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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 1, अध्याय 10 - Sanhita 1, Adhyaya 10

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सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मन्त्रकी महत्ता, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना

ब्रह्मा और विष्णु बोले- हे प्रभो ! हम दोनोंको सृष्टि आदि पाँच कृत्योंका लक्षण बताइये ॥ 12 ॥

शिवजी बोले- मेरे कृत्योंको समझना अत्यन्त गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम दोनोंको उनके विषयमें बता रहा हूँ। हे ब्रह्मा और अच्युत सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह ये पाँच ही मेरे जगत् सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं। संसारकी रचनाका जो आरम्भ है वह' सर्ग' है। मुझसे पालित होकर सृष्टिका सुस्थिररूपसे रहना ही उसकी 'स्थिति' कहा गया है। उसका विनाश ही 'संहार' है। प्राणोंका उत्क्रमण ही 'तिरोभाव' है। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' है। इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं। इन मेरे कर्तव्योंको चुपचाप अन्य पंचभूतादि वहन करते रहते हैं, जैसे जलमें पड़नेवाले गोपुर- बिम्बमें आवागमन होता रहता है ॥ 1-4 ॥

सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसारका विस्तार करनेवाले हैं। पाँचवीं कृत्य अनुग्रह मोक्षका हेतु है। वह सदा मुझमें ही अचल भावसे स्थिर रहता है। मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्योंको पाँचों भूतोंमें देखते हैं। सृष्टि भूतलमें, स्थिति जलमें, संहार अग्निमें, तिरोभाव वायुमें और अनुग्रह आकाशमें स्थित है। पृथ्वीसे सबकी सृष्टि होती है, जलसे सबकी वृद्धि होती है, आग सबको जला देती है, वायु सबको एक स्थानसे दूसरे स्थानको ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है यह विद्वान् पुरुषोंको जानना चाहिये ll 5-8 llइन पाँच कृत्योंका भार वहन करनेके लिये ही मेरे पाँच मुख हैं। चार दिशाओंमें चार मुख हैं और इनके बीचमें पाँचवाँ मुख है। हे पुत्रो ! तुम दोनोंने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वरसे भाग्यवश सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वरने दो अन्य उत्तम कृत्य-संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं, परंतु अनुग्रह नामक कृत्य कोई नहीं पा सकता ॥ 9-11 ॥

उन सभी पहले कर्मोंको तुम दोनोंने समयानुसार भुला दिया। स्द्र और महेश्वर अपने कर्मोंको नहीं भूले हैं, इसलिये मैंने उन्हें अपनी समानता प्रदान की है। वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदिमें मेरे समान ही हैं ।। 12-13 ।।

हे पुत्रो ! मेरे ध्यानसे शून्य होनेके कारण तुम दोनोंमें मूढ़ता आ गयी है, मेरा ज्ञान रहनेपर महेशके समान अभिमान और स्वरूप नहीं रहता। | इसलिये मेरे ज्ञानकी सिद्धिके लिये मेरे ओंकार नामक मन्त्रका तुम दोनों जप करो, यह अभिमानको दूर करनेवाला है। ll 14-15 ॥

पूर्वकालमें मैंने अपने स्वरूपभूत मन्त्रका उपदेश किया है, जो ओंकार के रूपमें प्रसिद्ध है। वह महामंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुखसे ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूपका बोध करानेवाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है प्रतिदिन ओंकारका निरन्तर स्मरण करनेसे मेरा ही सदा स्मरण होता रहता है ।। 16-17 ॥

