मुनिगण बोले [हे] वायुदेव!] परमात्मा शिव किस प्रकारसे इस सम्पूर्ण जगत्का निर्माणकर पुनः इसे स्थापित करके अपनी शक्तिके साथ उत्तम क्रीड़ा करते हैं ? ॥ 1 ॥ यह संसार सर्वप्रथम किस प्रकारसे उत्पन्न हुआ, किसने इस सम्पूर्ण जगत्का विस्तार किया और विशाल उदरवाला कौन इसे बादमें ग्रास बना लेता है ? ॥ 2 ॥
वायु बोले - सबसे पहले शक्तिकी उत्पत्ति हुई, इसके पश्चात् शान्त्यतीतपद उत्पन्न हुआ, तदनन्तर शक्तिमान् प्रभु शिवसे माया एवं अव्यक्त प्रकृति उत्पन्न हुई ॥ 3 ॥
[प्रथमोत्पन्न] शक्तिसे शान्त्यतीतपद, इसके पश्चात् शान्तिपद, तदनन्तर विद्यापद, उसके आगे प्रतिष्ठापद और उसके आगे निवृत्तिपद क्रमशः उत्पन्न हुए। इस प्रकार मैंने ईश्वरप्रेरित सृष्टिका वर्णन संक्षेपमें किया है ।। 4-5 ॥
सृष्टिको उत्पत्ति अनुलोम क्रमसे होती है और प्रतिलोम क्रमसे उसका संहार होता है। इन पाँच पदोंसे उपदिष्ट सृष्टिके अतिरिक्त एक स्रष्टा भी कहा जाता है ॥ 6 ॥
अव्यक्त कारण जो पाँच कलाओंसे व्याप्त हैं तथा जिससे इस विश्वकी उत्पत्ति है और जो चेतनसे अधिष्ठित है, वह अव्यक्त महत्तत्त्वसे लेकर विशेष तत्त्वपर्यन्त इस संसारकी सृष्टि करता है - यह सर्व सम्मत है, फिर भी इसमें अव्यक्त तथा जीवका कर्तृत्व नहीं है ।। 7-8 ॥
प्रकृतिके अचेतन होनेसे और पुरुषके अज्ञानी होनेसे प्रधान, परमाणु आदि जो कुछ भी हैं, सभी अचेतन ही हैं ।। 9 ।।
उनका कर्ता कोई चेतन होना चाहिये, जो बुद्धिसे युक्त हो, इसके बिना कार्य-कारणभावकी संगति नहीं बैठती, क्योंकि यह जगत् कार्यरूप है, सावयव है और कर्तृसापेक्ष है ॥ 10 ॥अतएव जो समर्थ, स्वतन्त्र, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, आदि-अन्तसे परे और महान् ऐश्वर्यसे समन्वित हैं, वे महेश्वर महादेव ही सम्पूर्ण जगत्की रचना करनेवाले, पालन करनेवाले तथा संहार करनेवाले हैं और सबसे पृथक् तथा अन्वयरहित हैं ll 11-12 ।।
प्रधानका परिणाम तथा पुरुषकी प्रवृत्ति- यह सब कुछ उस सत्यव्रत (परमेश्वर] के शासनसे ही प्रवर्तित होता है। सज्जनोंके मनमें यह शाश्वत निष्ठा बनी हुई है, किंतु अल्पबुद्धिवाला इस पक्षको ग्रहण नहीं कर पाता है ।। 13-14 ।।
जबसे इस सृष्टिका आरम्भ होता है और जबतक प्रलय होता है, तबतक ब्रह्मदेवके पूरे सौ वर्ष व्यतीत हो जाते हैं॥ 15 ॥
अव्यक्तजन्मा ब्रह्माकी आयुका नाम 'पर' है। उस परके आधे भागको प्रथम परार्ध तथा द्वितीय भागको द्वितीय परार्थ कहते हैं। दोनों परार्थोके बीत जानेके बाद प्रलयके उपस्थित होनेपर अव्यक्त अपने कार्यभूत जगत्को लेकर अपने स्वरूपमें अवस्थित हो जाता है ॥ 16-17 ll
अव्यक्तके स्वस्वरूपमें अवस्थित हो जानेपर तथा [जगद्रूप] विकारका प्रतिलोमक्रमसे विलय हो जानेपर प्रधान और पुरुष दोनों समान धर्मसे स्थित हो जाते हैं ॥ 18 ॥
तब तम तथा सत्त्वगुण ये दोनों समरूपमें स्थित रहते हैं वे दोनों वृद्धि और न्यूनतासे रहित होकर परस्पर चेष्टाशून्य ओत-प्रोत रहते हैं ॥ 19 ॥
उस समय गुणोंकी साम्यावस्था होनेसे परस्पर वे अविभक्त थे तथा [सर्वत्र घनीभूत] अन्धकार व्याप्त था। वायु तथा जलकी गति शान्त थी और कुछ भी ज्ञात नहीं हो पा रहा था। उस समय जब संसारमें कुछ भी प्रतीत नहीं हो रहा था, तब एकमात्र महेश्वर ही विद्यमान थे। उन परमात्मा महेश्वरने उस सम्पूर्ण माहेश्वरी रात्रिको व्यतीत किया। रात्रिके अवसान तथा प्रभातके आगमनपर उन्होंने मायाके योगसे प्रधान तथा पुरुषमें प्रविष्ट होकर उनको क्षुब्ध कर दिया । 20 - 22 ॥इसके बाद परमेष्ठीकी आज्ञासे अव्यक्तसे पुनः उत्पत्ति और लयके निमित्त सभी प्राणियोंकी सृष्टि हुई। जिनकी इच्छाके द्वारा यह विचित्र विश्व उत्तरोत्तर उत्पन्न हुआ था, जिनकी शक्तिके मात्र एक अंशमें यह समस्त जगत् लयको प्राप्त हो जाता है। मोक्षमार्गको जाननेवाले लोग जिन्हें मोक्षमार्गका नियामक तथा आत्मस्वरूप बताते हैं, उन सर्वलोक विलक्षण [ परमेश्वर] को नमस्कार है ॥ 23-24 ॥