ब्रह्माजी बोले- हे तात! इसके बाद भाग्यवान् एवं बुद्धिमान् पर्वतश्रेष्ठ हिमालयने सबको भोजन करानेके लिये आँगनको सजाया ॥ 1 ॥उन्होंने अच्छी प्रकारसे उसका मार्जन तथा लेपन कराया और अनेक प्रकारकी सुगन्धित वस्तुओंसे आदरपूर्वक उसे अलंकृत कराया ॥ 2 ॥ तदनन्तर अपने पुत्रों तथा अन्य पर्वतोंद्वारा शंकरजी- सहित सभी देवगणों तथा अन्य लोगोंको भोजनके लिये बुलवाया ॥ 3 ॥
हे मुने! हिमालयके आमन्त्रणको सुनकर विष्णु तथा सभी देवता आदिके साथ वे प्रभु प्रसन्नताके साथ भोजनके लिये वहाँ गये 4 ॥
हिमालयने प्रभु तथा उन सभी देवगणोंका यथोचित सत्कार करके घरके भीतर उत्तम आसनोंपर प्रसन्नताके साथ बैठाया और उन्हें अनेक प्रकारकी सुभोज्य वस्तुओंको परोसकर नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर भोजनके लिये प्रार्थना की ।। 5-6 ॥
उसके बाद विष्णु आदि सभी देवता [हिमालयसे] इस प्रकार सम्मानित होकर सदाशिवको आगेकर भोजन करने लगे ॥ 7 ॥
उस समय सभी देवगण मिलकर एक साथ पंक्तिबद्ध होकर [परस्पर] हास्य करते हुए अलग अलग भोजन करने लगे ॥ 8 ॥
महाभाग नन्दी, भृंगी, वीरभद्र तथा वीरभद्रके गण पृथक् होकर कौतूहलमें भरकर भोजन करने लगे ॥ 9 ॥
अनेक प्रकारकी शोभासे सम्पन्न महाभाग इन्द्र आदि लोकपाल तथा देवगण अनेक प्रकारके हास परिहासके साथ भोजन करने लगे ॥ 10 ॥
सभी मुनि, ब्राह्मण तथा ऋषिगण आनन्दके साथ पृथक् पंक्तिमें बैठकर भोजन करने लगे ॥ 11 ॥ भृगु आदि
इसी प्रकार चण्डीके सभी गणोंने भी भोजन किया। वे भोजन करनेके बाद प्रसन्नतापूर्वक कौतूहल करते हुए अनेक प्रकारके हास-परिहास कर रहे थे ॥ 12 ॥
इस तरह विष्णु आदि उन सभी देवताओंने आनन्दके साथ भोजन किया, फिर आचमन करके विश्रामके लिये वे प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने निवासस्थानको चले गये ॥ 13 ॥इधर, मेनाकी आज्ञासे सभी पतिव्रता स्त्रियों भक्तिपूर्वक शिवसे प्रार्थनाकर वास नामक परमानन्ददायक निवासगृहमें ले गयीं ॥ 14 ॥
वहाँपर मेनाके द्वारा दिये गये मनोहर रत्नके सिंहासनपर बैठकर प्रसन्नतापूर्वक शिवजी वासगृहको देखने लगे ॥ 15 ॥
यह गृह सैकड़ों जलते हुए रत्नदीपकों से प्रकाशित तथा सोभासम्पन्न था, वहाँ अनेक प्रकारके रत्नोंके पात्र विराज रहे थे, उसमें स्थान-स्थानपर मोती तथा मणियाँ लगी हुई थीं। वह रत्नोंके दर्पणकी शोभासे युक्त था, वह श्वेत वर्णके चैवरोंसे मण्डित था, उसमें मोतियों और मणियोंकी मालाएँ लगी हुई थीं। वह परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न, अनुपम, महादिव्य, विचित्र, अत्यन्त मनोहर तथा चित्तको प्रसन्न करनेवाला था और उसके प्रत्येक स्थलमें नाना प्रकारकी कारीगरी की गयी थी ॥ 16-18 ॥
वह गृह शिवके द्वारा दिये गये वरका अतुलनीय प्रभाव प्रकट कर रहा था और शोभासे सम्पन्न होनेके कारण उस गृहका शिवलोक नामकरण किया गया था ।। 19 ।।
