ऋषि बोले- [ हे सूतजी!] अब आप ज्योतिर्लिंगोंके माहात्म्य तथा उनकी उत्पत्तिका वर्णन कीजिये; जैसा आपने सुना है, वह सब बताइये ॥ 1 ॥ सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो! मैं उनके माहात्म्य एवं उनकी उत्पत्तिके विषयमें, जैसा कि मैंने अपने सद्गुरुसे सुना है, संक्षेपमें अपनी बुद्धिके अनुसार कहता हूँ; आपलोग श्रवण करें ॥ 2 ॥
हे मुनिश्रेष्ठो सैकड़ों वर्षोंमें भी इनके माहात्म्यका वर्णन नहीं किया सकता है, फिर भी मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥ 3 ॥ उनमें सोमनाथ प्रथम कहे गये हैं। हे मुने!
सबसे पहले उन्हींका माहात्म्य सावधानीसे सुनिये ॥ 4 ॥ हे मुनीश्वरो महात्मा दक्षने अपनी अश्विनी आदि सत्ताईस कन्याओं का विवाह चन्द्रमासे कर दिया ॥ 5 ॥
वे चन्द्रमाको [ अपने पतिके रूपमें] प्राप्तकर अत्यधिक शोभित हुई और चन्द्रमा भी उन्हें प्राप्तकर निरन्तर शोभित होते थे, जैसा कि सुवर्णसे मणि सुशोभित होती है और मणिसे सुवर्ण सुशोभित होता है ॥ 6 ॥उसके अनन्तर कालक्रममें उनके साथ जो हुआ, उसको सुनिये। [चन्द्रमाकी] सभी पत्नियोंमें जो रोहिणी नामवाली कही गयी है, वह उन्हें जितना अधिक प्रिय थी, उतना अन्य कोई भी नहीं थी । ll 7-8 ॥
तब अन्य कन्याएँ दुखी होकर अपने पिताकी शरणमें गयीं। वहाँ जाकर उन सबने जो दुःख था, उसे निवेदन किया। हे ब्राह्मणो! यह सुनकर वे दक्ष बहुत दुखी हुए; उसके बाद चन्द्रमाके पास आकर उन्होंने शान्तिपूर्वक यह वचन कहा- ॥ 9-10 ॥
दक्ष बोले- हे चन्द्रमा ! आप उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हैं; सभी आश्रितोंके प्रति [ तो समान व्यवहार करना उचित है, पर] आपका विषम व्यवहार क्यों है ? अबतक आपने जो कुछ भी किया, सो किया, किंतु पुनः ऐसा व्यवहार न करें; विषम व्यवहार नरक देनेवाला कहा गया है । ll 11-12 ॥
सूतजी बोले- दक्ष अपने दामाद चन्द्रमासे इस प्रकार प्रार्थनाकर निश्चिन्त हो अपने घर चले गये। चन्द्रमाने दक्षकी बात नहीं मानी, क्योंकि वे शिवमायाके प्रभावसे विमोहित थे, जिससे यह जगत् मोहित हो रहा है ।। 13-14 ।।
जब जिसका शुभ होना है, तब उसका शुभ अवश्य होता है और जब अशुभ होना है, तब उसका शुभ किस प्रकार हो सकता है ! ll 15 ll
चन्द्रमाने भी बलवान् होनहारके कारण उनकी बात नहीं मानी। वे रोहिणीमें आसक्त रहते थे तथा अन्य किसी [पत्नी]- का मान नहीं करते थे। तब दक्ष बहुत दुखी हुए और सुनीतिमें निपुण वे पुनः स्वयं आकर चन्द्रमासे नीतिपूर्वक कहने लगे- ॥ 16-17 ॥ दक्ष बोले- हे चन्द्र ! आप सुनें, मैंने आपसे अनेक प्रकारसे प्रार्थना की, किंतु आपने नहीं माना, अतः आप क्षयरोगसे ग्रस्त हो जायँ ॥ 18 ॥
सूतजी बोले- उनके इस प्रकार कहनेपर चन्द्रमा उसी क्षण क्षयरोगी हो गये। तब उनके क्षीण होते ही महान् हाहाकार मच गया। हे मुने! उस समय सब देवता एवं ऋषि 'हाय! अब क्या करना चाहिये, [चन्द्रमाका कल्याण] किस प्रकार होगा'- ऐसा कहते हुए दुःखित तथा व्याकुल हो गये । ll 19-20 ॥चन्द्रमाने इन्द्र आदि सभी देवताओं तथा वसिष्ठ आदि ऋषियोंसे यह सब बताया तब सभी लोग ब्रह्माजीकी शरण में गये ॥ 21 ॥
