व्यासजी बोले- हे सर्वज्ञ हे सनत्कुमार! देवताओंसे द्रोह करनेवाले उस हिरण्याक्षके मार दिये जानेपर उसके ज्येष्ठ भ्राता महान् असुर [हिरण्यकशिपु] ने क्या किया? हे मुनीश्वर मुझे इस वृत्तान्तको सुननेके लिये महान् कौतूहल हो रहा है। हे ब्रह्मपुत्र! कृपा करके मुझे उसे सुनाइये, आपको नमस्कार है ॥ 1-2 ॥
ब्रह्माजी बोले- व्यासजीके वचनको सुनकर सनत्कुमार शिवके चरणकमलोंका स्मरण करके कहने लगे - ॥ 3 ॥सनत्कुमार बोले- हे व्यास! वराहरूप धारण करनेवाले [भगवान्] विष्णुके द्वारा भाई हिरण्याक्षका वध कर दिये जानेपर हिरण्यकशिपु क्रोध एवं शोकये सन्तप्त हो उठा। इसके बाद विष्णुसे वैरमें रुचि रखनेवाले उस हिरण्यकशिपुने प्रजाओंको कष्ट देनेके लिये निर्दयी वीर असुरोंको आज्ञा दी ॥ 4-5 ॥ तब वे निर्दयी असुर अपने स्वामीकी आज्ञा प्राप्तकर देवताओं तथा प्रजाओंको कष्ट देने लगे ॥ 6 ॥ इस प्रकार जब दुष्ट बुद्धिवाले उन असुरोंने लोकका उत्पीड़न प्रारम्भ किया, तब देवतालोग स्वर्ग छोड़कर अलक्षित होकर पृथ्वीपर घूमने लगे ॥ 7 ॥
हिरण्यकशिपुने भी भाईके मर जानेसे दुःखित होकर उसे तिलांजलि आदि प्रदानकर उसकी स्त्री आदिको सान्त्वना प्रदान की॥ 8 ॥
इसके बाद वह दैत्यराज अपनेको अजर, अमर, अजेय और प्रतिद्वन्द्वीरहित जानकर एकच्छत्र राज्य करने लगा ॥ 9 ॥
यह मन्दराचलकी में पैर अंगूठेमाको पृथ्वीपर टेककर दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर आकाशकी ओर देखते हुए अत्यन्त कठोर तप करने लगा ॥ 10 ॥
इस प्रकार जब वह असुर तप कर रहा था, तब सभी बलवान् देवताओंने समस्त दैत्योंको जीतकर अपना-अपना पद पुनः प्राप्त कर लिया ॥ 11 ॥
[ तपस्या करते हुए ] उस हिरण्यकशिपुके सिरसे धूमसहित तपोमय अग्नि प्रकट हुई। वह तिरछे, ऊपर, नीचे तथा चारों ओरसे फैलकर सभी लोकोंको तपाने लगी। उससे तप्त होकर देवगण स्वर्गलोक छोड़कर ब्रह्मलोक चले गये। उसकी तपस्यासे विकृत मुखवाले उन देवताओंने ब्रह्माजीसे सारा वृत्तान्त कहा ॥ 12-13 ॥
हे व्यास! उन देवताओंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर स्वयम्भू ब्रह्माजी भृगु, दक्ष आदिको अपने साथ लेकर उस दैत्येन्द्रके आश्रमपर गये। उसके बाद अपनी तपस्यासे सारे लोकोंको सन्तप्तकर उस दैत्यराजने वर देनेके लिये आये हुए ब्रह्माजीको देखा। पितामह ब्रह्माने भी उससे कहा- वर माँग लो। तब विधाताका मधुर वचन सुनकर वह बुद्धिमान् यह वचन कहने लगा-॥ 14-15 ।।हिरण्यकशिपु बोला- हे भगवन्! हे प्रजेश ! हे पितामह। हे देव! शस्त्र, अस्त्र, पाश, बज्र, सूखे वृक्ष, पहाड़, जल, अग्नि तथा शत्रुओंके प्रहारसे और देव, दैत्य, मुनि, सिद्ध तथा आपके द्वारा रचित सृष्टिके किसी भी जीवसे मुझे मृत्युका भय न हो, हे प्रजेश अधिक क्या कहूँ, स्वर्ग, पृथ्वीपर, रात एवं दिनमें, ऊपर-नीचे कहीं भी मेरी मृत्यु न हो ।। 16-17 ।।
