छा है कि महेश्वरके आराधनरूप पुण्यप्रतापसे शीघ्र ही सूतजीका दर्शन प्राप्त हो ॥ 2 ॥
इस प्रकारकी चिन्तामें निमग्न सभी मुनिगण हृदयकमलमें व्यासजीकी पूजा करके उत्सुकतापूर्वक उनके दर्शनकी प्रतीक्षा करते हुए वहीं स्थित हो गये। एक संवत्सरके बीत जानेके बाद शिवभक्त, ज्ञानी एवं पुराणार्थ- प्रकाशक महामुनि सूतजी पुनः काशी में आये ॥ 3-4 ॥
सूतजीको आता हुआ देखकर ऋषिगण बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने स्वागत, आसनदान तथा अर्घ्यदान आदिसे उनकी पूजा की ॥ 5 ॥
इसके पश्चात् सूतजीने उन श्रेष्ठ मुनिगणोंद्वारा पूजित हो प्रसन्नतापूर्वक मन्द मन्द मुसकराकर उनका अभिनन्दन किया । तदनन्तर उन्होंने गंगाजीके परम पवित्र जलमें स्नानकर ऋषिगणों, देवगणों और पितरोंका अक्षत एवं तिलादिसे तर्पणकर तटपर आ करके शरीरको पोंछकर वस्त्र एवं उत्तरीय धारण किया और दो बार आचमन करके भस्म लेकर सद्योजातादि मन्त्रसे क्रमशः भस्मोद्धूलन किया। रुद्राक्षमाला धारणकर उन बुद्धिमान् सूतजीने अपना नित्यकर्म सम्पादन कियाऔर विधिपूर्वक उन उन स्थानोंपर त्रिपुण्ड्र लगाकर प्रधान गण तथा गणपतिसहित उमाकान्त भगवान् विश्वेश्वरका उत्तम भक्तिभावसे पूजन किया तथा बार-बार हाथ जोड़कर नमस्कार किया ॥ 6-10 ॥
इसके बाद उन्होंने विधिविधानसे काल भैरवनाथकी पूजाकर तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक पाँच बार उन्हें नमस्कार किया और पुनः प्रदक्षिणापूर्वक पृथ्वीपर साष्टांग प्रणामकर उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए पराभक्तिसे युक्त हो उनकी स्तुति की ॥ 11-12 ।।
उन्होंने एक हजार आठ बार ऐश्वर्यमयी पंचाक्षरी विद्याका जपकर महेश्वरके सम्मुख स्थित हो उनसे क्षमा प्रार्थना की। इसके बाद वे मुक्ति मण्डपके बीचमें चण्डीश्वरकी पूजाकर वेदविद्याविशारद महर्षियोंके द्वारा निर्दिष्ट आसनपर बैठे ॥ 13-14 ।।
जब सभी लोग बैठ गये। तब वे मन्त्रपूर्वक शान्तिपाठ, मंगलाचरणादि करनेके उपरान्त मुनिगणोंके हृदयमें सद्भावकी वृद्धि करते हुए इस प्रकार कहने लगे-॥ 15 ॥
सूतजी बोले- प्रशंसनीय व्रतवाले हे महाप्राज्ञ ऋषियो! आपलोग धन्य हैं, आपलोगोंके पास मैं जिस उद्देश्यसे आया हूँ, उसका वृत्तान्त आपलोग सुनें ॥ 16 ॥ आपलोगोंको प्रणवका उपदेश देकर उस समयमें मैं तीर्थयात्रा करने चला गया था, अब उसका वृत्तान्त आपलोगोंसे कह रहा हूँ ॥ 17 ॥
सर्वप्रथम मैं यहाँसे चलकर दक्षिण समुद्रतटपर गया, वहाँपर स्नानकर विधिपूर्वक कन्याकुमारी देवी शिवाका पूजन किया। इसके पश्चात् हे ब्राह्मणो ! वहाँसे सुवर्णमुखरीके तटपर गया। वहाँ कालहस्ती शैल नामक अत्यन्त अद्भुत नगर है, जहाँ सुवर्णमुखरीके जलमें स्नान करके देवगणों तथा ऋषिगणोंका भक्तिके साथ विधिपूर्वक तर्पणकर समुद्र और भगवान् शंकरका स्मरण करते हुए चन्द्रकान्तके समान प्रभामण्डलसे युक्त पश्चिमाभिमुख स्थित, पाँच सिरवाले, अत्यन्त