मुने। उस समय वहाँ जाकर अति व्याकुल हुए देवगण एवं ऋषियोंने ब्रह्मदेवको प्रणाम करके उनकी स्तुतिकर वह सारा समाचार निवेदन किया। ब्रह्मा भी उनकी बात सुनकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो शिवमायाकी प्रशंसाकर उन्हें सुनाते हुए कहने लगे ॥ 22-23 ।।
ब्रह्माजी बोले- अहो ! सारे संसारको दुःख देनेवाला यह महान् कष्ट उपस्थित हुआ है। चन्द्रमा तो सदासे ही दुष्ट है और दक्षने भी इसे शाप दे दिया ॥ 24 ॥
दुष्ट चन्द्रमाने और भी अनेक दुष्कर्म किये हैं। हे देवताओं तथा ऋषियो आप लोग चन्द्रमाका पुरातन कृत्य सुनिये॥ 25 ॥
इस दुष्टने बृहस्पतिके घर जाकर उनकी पत्नी ताराका अपहरण किया था। उसके बाद वह दैत्योंसे जाकर मिल गया और उनके पक्षमें होकर देवताओंसे युद्ध भी किया। जब मैंने और अत्रिने चन्द्रमाको मना किया, तब उसने ताराको उन्हें लौटा दिया ॥ 26-27 ॥ उसे गर्भवती देखकर बृहस्पतिने कहा- मैं इसे ग्रहण नहीं करूँगा, इसके बाद हमलोगोंने बृहस्पतिको ऐसा करनेसे रोका, तब बड़ी कठिनाईसे उन्होंने ताराको स्वीकार किया ॥ 28 ॥
बृहस्पतिने पुनः कहा कि मैं इसे तभी ग्रहण करूँगा, जब यह गर्भका परित्याग करेगी। हे महर्षियो! तब मैंने ताराका गर्भत्याग कराया। मैंने उससे पुनः पूछा कि यह किसका गर्भ है? तब उसने कहा कि यह गर्भ चन्द्रमाका है। इसके बाद बृहस्पतिने मेरे कहनेसे उस ताराको ग्रहण किया । ll 29-30 ॥
इस प्रकारके अनेक दुष्ट कर्म चन्द्रमाके हैं; उनका वर्णन मैं पुनः किस प्रकार करूँ? वह आज भी वैसा ही क्यों कर रहा है? अब जो होनहार था, वह तो भलीभाँति हो गया, वह तो कभी अन्यथा होनेवाला नहीं है। अब मैं आपलोगोंको उत्तम उपाय बताता हूँ, आदरपूर्वक सुनिये ॥ 31-32 ॥चन्द्रमा कल्याणकारी प्रभासक्षेत्रमें देवताओंके साथ जाय और वहाँ मृत्युंजय- विधानसे शिवाराधन करे। शिवलिंगको सामने स्थापितकर चन्द्रमा प्रतिदिन तपस्या करे; तब प्रसन्न हुए शिव उसे क्षयरोगसे रहित कर देंगे ।। 33-34 ।।
सूतजी बोले- [ हे महर्षियो!] उन ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर वे देवता तथा ऋषि लौटकर वहाँ आये, जहाँ दक्ष तथा चन्द्रमा स्थित थे ॥ 35 ॥ इसके बाद उन सभी देवताओं तथा ऋषियोंने दक्षको आश्वासन देकर तथा चन्द्रमाको अपने साथ ले करके प्रभासतीर्थमें जाकर सरस्वती आदि श्रेष्ठ तीथका आवाहन करके, मृत्युंजयमन्त्रद्वारा पार्थिवार्चन विधिसे शिवजीकी आराधना की ।। 36-37 ॥
उसके बाद विशुद्ध अन्तःकरणवाले वे सभी देवता तथा ऋषि चन्द्रमाको प्रभावक्षेत्रमें छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक अपने- अपने धामको चले गये ॥ 38 ॥
चन्द्रमाने निरन्तर छः मासतक तप किया और मृत्युंजयमन्त्र से वृषभध्वजका पूजन किया ॥ 39 ॥
स्थिरचित्त होकर चन्द्रमा दस करोड़ की संख्या में उस मृत्युंजयमन्त्रका जप करके तथा मन्त्रस्वरूप भगवान् मृत्युंजयका ध्यान करते हुए वहाँ स्थित रहे ॥ 40 ll
तब उन्हें देखकर भक्तवत्सल भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और प्रकट होकर अपने भक्त चन्द्रमासे कहने लगे - ॥ 41 ll
शंकर बोले- हे चन्द्र! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे मनमें जो अभिलषित हो, वह वर माँगो, मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, मैं तुम्हें सम्पूर्ण उत्तम वर प्रदान करूँगा ll 42 ॥
