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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 43 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 43

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हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति

व्यासजी बोले- हे सर्वज्ञ हे सनत्कुमार! देवताओंसे द्रोह करनेवाले उस हिरण्याक्षके मार दिये जानेपर उसके ज्येष्ठ भ्राता महान् असुर [हिरण्यकशिपु] ने क्या किया? हे मुनीश्वर मुझे इस वृत्तान्तको सुननेके लिये महान् कौतूहल हो रहा है। हे ब्रह्मपुत्र! कृपा करके मुझे उसे सुनाइये, आपको नमस्कार है ॥ 1-2 ॥

ब्रह्माजी बोले- व्यासजीके वचनको सुनकर सनत्कुमार शिवके चरणकमलोंका स्मरण करके कहने लगे - ॥ 3 ॥सनत्कुमार बोले- हे व्यास! वराहरूप धारण करनेवाले [भगवान्] विष्णुके द्वारा भाई हिरण्याक्षका वध कर दिये जानेपर हिरण्यकशिपु क्रोध एवं शोकये सन्तप्त हो उठा। इसके बाद विष्णुसे वैरमें रुचि रखनेवाले उस हिरण्यकशिपुने प्रजाओंको कष्ट देनेके लिये निर्दयी वीर असुरोंको आज्ञा दी ॥ 4-5 ॥ तब वे निर्दयी असुर अपने स्वामीकी आज्ञा प्राप्तकर देवताओं तथा प्रजाओंको कष्ट देने लगे ॥ 6 ॥ इस प्रकार जब दुष्ट बुद्धिवाले उन असुरोंने लोकका उत्पीड़न प्रारम्भ किया, तब देवतालोग स्वर्ग छोड़कर अलक्षित होकर पृथ्वीपर घूमने लगे ॥ 7 ॥

हिरण्यकशिपुने भी भाईके मर जानेसे दुःखित होकर उसे तिलांजलि आदि प्रदानकर उसकी स्त्री आदिको सान्त्वना प्रदान की॥ 8 ॥

इसके बाद वह दैत्यराज अपनेको अजर, अमर, अजेय और प्रतिद्वन्द्वीरहित जानकर एकच्छत्र राज्य करने लगा ॥ 9 ॥

यह मन्दराचलकी में पैर अंगूठेमाको पृथ्वीपर टेककर दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर आकाशकी ओर देखते हुए अत्यन्त कठोर तप करने लगा ॥ 10 ॥

इस प्रकार जब वह असुर तप कर रहा था, तब सभी बलवान् देवताओंने समस्त दैत्योंको जीतकर अपना-अपना पद पुनः प्राप्त कर लिया ॥ 11 ॥

[ तपस्या करते हुए ] उस हिरण्यकशिपुके सिरसे धूमसहित तपोमय अग्नि प्रकट हुई। वह तिरछे, ऊपर, नीचे तथा चारों ओरसे फैलकर सभी लोकोंको तपाने लगी। उससे तप्त होकर देवगण स्वर्गलोक छोड़कर ब्रह्मलोक चले गये। उसकी तपस्यासे विकृत मुखवाले उन देवताओंने ब्रह्माजीसे सारा वृत्तान्त कहा ॥ 12-13 ॥

हे व्यास! उन देवताओंके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर स्वयम्भू ब्रह्माजी भृगु, दक्ष आदिको अपने साथ लेकर उस दैत्येन्द्रके आश्रमपर गये। उसके बाद अपनी तपस्यासे सारे लोकोंको सन्तप्तकर उस दैत्यराजने वर देनेके लिये आये हुए ब्रह्माजीको देखा। पितामह ब्रह्माने भी उससे कहा- वर माँग लो। तब विधाताका मधुर वचन सुनकर वह बुद्धिमान् यह वचन कहने लगा-॥ 14-15 ।।हिरण्यकशिपु बोला- हे भगवन्! हे प्रजेश ! हे पितामह। हे देव! शस्त्र, अस्त्र, पाश, बज्र, सूखे वृक्ष, पहाड़, जल, अग्नि तथा शत्रुओंके प्रहारसे और देव, दैत्य, मुनि, सिद्ध तथा आपके द्वारा रचित सृष्टिके किसी भी जीवसे मुझे मृत्युका भय न हो, हे प्रजेश अधिक क्या कहूँ, स्वर्ग, पृथ्वीपर, रात एवं दिनमें, ऊपर-नीचे कहीं भी मेरी मृत्यु न हो ।। 16-17 ।।