अद्भुत, एक ही बारके दर्शनसे सारे पापोंको विनष्ट करनेवाले, सभी प्रकारकी सिद्धि, भुक्ति तथा मुक्ति | देनेवाले त्रिगुणेश्वर कालहस्तीश्वरका पूजन कियाऔर बादमें मैंने भक्तिभावसमन्वित हो उनके दक्षिण भागमें विराजमान पार्वती, जो जगत्को | उत्पन्न करनेवाली तथा ब्रह्मज्ञानरूपी पुष्पकी कली हैं, उनका पूजन किया और एक हजार आठ बार ऐश्वर्यशालिनी पंचाक्षरी महाविद्याका जपकर उनकी प्रदक्षिणा तथा स्तुति करके बार- बार उन्हें नमस्कार किया ।। 18-24 ॥
इसके बाद मैं प्रसन्नतापूर्वक प्रतिदिन काल हस्तीश्वरकी प्रदक्षिणा करते हुए नियमपूर्वक उसी क्षेत्रमें निवास करने लगा। हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार मैंने ज्ञानप्रसूनकी कलिका श्रीमहादेवीकी कृपासे चार महीनेका समय उस क्षेत्रमें बिताया ।। 25-26 ॥
तदनन्तर एक बार जब मैं कुशा, मृगचर्म एवं उसके ऊपर वस्त्रका आसन बिछाकर उसपर बैठकर मौन धारण करके इन्द्रियोंको रोककर समाधिस्थ हो 'मैं सर्वदा परमानन्द चिद्धन परिपूर्ण शिव हूँ'- इस प्रकार ध्यान करता हुआ हृदयमें शान्तिका अनुभव कर रहा था कि इतनेमें ही नीले मेघके समान कान्तियुक्त, बिजलीके समान पीली जटा धारण किये, विशालकाय, कमण्डलुदण्ड एवं कृष्णाजिन धारण किये, सम्पूर्ण अंगोंमें भस्म लगाये हुए, सभी प्रकारके लक्षणोंसे युक्त, ललाटपर त्रिपुण्ड्र धारण किये तथा रुद्राक्षसे अलंकृत देहवाले मेरे सद्गुरु करुणा- वरुणालय व्यासजी मेरे हृदयकमलमें प्रकट हो गये। हे मुनियो ! उनके दोनों नेत्र कमलदलके समान अरुण तथा विस्तृत थे। हे आस्तिक मुनियो ! इस प्रकार अपने हृदयकमलमें [परिपूर्ण शोभासे समन्वित] व्यासजीके अद्भुत प्राकट्यको देखकर मैं सर्वथा मोहित हो गया ॥ 27-32 ॥
इसके पश्चात् मैं नेत्र खोलकर विलाप करने लगा। उस समय पर्वतके झरनेके समान मेरे नेत्रोंसे निरन्तर अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। हे विप्रो ! ठीक उसी समय मुझे आकाशमण्डलसे परम आश्चर्यमयी अव्यक्त वाणी सुनायी पड़ी। आपलोग उसे आदरपूर्वक सुनें । ll 33-34 ॥
हे महाभाग ! हे लोमहर्षण! हे सूतपुत्र! तुम शीघ्र ही वाराणसीपुरी जाओ, पूर्व समयमें वहाँपर जिन मुनियोंको तुमने उपदेश दिया था, वे मुनिगणनिराहार व्रत करते हुए अपने कल्याणकी कामनासे तुम्हारे आगमनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, ऐसा कहकर आकाशवाणी विरत गयी ॥ 35-36 ॥
तदनन्तर मैं शीघ्र ही उठकर शिव तथा शिवाको भक्तिपूर्वक भूमिपर दण्डवत् प्रणाम करके पुनः बारह बार उनकी प्रदक्षिणाकर गुरुकी आज्ञाको जानकर शिव तथा शिवाके उस क्षेत्रसे शीघ्र निकलकर अब चालीस दिनके बाद यहाँ पहुँचा हूँ हे मुनिश्रेष्ठो अब आपलोग मेरे ऊपर दया कीजिये। मैं आपलोगोंसे इस समय क्या कहूँ, उसे आपलोग मुझसे कहिये ॥ 37-39॥
सूतजीका यह वचन सुनकर ऋषियोंने प्रसन्नचित्त होकर मुनिश्रेष्ठ व्यासजीको बारंबार प्रणाम करके यह कहा- ॥ 40 ॥