पहले मेरे उत्तरवर्ती मुखसे अकार, पश्चिम मुखसे उकार, दक्षिण मुखसे मकार, पूर्ववर्ती मुखसे बिन्दु तथा मध्यवर्ती मुखसे नाद उत्पन्न हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवोंसे युक्त होकर ओंकारका विस्तार हुआ है। इन सभी अवयवोंसे एकीभूत होकर वह प्रणव ॐ नामक एक अक्षर हो गया। यह नाम रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद-वर्णित स्त्री-पुरुषवर्गरूप दोनों कुल इस प्रणव मन्त्रसे व्याप्त हैं। यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनोंका बोधक है। ll 18-20 ॥इसी प्रणवसे पंचाक्षरमन्त्रकी उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूपका बोधक है। वह अकारादि क्रमसे और नकारादि क्रमसे क्रमशः प्रकाशमें आया है। [ॐ नमः शिवाय) इस पंचाक्षरमन्त्रसे मातृकावर्ण प्रकट हुए हैं, जो पाँच भेदवाले हैं। उसीसे शिरोमन्त्र तथा चार मुखोंसे त्रिपदा गायत्रीका प्राकट्य हुआ है। उस गायत्रीसे सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदोंसे करोड़ों मन्त्र निकले हैं। उन-उन मन्त्रोंसे भिन्न-भिन्न कार्योंकी सिद्धि होती है, परंतु इस प्रणव एवं पंचाक्षरसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि होती है। इस मूलमन्त्रसे भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्ध होते हैं। मेरे सकल स्वरूपसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी मन्त्रराज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले और शुभकारक हैं । ll 21-24 ॥

नन्दिकेश्वर बोले- तदनन्तर जगदम्बा पार्वतीके साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजीने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णुको परदा करनेवाले वस्त्रसे आच्छादित करके उनके मस्तकपर अपना करकमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्रका उपदेश दिया ।। 25 ।।

यन्त्र-तन्त्रमें बतायी हुई विधिके पालन पूर्वक तीन बार मन्त्रका उच्चारण करके भगवान् शिवने उन दोनों शिष्योंको मन्त्रकी दीक्षा दी। तत्पश्चात् उन शिष्योंने गुरुदक्षिणाके रूपमें अपने आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवश्रेष्ठ जगद्गुरुका स्तवन किया ॥ 26-27 ।। ब्रह्मा और विष्णु बोले - [ हे प्रभो!] आप निष्कलरूप है; आपको नमस्कार है। आप निष्कल तेजसे प्रकाशित होते हैं; आपको नमस्कार है। आप सबके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है। आप सर्वात्माको नमस्कार है अथवा सकल-स्वरूप आप महेश्वरको नमस्कार है। आप प्रणवके वाच्यार्थ है; आपको नमस्कार है। आप प्रणवलिंग वाले हैं; आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करनेवाले आपको नमस्कार है। आपके पाँच मुख हैं; आपको नमस्कार है। पंचब्रह्मस्वरूप पाँच कृत्यवाले आपकोनमस्कार है। आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं, आपके गुण और आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं, आपको नमस्कार है। आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं। आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है। इन | पचद्वारा अपने गुरु महेश्वरकी स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णुने उनके चरणोंमें प्रणाम किया ॥ 28-31 ॥

ईश्वर बोले- हे वत्सो ! मैंने तुम दोनोंसे सारा तत्त्व कहा और दिखा दिया। तुमदोनों देवीके द्वारा उपदिष्ट प्रणव (ॐ), जो मेरा ही स्वरूप है-का निरन्तर जप करो ॥ 32 ॥

[इसके जपसे] ज्ञान, स्थिर भाग्य - सब कुछ सदाके लिये प्राप्त हो जाता है। आर्द्रा नक्षत्रसे युक्त चतुर्दशीको प्रणवका जप किया जाय तो वह अक्षय फल देनेवाला होता है। सूर्यकी संक्रान्तिसे युक्त महा-आर्द्रा | नक्षत्रमें एक बार किया हुआ प्रणवजप कोटिगुने जपका | फल देता है। मृगशिरा नक्षत्रका अन्तिम भाग तथा पुनर्वसुका आदिभाग पूजा, होम और तर्पण आदिके लिये सदा आद्रकि समान ही होता है-यह जानना चाहिये। मेरा या मेरे लिंगका दर्शन प्रभातकालमें ही प्रातः तथा संगव (मध्यानके पूर्व) कालमें करना चाहिये ।। 33-35 ॥