सनत्कुमार बोले- उस दैत्यके इस प्रकारके वचनको सुनकर मनमें विष्णुको प्रणाम करके दयासे युक्त होकर ब्रह्माजी उससे बोले हे दैत्येन्द्र ! मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, तुम सब कुछ प्राप्त करो ॥ 18 ॥

[ हे दैत्येन्द्र!] अब तुम तपस्या करना छोड़ो; क्योंकि तुम्हारा मनोरथ परिपूर्ण हो गया। उठो, छियानवे हजार वर्षतक दानवोंका राज्य करो। यह वाणी सुनकर वह हर्षित हो गया। उसके अनन्तर ब्रह्माजीके द्वारा अभिषिक्त वह दैत्य प्रमत्त होकर सभी धर्मोको नष्ट करके और देवताओंको भी युद्धमें जीतकर तीनों लोकोंको नष्ट करनेका विचार करने लगा । ll 19-20 ॥

तब उस दैत्यराजसे पीड़ित हुए इन्द्रादि सभी देवता भयसे व्याकुल हो पितामहकी आज्ञा प्राप्त करके क्षीरसागरमें गये, जहाँ विष्णु शयन करते हैं ॥ 21 ॥

उन्होंने विष्णुको अपने लिये सुखदायक जानकर अनेक प्रकारके वचनोंसे उनकी स्तुति करके प्रसन्न हुए विष्णुसे अपना सारा दुःख निवेदित किया ॥ 22 ॥

तब प्रसन्न विष्णुने उनका समस्त दुःख सुनकर उन्हें अनेक वरदान दिये और शय्यासे उठकर अग्निके समान तेजस्वी उन्होंने अपने अनुरूप नाना प्रकारकी वाणियोंसे आश्वासन देते हुए कहा कि हे देवताओ! आपलोग प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थानको जायें मैं उस दैपका प अवश्य करूँगा ॥ 23-24 ।।हे मुनीश विष्णुका वचन सुनकर इन्द्र आदि सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये और हिरण्याक्षके भाईको मरा हुआ मानकर अपने-अपने लोकको चले गये॥ 25 ॥

तदनन्तर महाजटायुक्त, विकराल, तीखे | दाँतस्वरूप आयुधवाले, तीक्ष्ण नखोंवाले, सुन्दर नासिकावाले पूर्णतः खुले हुए मुखवाले, करोड़ों सूर्यके समान जाज्वल्यमान, अत्यन्त भयंकर, अधिक क्या कहें प्रलयकालीन अग्निके समान प्रभाववाले वे महात्मा विष्णु जगन्मय नृसिंहका रूप धारण करके सूर्यके अस्त होते समय असुरोंकी नगरीमें गये ॥ 26-27 ।।

अद्भुत पराक्रमवाले नृसिंह प्रबल दैत्योंके साथ करते हुए उन्हें मारकर शेष दैत्योंको पकड़कर युद्ध घुमाने लगे और उन्होंने उन असुरोंको पटककर मार डाला ॥ 28 ॥

दैत्योंने उन अतुल प्रभाववाले नृसिंहको देखा और उन्होंने पुनः युद्ध करना प्रारम्भ किया। हिरण्यकशिपुके प्रह्लाद नामक पुत्रने नृसिंहको देखकर राजासे कहा- यह मृगेन्द्र जगन्मय विष्णु तो नहीं हैं ? ॥ 29 ॥