सनत्कुमार बोले- उस दैत्यके इस प्रकारके वचनको सुनकर मनमें विष्णुको प्रणाम करके दयासे युक्त होकर ब्रह्माजी उससे बोले हे दैत्येन्द्र ! मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, तुम सब कुछ प्राप्त करो ॥ 18 ॥
[ हे दैत्येन्द्र!] अब तुम तपस्या करना छोड़ो; क्योंकि तुम्हारा मनोरथ परिपूर्ण हो गया। उठो, छियानवे हजार वर्षतक दानवोंका राज्य करो। यह वाणी सुनकर वह हर्षित हो गया। उसके अनन्तर ब्रह्माजीके द्वारा अभिषिक्त वह दैत्य प्रमत्त होकर सभी धर्मोको नष्ट करके और देवताओंको भी युद्धमें जीतकर तीनों लोकोंको नष्ट करनेका विचार करने लगा । ll 19-20 ॥
तब उस दैत्यराजसे पीड़ित हुए इन्द्रादि सभी देवता भयसे व्याकुल हो पितामहकी आज्ञा प्राप्त करके क्षीरसागरमें गये, जहाँ विष्णु शयन करते हैं ॥ 21 ॥
उन्होंने विष्णुको अपने लिये सुखदायक जानकर अनेक प्रकारके वचनोंसे उनकी स्तुति करके प्रसन्न हुए विष्णुसे अपना सारा दुःख निवेदित किया ॥ 22 ॥
तब प्रसन्न विष्णुने उनका समस्त दुःख सुनकर उन्हें अनेक वरदान दिये और शय्यासे उठकर अग्निके समान तेजस्वी उन्होंने अपने अनुरूप नाना प्रकारकी वाणियोंसे आश्वासन देते हुए कहा कि हे देवताओ! आपलोग प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थानको जायें मैं उस दैपका प अवश्य करूँगा ॥ 23-24 ।।हे मुनीश विष्णुका वचन सुनकर इन्द्र आदि सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये और हिरण्याक्षके भाईको मरा हुआ मानकर अपने-अपने लोकको चले गये॥ 25 ॥
तदनन्तर महाजटायुक्त, विकराल, तीखे | दाँतस्वरूप आयुधवाले, तीक्ष्ण नखोंवाले, सुन्दर नासिकावाले पूर्णतः खुले हुए मुखवाले, करोड़ों सूर्यके समान जाज्वल्यमान, अत्यन्त भयंकर, अधिक क्या कहें प्रलयकालीन अग्निके समान प्रभाववाले वे महात्मा विष्णु जगन्मय नृसिंहका रूप धारण करके सूर्यके अस्त होते समय असुरोंकी नगरीमें गये ॥ 26-27 ।।
अद्भुत पराक्रमवाले नृसिंह प्रबल दैत्योंके साथ करते हुए उन्हें मारकर शेष दैत्योंको पकड़कर युद्ध घुमाने लगे और उन्होंने उन असुरोंको पटककर मार डाला ॥ 28 ॥
दैत्योंने उन अतुल प्रभाववाले नृसिंहको देखा और उन्होंने पुनः युद्ध करना प्रारम्भ किया। हिरण्यकशिपुके प्रह्लाद नामक पुत्रने नृसिंहको देखकर राजासे कहा- यह मृगेन्द्र जगन्मय विष्णु तो नहीं हैं ? ॥ 29 ॥