चन्द्र बोले- हे देवेश! यदि आप [मुझपर.] प्रसन्न हैं, तो मेरा कौन सा कार्य असाध्य रह सकता है; फिर भी हे शंकर ! मेरे शरीरके क्षयरोगको दूर कीजिये। आप मेरा अपराध क्षमा करें और निरन्तर कल्याण करें। उनके ऐसा कहनेपर शिवजीने यह वचन कहा- ॥ 43-44 ।।
शिवजी बोले- हे चन्द्र एक पक्षमें तुम्हारी [एक-एक] कला प्रतिदिन क्षीण होगी और पुनः दूसरे पक्षमें क्रमशः वह कला निरन्तर बढ़ेगी ॥ 45 ॥सूतजी बोले- हे द्विजो चन्द्रमाके ऐसा वरदान प्राप्त कर लेने पर हर्षसे परिपूर्ण चित्तवाले सभी देवता और ऋषि वहाँ शीघ्र ही आये ।। 46 ।। वहाँ आकर उन सभीने चन्द्रमाको आशीर्वाद दिया और शिवजीको प्रणाम करके हाथ जोड़कर आदरपूर्वक उनसे प्रार्थना की- ॥ 47 ॥
देवता बोले- हे देवदेव! हे महादेव! हे परमेश! आपको नमस्कार है। हे शम्भो ! हे स्वामिन्! पार्वतीसहित आप यहाँ स्थिर हो जाइये ॥ 48 ॥ सूतजी बोले- तब पूर्वमें निराकार भगवान् | शिव चन्द्रमाके द्वारा उत्तम भक्तिसे स्तुति किये जानेपर पुनः साकार हो गये ॥ 49 ॥
देवताओं पर प्रसन्न होकर वे शंकर उस क्षेत्रके माहात्म्य [वर्धन] के लिये तथा चन्द्रमाके यशके [विस्तारके) लिये वहाँ उन्हींके नामपर तीनों लोकोंमें सोमेश्वर नामसे विख्यात हुए। हे द्विजो! वे पूजन करनेसे क्षय, कुष्ठ आदि रोगोंका विनाश करते हैं॥ 50-51 ॥
ये चन्द्रमा धन्य हैं, ये कृतकृत्य हैं, जिनके नामसे स्वयं जगन्नाथ शंकरजी धरातलको पवित्र करते हुए यहाँ स्थित हुए। वहीं पर देवताओंने चन्द्रमाके नामसे चन्द्रकुण्डकी स्थापना की, जहाँ शिव तथा ब्रह्माका सम्मिश्रित निवास माना जाता है ।। 52-53 ॥
पृथ्वीपर प्रसिद्ध वह चन्द्रकुण्ड समस्त पापका नाश करनेवाला है। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। उस कुण्डमें छः मासतक निरन्तर स्नान करनेसे क्षय आदि जो भी असाध्य रोग हैं, वे सभी नष्ट हो जाते हैं॥ 54-55 ll
प्रभासतीर्थकी परिक्रमा करके शुद्धात्मा मनुष्य पृथ्वीकी परिक्रमा करनेसे होनेवाला फल प्राप्त करता है और मरनेपर स्वर्गमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 56 ॥
सोमेश्वर लिंगका दर्शनकर मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है और [इस लोकमें] मनोवांछित अभीष्ट फल प्राप्तकर मरनेके पश्चात् स्वर्गको जाता है ॥ 57 ॥
मनुष्य जिस-जिस फलको उद्देश्य करके इस | उत्तम तीर्थका सेवन करता है, वह उस उस फलको अवश्य प्राप्त करता है; इसमें संशय नहीं है ॥ 58 ॥सोमेश्वरके उस प्रकारके फलको देखकर वे देवता एवं ऋषिगण प्रीतिपूर्वक शिवजीको नमस्कारकर क्षयरोग रहित चन्द्रमाको लेकर उस तीर्थकी परिक्रमा करके उसकी प्रशंसा करते हुए [अपने-अपने धामको चले गये और चन्द्रमा भी अपना पुरातन कार्य करने लगे ।। 59-60 ll
हे मुनीश्वरो ! इस प्रकार मैंने सोमेश्वरकी उत्पत्तिका वर्णन कर दिया। सोमेश्वर लिंग इसी प्रकार प्रकट हुआ था। जो मनुष्य सोमेश्वर लिंगकी उत्पत्तिको सुनता है अथवा दूसरोंको सुनाता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह सभी प्रकारके | पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। 61-62 ।।