नारदजी बोले हे तात! मैंने गणेशजीके श्रेष्ठ जन्मके आख्यानको सुन लिया तथा अत्यन्त पराक्रमसे युक्त उनका दिव्य चरित्र भी सुना। हे तात! हे सुरेश्वर! उसके बाद क्या हुआ? उसे भलीभाँति कहिये। यह आख्यान शिवा और शिवके यशसे परिपूर्ण तथा महान् आनन्द देनेवाला है ॥ 1-2 ll
ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! करुणार्द्र चित्तवाले आपने ठीक ही पूछा। हे ऋषिसत्तम। अब मैं [आगेकी कथा] कह रहा हूँ, उसे ध्यानसे सुनिये ll 3 ॥ हे विप्रेन्द्र शिवा एवं शिव अपने उन दोनों पुत्रोंकी उत्तम लीला बारंबार देखकर अत्यन्त प्रसन्न होने लगे ॥ 4 ॥
माता-पिताके दुलारसे उनका सुख दिन-रात बढ़ने लगा और वे दोनों बड़ी प्रसन्नतासे आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करते थे। हे मुनीश्वर वे दोनों पुत्र महान् भक्तिसे युक्त होकर माता-पिताकी सेवा करते थे। षण्मुख कार्तिकेय तथा गणेशके प्रति माता-पिताका अधिक स्नेह शुक्ल पक्षके चन्द्रमाके समान सदा बढ़ने लगा ॥ 5-7 ॥
हे देवर्षे एक समय शिवा एवं शिव-वे दोनों प्रेमयुक्त होकर एकान्तमें बैठे हुए कुछ विचार कर रहे थे ॥ 8 ॥
शिवा- शिव बोले- अब हमारे ये पुत्र विवाहके योग्य हो गये हैं। अतः इन दोनोंका शुभ विवाह कैसे किया जाय ? जिस प्रकार षण्मुख प्रिय हैं, उसी प्रकार गणेश भी प्रिय हैं। इस प्रकारको चिन्तामें पड़े हुए वे दोनों लीलाका आनन्द लेने लगे ॥ 9-10 ॥
हे मुने! अपने माता-पिताका यह विचार जानकर वे दोनों पुत्र उनकी इच्छासे विवाहके लिये लालायित हो उठे। 'मैं [पहले] विवाह करूँगा' इस प्रकार वारंवार कहते हुए दोनों आपसमें विवाद करने लगे ।। 11-12 ॥जगत्के अधिपति वे दोनों शिवा और शिव उनके वचनको सुनकर लोकाचारकी रीतिका आश्रय लेकर महान् आश्चर्यमें पड़ गये। अब क्या करना चाहिये और किस प्रकार इनके विवाहकी विधि सम्पन्न की जाय ऐसा निश्चय करके उन दोनोंने एक अद्भुत युक्ति रची। किसी समय बैठकर माता-पिताने अपने दोनों पुत्रोंको बुलाकर कहा- ॥ 13-15 ॥
शिवा-शिव बोले-हमने तुम दोनोंके लिये एक सुखदायी नियम बनाया है। हे उत्तम पुत्रो ! उसे प्रीतिसे सुनो, हमलोग यथार्थ रूपसे कह रहे हैं ॥ 16 ॥
तुम दोनों ही पुत्र समानभावसे हमें प्रिय हो, इसमें कोई विशेष नहीं है। अतः हमलोगोंने तुमदोनों पुत्रोंके लिये एक कल्याणप्रद शर्त रखी है। तुम दोनोंमें जो कोई भी सम्पूर्ण पृथ्वीकी परिक्रमाकर पहले चला आयेगा, उसीका शुभ लक्षणसम्पन्न विवाह पहले किया जायगा ।। 17-18 ll
ब्रह्माजी बोले- उन दोनोंका वचन सुनकर महावली कार्तिकेय पृथ्वीकी परिक्रमा करनेके लिये बड़ी शीघ्रतासे घरसे चल पड़े। किंतु बुद्धिमान् गणेशजी अपनी सद्बुद्धिसे चित्तमें बारंबार विचार करके वहीं स्थित रहे कि मुझे क्या करना चाहिये और कहाँ जाना चाहिये, मैं तो लौप भी नहीं सकता है, कोसभर चलनेके बाद मैं पुनः चल नहीं सकता, फिर इस पृथ्वीकी परिक्रमा करके मैं कौन-सा सुख प्राप्त कर सकूँगा? ऐसा विचारकर गणेशजीने जो किया, उसे आप सुनिये। विधिपूर्वक स्नान करके स्वयं घर आकर वे माता-पितासे कहने लगे ॥ 19-23 ॥
गणेशजी बोले- हे तात! आप दोनोंकी पूजाके लिये मेरे द्वारा स्थापित इस आसनपर आप लोग बैठ जाइये और मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये ॥ 24 ॥ ब्रह्माजी बोले- उनकी बात सुनकर पार्वती और परमेश्वर पूजा ग्रहण करनेके लिये आसनपर बैठ गये॥ 25 ॥ गणेशजीने उन दोनोंका पूजन किया और बारंबार उनकी परिक्रमा की, इस प्रकार सात परिक्रमा की तथा सात बार प्रणाम किया ।। 26 ।।
हे तात! बुद्धिसागर गणेशजीने बारंबार उनकी स्तुतिकर हाथ जोड़कर प्रेमविह्वल अपने माता-पितासे कहा- ।। 27 ।।गणेशजी बोले- हे माता एवं हे पिता ! आप मेरी श्रेष्ठ बात सुनिये, अब शीघ्र ही मेरा सुन्दर विवाह कर दीजिये ॥ 28 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार महात्मा गणेशजीका यह वचन सुनकर माता-पिताने महा बुद्धिनिधि गणेशजीसे कहा- ॥ 29 ॥ शिवा- शिव बोले- तुम भी वनसहित पृथ्वीकी ठीक ठीक परिक्रमा करो, कुमार गया हुआ है, वहाँ तुम भी जाओ और पहले चले आओ ॥ 30 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार माता-पिताके इस वचनको सुनकर गणेशजी संयत तथा कुपित होकर कहने लगे - ॥ 31 ॥