वह अनेक प्रकारके सुगन्धित उत्तम द्रव्योंसे सुवासित, उत्तम प्रकाशसे युक्त, चन्दन अगरुयुक्त तथा पुष्पकी शय्यासे समन्वित था ॥ 20 ॥
यह गृह विश्वकर्माके द्वारा रचित नाना प्रकारके चित्रोंकी विचित्रतासे युक्त था, उसमें सभी उत्तम रत्नों के सारोंसे रचित श्रेष्ठ हारोंके ढेर लगे हुए थे॥ 21 ॥
कहीं देवताओंके लिये अत्यन्त मनोहर वैकुण्ठ बना हुआ था, कहीं ब्रह्मलोक बना हुआ था, कहीं लोकपालोंका पुर बना हुआ था, कहीं मनोहर कैलास बना हुआ था, कहीं इन्द्रका मन्दिर बना हुआ था और कहीं सबके ऊपर शिवलोक सुशोभित हो रहा था ।। 22-23 ।।
आश्चर्यचकित करनेवाले ऐसे घरको देखकर शिवजी गिरिराज हिमालयकी प्रशंसा करते हुए परम प्रसन्न हो गये ॥ 24 ॥
उसके बाद शिवजीने परम रमणीय तथा उत्तम रत्न- पर्वकपर प्रसन्न हो लीलापूर्वक शयन किया ।। 250 llहिमालयने अपने सभी भाइयोंको तथा अन्य लोगोंको बड़े प्रेमसे भोजन कराया तथा शेष कृत्य पूर्ण किया ll 26 ll इस प्रकार हिमालयको सब कार्य पूर्ण करते हुए एवं ईश्वर शिवजीके शयन करते हुए सारी रात बीत गयी और प्रभातकाल उपस्थित हो गया ॥ 27 ॥ तब प्रातः काल होनेपर धैर्य एवं उत्साहसे भरे हुए लोग अनेक प्रकारके बाजे बजाने लगे ॥ 28 ll
विष्णु आदि सभी देवगण उठ गये और अपने इष्टदेव शंकरका स्मरणकर प्रसन्नताके साथ शीघ्रतासे सज्जित होकर तैयार हो गये। अपने अपने वाहनोंको सजाकर कैलास जानेके लिये उत्सुक उन लोगोंने | शिवजीके समीप धर्मको भेजा। तत्पश्चात् नारायणकी आज्ञासे निवासगृहमें आकर योगी धर्म योगीश्वर शंकरसे समयोचित वचन कहने लगे- ॥ 29-31 ॥
धर्म बोले- हे भव! उठिये, उठिये, आपका कल्याण हो । हे प्रमथाधिप। जनवासेमें चलिये और वहाँ उन सभीको कृतार्थ कीजिये ॥ 32 ll
ब्रह्माजी बोले [हे नारद!] धर्मराजके इस वचनको सुनकर शिवजी हँसे। उन्होंने कृपादृष्टिसे धर्मकी ओर देखा और शय्याका परित्याग किया। वे हँसते हुए धर्मसे कहने लगे-तुम आगे चलो, मैं भी वहाँ शीघ्र ही आऊँगा, इसमें सन्देह नहीं है ।। 33-34 ।।
ब्रह्माजी बोले- शंकरजीके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर धर्मराज जनवासेमें गये और बादमें स्वयं प्रभु शंकरजी भी वहाँ जानेका विचार करने लगे ॥ 35 ॥
इसे जानकर स्त्रियाँ आनन्दमें भरकर वहाँ पहुँच गयीं और शिवके दोनों चरणोंको देखती हुई मंगलगान करने लगीं। इसके बाद वे शिवजी लोकाचार प्रदर्शित करते हुए प्रातःकृत्य करके मेना एवं पर्वतराजसे आज्ञा लेकर जनवासेमें गये ॥ 36-37 ॥
हे मुने! उस समय महोत्सव होने लगा, वेदध्वनि होने लगी और लोग चारों प्रकारके बाजे बजाने लगे ॥ 38 ॥
शिवजीने अपने स्थानपर आकर मुनियोंको, मुझे तथा विष्णुको प्रणाम किया तथा देवता आदिने भी लौकिक आचारवश उनकी वन्दना की ॥ 39 ॥[ उस समय चारों ओर] जय शब्द, नमः शब्द और मंगलदायक वेदध्वनि होने लगी, इस प्रकार वहाँ महान् कोलाहल व्याप्त हो गया ॥ 40 ॥