प्रह्लाद बोले- ये भगवान् अनन्त नृसिंहका रूप धारणकर आपके नगरमें प्रविष्ट हुए हैं, अतः आप युद्ध छोड़कर उनकी शरणमें जाइये, मैं इस सिंहकी विकराल मूर्तिको देख रहा हूँ ॥ 30 ॥

[हे] दैत्येन्द्र]] इनसे बड़कर इस जगत्में और कोई योद्धा नहीं है, अतः इनकी प्रार्थनाकर आप राज्य करें। तब अपने पुत्रकी बात सुनकर दुरात्मा उससे बोला- हे पुत्र ! क्या तुम डर गये हो ? ॥ 31 ॥

पुत्रसे इस प्रकार कहकर दैत्योंके स्वामी उस राजाने महावीर श्रेष्ठ दैत्योंको आज्ञा दी कि हे वीरो ! इस विकृत भृकुटी तथा नेत्रवाले नृसिंहको पकड़ लो ॥ 32 ॥

तब उसकी आज्ञासे पकड़नेकी इच्छावाले दैत्यश्रेष्ठ उस सिंहकी ओर जाने लगे, किंतु वे क्षणभरमें इस प्रकार दग्ध हो गये, जैसे रूपकीअभिलाषावाले पतिंगे अग्निके समीप जाते ही जल जाते हैं। उन दैत्योंके दग्ध हो जानेपर वह दैत्यराज स्वयं सभी अस्त्र शस्त्र, शक्ति, पाश, अंकुश, अग्नि आदिके द्वारा नृसिंहसे संग्राम करने लगा ।। 33-34 ॥

हे व्यास! इस प्रकार शस्त्र धारणकर गर्जनाकर क्रोधपूर्वक परस्पर युद्ध करते हुए उन दोनों महावीरोंका ब्रह्माके एक दिनके बराबर समय व्यतीत हो गया ।। 35 ।।

उसके बाद अनेक भुजाओंको धारणकर चारों ओरसे युद्ध करते हुए उन नृसिंहको देखकर वह दैत्य पुनः उनसे सहसा भिड़ गया ॥ 36 ll

तब वह महादैत्य नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे अत्यन्त दुःसह संग्राम करके उन शस्त्रास्त्रोंके क्षीण हो जानेपर शूल लेकर नृसिंहपर झपट पड़ा ।। 37 ।।

इसके बाद नृसिंहने पर्वतके समान अपनी अनेक कठोर भुजाओंसे उसे पकड़ लिया और भुजाओंके मध्य दोनों जानुओंपर उस दानवको रखकर मर्मभेदी नखांकुरोंसे उसके हृत्कमलको फाड़कर उसे लहूलुहान करके उसके सभी अंगोंको चूर्ण कर डाला। प्राणोंसे रहित हो जानेपर वह उस समय काष्ठके समान हो गया ।। 38-39 ।।

उस देवशत्रुके मारे जानेपर अद्भुत पराक्रमवाले विष्णु प्रसन्न होकर प्रणाम किये हुए प्रह्लादको बुलाकर उसे राज्यपर अभिषिक्त करनेके अनन्तर अन्तर्धान हो गये। हे विप्र तब अत्यन्त हर्षित पितामहादि समस्त देवता अपना कार्य पूर्ण कर चुके स्तुत्य भगवान् विष्णुको एवं उस दिशाकी ओर प्रणामकर अपने-अपने धामको चले गये। [हे व्यास!] मैंने प्रसंगवश रुद्रसे अन्धकका जन्म, वराहसे हिरण्याक्षको मृत्यु नृसिंहसे उसके भाई हिरण्यकशिपुका वध एवं प्रह्लादकी राज्यप्राप्ति इन सबका वर्णन किया ।। 40-42 llहे द्विजवर्य ! अब आप शिवजीसे प्राप्त अन्धकके पराक्रम, शिवसे उसके युद्ध तथा बादमें उसकी शिवजीसे गणाधिपत्यकी प्राप्तिको मुझसे सुनिये ॥ 43 ll

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य