गणेशजी बोले- हे माता एवं हे पिता ! आप दोनों धर्मरूप और अत्यन्त विद्वान् माने गये हैं, अतः हे श्रेष्ठ [ माता-पिता ] मेरी धर्मसम्मत बातको ठीक-ठीक सुनिये। मैंने तो सात बार पृथ्वीकी परिक्रमा की है, तब हे माता पिता! आप दोनों ऐसा क्यों कह रहे हैं ? ।। 32-33 ।।
ब्रह्माजी बोले- उसके बाद गणेशजीका वचन सुनकर महालीला करनेवाले उन दोनों शिवा- शिवने लौकिक रीतिका आश्रय लेते हुए कहा- ll 34 ॥
माता-पिता बोले- हे पुत्र ! तुमने अति विशाल, सात द्वीपवाली, समुद्रपर्यन्त फैली हुई तथा घोर जंगलोंसे परिव्याप्त पृथ्वीकी परिक्रमा कब की ? ॥ 35 ll
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! शिवा-शिवके इस वचनको सुनकर महाबुद्धिके निधान पुत्र गणेशजी यह वचन कहने लगे- ॥ 36 ॥
गणेशजी बोले- मैंने आप दोनों माता-पिता शिवा और शिवका पूजन करके अपनी बुद्धिसे समुद्रपर्यन्त पृथ्वीकी परिक्रमा कर ली। इस प्रकारका वचन वेदों, शास्त्रों तथा धर्मशास्त्रोंमें विद्यमान है, क्या यह वचन सत्य है अथवा सत्य नहीं है ? ।। 37-38 ll
माता-पिताका पूजनकर जो उनकी परिक्रमा कर लेता है, उसे पृथ्वीकी परिक्रमा करनेसे होनेवाला फल निश्चित रूपसे प्राप्त हो जाता है ॥ 39 ॥
जो माता-पिताको घरमें छोड़कर तीर्थस्थानमें जाता है, उसके लिये वह वैसा ही पाप कहा गया है, जो उन दोनोंके वध करनेसे लगता है ॥ 40 ॥माता-पिताका चरणकमल ही पुत्रके लिये महान् तीर्थ है, अन्य तीर्थ तो दूर जानेपर प्राप्त होता है ॥ 41 ॥
यह तीर्थ सन्निकट रहनेवाला, [ सभी प्रकारसे ] सुलभ और धर्मोका साधन है। पुत्रके लिये माता-पिता तथा स्त्रीके लिये पति ही घरमें सर्वोत्तम तीर्थ है ॥ 42 ॥
वेद और धर्मशास्त्र निरन्तर ऐसा कहते हैं, आपलोगों को भी यही करना चाहिये, अन्यथा ये असत्य हो जायँगे। ऐसी स्थितिमें आपका स्वरूप ही असत्य हो जायगा और तब वेद भी असत्य हो जायँगे, इसमें संशय नहीं है। अतः अब मेरा शुभ विवाह शीघ्रता से कीजिये, अथवा वेदों और शास्त्रोंको मिथ्या कहिये ।। 43-45 ॥
हे धर्मस्वरूप माता-पिता! इन दोनोंमें जो श्रेष्ठतम हो, उसीको ठीक-ठीक विचारकर प्रयत्नपूर्वक कीजिये ।। 46 ।।
ब्रह्माजी बोले- तब ऐसा कहकर बुद्धिमानों में श्रेष्ठ उत्कृष्ट बुद्धिवाले पार्वतीपुत्र गणेशजी मौन हो गये ।। 47 ।।
इसके बाद विश्वके स्वामी दम्पती पार्वतीपरमेश्वर उनका यह वचन सुनकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये। तदनन्तर उन शिवा-शिवने बुद्धिविचक्षण तथा यथार्थ बात कहनेवाले पुत्रकी प्रशंसा करते हुए यथार्थ बोलनेवाले उनसे प्रेमपूर्वक कहा- ।। 48-49 ।।
शिवा- शिव बोले- हे पुत्र! तुझ महात्मामें निर्मल बुद्धि उत्पन्न हुई है, तुमने जो बात कही है, वह सत्य ही है, इसमें सन्देह नहीं है। संकट उपस्थित होनेपर भी जिसकी बुद्धिमें विशेषता बनी रहती है, | उसका दुःख उसी प्रकार दूर हो जाता है, जैसे सूर्यके | उदय होनेपर अन्धकार दूर हो जाता है। जिसके पास बुद्धि है, उसीके पास बल है। बुद्धिहीनको बल कहाँसे प्राप्त होगा, [बुद्धिके बलसे] किसी खरगोशने मदोन्मत्त सिंहको कुएँ में गिरा दिया था। वेद-शास्त्रों तथा पुराणोंमें बालकके लिये जो धर्मपालन बताया गया है, तुमने वह सब धर्मपालन किया है। तुमने जो सम्यक् कार्य किया, उसे कोई नहीं कर सकता। हम दोनोंने तुम्हारी बात मान ली. अब उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता है ॥ 50-54 ॥ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर वे दोनों बुद्धिसागर गणेशको आश्वस्त कर उनका विवाह करनेके लिये उत्तम विचार करने लगे ॥ 55 ॥