प्रह्लाद बोले- ये भगवान् अनन्त नृसिंहका रूप धारणकर आपके नगरमें प्रविष्ट हुए हैं, अतः आप युद्ध छोड़कर उनकी शरणमें जाइये, मैं इस सिंहकी विकराल मूर्तिको देख रहा हूँ ॥ 30 ॥
[हे] दैत्येन्द्र]] इनसे बड़कर इस जगत्में और कोई योद्धा नहीं है, अतः इनकी प्रार्थनाकर आप राज्य करें। तब अपने पुत्रकी बात सुनकर दुरात्मा उससे बोला- हे पुत्र ! क्या तुम डर गये हो ? ॥ 31 ॥
पुत्रसे इस प्रकार कहकर दैत्योंके स्वामी उस राजाने महावीर श्रेष्ठ दैत्योंको आज्ञा दी कि हे वीरो ! इस विकृत भृकुटी तथा नेत्रवाले नृसिंहको पकड़ लो ॥ 32 ॥
तब उसकी आज्ञासे पकड़नेकी इच्छावाले दैत्यश्रेष्ठ उस सिंहकी ओर जाने लगे, किंतु वे क्षणभरमें इस प्रकार दग्ध हो गये, जैसे रूपकीअभिलाषावाले पतिंगे अग्निके समीप जाते ही जल जाते हैं। उन दैत्योंके दग्ध हो जानेपर वह दैत्यराज स्वयं सभी अस्त्र शस्त्र, शक्ति, पाश, अंकुश, अग्नि आदिके द्वारा नृसिंहसे संग्राम करने लगा ।। 33-34 ॥
हे व्यास! इस प्रकार शस्त्र धारणकर गर्जनाकर क्रोधपूर्वक परस्पर युद्ध करते हुए उन दोनों महावीरोंका ब्रह्माके एक दिनके बराबर समय व्यतीत हो गया ।। 35 ।।
उसके बाद अनेक भुजाओंको धारणकर चारों ओरसे युद्ध करते हुए उन नृसिंहको देखकर वह दैत्य पुनः उनसे सहसा भिड़ गया ॥ 36 ll
तब वह महादैत्य नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे अत्यन्त दुःसह संग्राम करके उन शस्त्रास्त्रोंके क्षीण हो जानेपर शूल लेकर नृसिंहपर झपट पड़ा ।। 37 ।।
इसके बाद नृसिंहने पर्वतके समान अपनी अनेक कठोर भुजाओंसे उसे पकड़ लिया और भुजाओंके मध्य दोनों जानुओंपर उस दानवको रखकर मर्मभेदी नखांकुरोंसे उसके हृत्कमलको फाड़कर उसे लहूलुहान करके उसके सभी अंगोंको चूर्ण कर डाला। प्राणोंसे रहित हो जानेपर वह उस समय काष्ठके समान हो गया ।। 38-39 ।।
उस देवशत्रुके मारे जानेपर अद्भुत पराक्रमवाले विष्णु प्रसन्न होकर प्रणाम किये हुए प्रह्लादको बुलाकर उसे राज्यपर अभिषिक्त करनेके अनन्तर अन्तर्धान हो गये। हे विप्र तब अत्यन्त हर्षित पितामहादि समस्त देवता अपना कार्य पूर्ण कर चुके स्तुत्य भगवान् विष्णुको एवं उस दिशाकी ओर प्रणामकर अपने-अपने धामको चले गये। [हे व्यास!] मैंने प्रसंगवश रुद्रसे अन्धकका जन्म, वराहसे हिरण्याक्षको मृत्यु नृसिंहसे उसके भाई हिरण्यकशिपुका वध एवं प्रह्लादकी राज्यप्राप्ति इन सबका वर्णन किया ।। 40-42 llहे द्विजवर्य ! अब आप शिवजीसे प्राप्त अन्धकके पराक्रम, शिवसे उसके युद्ध तथा बादमें उसकी शिवजीसे गणाधिपत्यकी प्राप्तिको मुझसे सुनिये ॥ 43 ll