मेरे दर्शन-पूजनके लिये चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिये क्योंकि परवर्तिनी (अमावास्या) तिथिसे संयुक्त चतुर्दशीकी ही प्रशंसा की जाती है। पूजा करनेवालोंके लिये मेरी मूर्ति तथा लिंग दोनों समान हैं, फिर भी मूर्तिकी अपेक्षा लिंगका स्थान श्रेष्ठ है। इसलिये मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे वेर (मूर्ति) से भी श्रेष्ठ समझकर लिंगका ही पूजन करें। लिंगका ॐकारमन्त्रसे और वेरका पंचाक्षरमन्त्रसे पूजन करना चाहिये। शिवलिंगको स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरोंसे भी स्थापना करवाकर उत्तम द्रव्यमय | उपचारोंसे पूजा करनी चाहिये; इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है। इस प्रकार उन दोनों शिष्योंको उपदेश देकर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये ।। 36-39 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रयागमें सूतजीसे मुनियों का शीघ्र पापनाश करनेवाले साधनके विषयमें प्रश्न
  2. [अध्याय 2] शिवपुराणका माहात्म्य एवं परिचय
  3. [अध्याय 3] साध्य-साधन आदिका विचार
  4. [अध्याय 4] श्रवण, कीर्तन और मनन इन तीन साधनोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन
  5. [अध्याय 5] भगवान् शिव लिंग एवं साकार विग्रहकी पूजाके रहस्य तथा महत्त्वका वर्णन
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मा और विष्णुके भयंकर युद्धको देखकर देवताओंका कैलास शिखरपर गमन
  7. [अध्याय 7] भगवान् शंकरका ब्रह्मा और विष्णु के युद्धमें अग्निस्तम्भरूपमें प्राकट्य स्तम्भके आदि और अन्तकी जानकारीके लिये दोनोंका प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] भगवान् शंकरद्वारा ब्रह्मा और केतकी पुष्पको शाप देना और पुनः अनुग्रह प्रदान करना
  9. [अध्याय 9] महेश्वरका ब्रह्मा और विष्णुको अपने निष्कल और सकल स्वरूपका परिचय देते हुए लिंगपूजनका महत्त्व बताना
  10. [अध्याय 10] सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्योंका प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मन्त्रकी महत्ता, ब्रह्मा-विष्णुद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उनका अन्तर्धान होना
  11. [अध्याय 11] शिवलिंगकी स्थापना, उसके लक्षण और पूजनकी विधिका वर्णन तथा शिवपदकी प्राप्ति करानेवाले सत्कर्मोका विवेचन
  12. [अध्याय 12] मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रोंका वर्णन, कालविशेषमें विभिन्न नदियोंके जलमें स्नानके उत्तम फलका निर्देश तथा तीर्थों में पापसे बचे रहनेकी चेतावनी
  13. [अध्याय 13] सदाचार, शौचाचार, स्नान, भस्मधारण, सन्ध्यावन्दन, प्रणव- जप, गायत्री जप, दान, न्यायतः धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदिकी विधि एवं उनकी महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 14] अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन, भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन
  15. [अध्याय 15] देश, काल, पात्र और दान आदिका विचार
  16. [अध्याय 16] मृत्तिका आदिसे निर्मित देवप्रतिमाओंके पूजनकी विधि, उनके लिये नैवेद्यका विचार, पूजनके विभिन्न उपचारोंका फल, विशेष मास, बार, तिथि एवं नक्षत्रोंके योगमें पूजनका विशेष फल तथा लिंगके वैज्ञानिक स्वरूपका विवेचन
  17. [अध्याय 17] लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (अकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षर मन्त्र) का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिवभक्तोंके सत्कारकी महत्ता
  18. [अध्याय 18] बन्धन और मोक्षका विवेचन, शिवपूजाका उपदेश, लिंग आदिमें शिवपूजनका विधान, भस्मके स्वरूपका निरूपण और महत्त्व, शिवके भस्मधारणका रहस्य, शिव एवं गुरु शब्दकी व्युत्पत्ति तथा विघ्नशान्तिके उपाय और शिवधर्मका निरूपण
  19. [अध्याय 19] पार्थिव शिवलिंगके पूजनका माहात्म्य
  20. [अध्याय 20] पार्थिव शिवलिंगके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन
  21. [अध्याय 21] कामनाभेदसे पार्थिवलिंगके पूजनका विधान
  22. [अध्याय 22] शिव- नैवेद्य-भक्षणका निर्णय एवं बिल्वपत्रका माहात्म्य
  23. [अध्याय 23] भस्म, रुद्राक्ष और शिवनामके माहात्म्यका वर्णन
  24. [अध्याय 24] भस्म-माहात्म्यका निरूपण
  25. [अध्याय 25] रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन