ब्रह्माजी बोले - [ हे नारद!] तदनन्तर शैलराज हर्षित होकर उत्तम फल-फूलका समूह लेकर | अपनी पुत्रीके साथ भगवान् हरके समीप गये। वहाँ | जाकर उन्होंने ध्यानपरायण त्रिलोकीनाथको प्रणाम करके अपनी अद्भुत कन्या कालीको हृदयसे उन्हें अर्पित कर दिया ॥ 1-2 ॥
सब फल-फूल आदि उनके सामने रखकर और पुत्रीको आगे करके वे शैलराज शम्भुसे यह कहने लगे - ॥3॥
हिमगिरि बोले हे भगवन्! मेरी पुत्री आप चन्द्रशेखरकी सेवा करनेके लिये बड़ी उत्सुक है, आपकी आराधनाकी इच्छासे मैं इसको लाया हूँ ॥4॥
यह अपनी दो सखियोंके साथ सदा आप शंकरकी ही सेवा करेगी। हे नाथ! यदि आपका मुझ अनुग्रह है, तो इसे [सेवाके लिये] आज्ञा दीजिये ॥5॥
ब्रह्माजी बोले- तब शंकरने यौवनकी प्रथमावस्थायें वर्तमान पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली विकसित नीलकमलके पत्रके समान आभावाली, समस्त लीलाओंकी स्थानरूप, सुन्दर वेषसे सुसज्जित, शंख के समान ग्रीवावाली, विशाल नेत्रोंवाली, सुन्दर कर्णयुगलसे शोभित, मृणालके समान चिकनी एवंलम्बी दो भुजाओंसे मनोहर प्रतीत होनेवाली, कमलकलीके समान घने, मोटे तथा दृढ़ स्तनोंको धारण करनेवाली, पतले कटिप्रदेशवाली, त्रिवलीयुक्त मध्यभागवाली, स्थलपदाके समान चरणयुगलसे सुशोभित, अपने दर्शनसे ध्यानरूपी पिंजड़े में बन्द मुनियोंके मनको भी विचलित करनेमें समर्थ और स्त्रियोंमें सर्वश्रेष्ठ उस [कन्या] को देखा 6-10 ॥
ध्यानियोंके भी मनका हरण करनेवाली, विग्रहसे तन्त्रमन्त्रोंको बढ़ानेवाली तथा कामरूपिणी वैसी उस कन्याको देखकर उन महायोगीने शीघ्र दोनों नेत्र बन्द कर लिये और वे अपने उत्तम, परमतत्त्वमय, तीनों गुणोंसे परे तथा अविनाशी स्वरूपका ध्यान करने लगे ।। 11-12 ।।
उस समय सर्वेश्वर सर्वव्यापी, तप करते हुए, बन्द नेत्रोंवाले, चन्द्रकलारूप आभूषणवाले, जटा धारण करनेवाले, वेदान्तके द्वारा जाननेयोग्य तथा उत्तम आसनमें स्थित शिवको देखकर महात्मा हिमालयने उन्हें प्रणाम किया, वे पुनः संशयमें पड़ गये। इसके बाद वाक्यवेत्ताओंमें श्रेष्ठ गिरीश्वर जगत्के एकमात्र बन्धु शंकरसे यह वचन कहने लगे - ॥ 13-14 ॥
हिमालय बोले- हे देवदेव ! हे महादेव हे करुणाकर! हे शंकर! हे विभो ! आँखें खोलकर मुझ शरणागतको देखिये ।। 15 ।।
हे शिव हे सर्व हे महेशान! हे जगत्को आनन्द प्रदान करनेवाले प्रभो! हे महादेव मैं सम्पूर्ण आपत्तियोंको दूर करनेवाले आपको प्रणाम करता हूँ। हे देवेश वेद और शास्त्र भी आपको पूर्णरूपसे नहीं जानते हैं क्योंकि आपकी महिमा वाणी तथा मनके मार्गसे भी सर्वधा परे है ।। 16-17 ।।
सभी श्रुतियाँ भी आपकी महिमाका पार न पा सकनेके कारण चकित होकर नेति नेति कहते हुए सदा आपका वर्णन करती हैं, फिर दूसरोंकी क्या बात कही जाय ! ॥ 18 ॥
बहुत से भक्त ही भक्तिके द्वारा आपकी कृपा प्राप्त करके उसे जान सकते हैं; क्योंकि [आपकी] शरणमें आये हुए भक्तोंको कहीं भी भ्रम आदि नहीं होता ॥ 19 ॥अब आप दया करके इस समय मुझ अपने | दासका निवेदन सुनें। हे देव! हे तात! मैं आपकी आज्ञासे दीन होकर उसका वर्णन कर रहा हूँ ॥ 20 ॥ हे महादेव! हे शंकर! मैं आपकी कृपासे भाग्यशाली
हो गया हू। हे नाथ! मुझे अपना दास समझकर मुझपर कृपा करें, आपको नमस्कार है। हे प्रभो! मैं आपके | दर्शनके लिये प्रतिदिन इस कन्याके साथ आया करूंगा। हे स्वामिन्! मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ 21-22 ॥
ब्रह्माजी बोले- उनका यह वचन सुनकर अपने नेत्र खोलकर ध्यान त्यागकर और कुछ सोच-विचारकर देवदेव महादेव यह वचन कहने लगे- ॥ 23 ॥
महेश्वर बोले - हे भक्त ! [अपनी] कन्याको | घरपर ही छोड़कर नित्य मेरे दर्शनके लिये आप आ सकते हैं। अन्यथा मेरा दर्शन नहीं होगा ॥ 24 ॥
ब्रह्माजी बोले- महेशके इस प्रकारके वचनको | सुनकर पार्वतीके पिता हिमालय सिर झुकाकर शिवजी से | यह कहने लगे- ॥ 25 ॥
हिमाचल बोले [हे प्रभो!] इस कन्याने साथ [आपके दर्शनके लिये] किस कारणसे मुझे नहीं आना चाहिये, इसे बताइये। क्या यह आपकी सेवा करनेमें अयोग्य है? मैं इसका कारण नहीं समझ पा रहा हूँ ॥ 26
ब्रह्माजी बोले- तत्पश्चात् वृषभध्वज शंकर विशेषतः कुयोगियोंका लोकाचार दिखाते हुए हँसकर हिमालयसे कहने लगे- ॥ 27 ॥
शम्भु बोले [हे शैलराज] मनोहर नितम्बवाली, तन्वी, चन्द्रमुखी तथा सुन्दरी इस कन्याको मेरे सन्निकट मत लाइयेगा, इसके लिये मैं बार-बार मना करता हूँ 28 ॥
वेदोंके पारगामी विद्वानोंने स्त्रीको मायारूपा कहा है, उसमें भी विशेष रूपसे युवती स्त्री तो उपस्वियोंके लिये विघ्नकारिणी होती है॥ 29 ॥
हे भूधर ! मैं तपस्वी, योगी तथा सदा मायासे निर्लिप्त रहनेवाला है। अतः मुझे युवती से क्या प्रयोजन है? हे तपस्वियोंके श्रेष्ठ आश्रय ! आपको पुनः ऐसा नहीं कहना चाहिये; क्योंकि आप वेदधर्ममें | प्रवीण ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ तथा विद्वान् है ll 30-31 llहे पर्वत ! उनके संगसे शीघ्र ही विषयवासना उत्पन्न हो जाती है, वैराग्य नष्ट हो जाता है और उससे श्रेष्ठ तपस्या नष्ट हो जाती है। अतः हे शैल! तपस्वियोंको स्त्रियोंका संग नहीं करना चाहिये; वह [स्त्री] महाविषयका मूल तथा ज्ञान-वैराग्यका नाश करनेवाली होती है ।। 32-33 ।।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकारकी बहुत सी बातें उन गिरिराजसे कहकर महान् योगियोंमें श्रेष्ठ महायोगी प्रभु महेश्वर चुप हो गये ॥ 34 ॥
हे देवर्षे उन शम्भुका यह स्पृहारहित, निरामय तथा निष्ठुर वचन सुनकर कालीके पिता [हिमालय] विस्मयमें पड़ गये और वे कुछ-कुछ व्याकुल- से होकर चुप हो गये। उस समय तपस्वीके द्वारा कही गयी बातको सुनकर और गिरिराजको आश्चर्यमें पड़ा हुआ विचार करके शिवजीको प्रणामकर भवानी उनसे विशद वचन कहने लगीं ॥। 35-36 ।।