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श्री कच्छप अवतार कथा (कूर्म अवतार की कहानी)

Kachhap Avatar Katha (Kurma Avatar Story)

भाग 1 - Part 1

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श्री कच्छप अवतार- कथा

सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंकी विषमताका नाम ही सृष्टि है। जब ये तीनों बराबर रहते हैं, तब प्रलय रहता है। सृष्टिकी दशामें ये तीनों बराबर रहें अथवा तीनोंमेंसे किसी एककी प्रधानता न रहे, ऐसा सम्भव नहीं और जब ये तीनों विषम अवस्थामें रहते हैं, तब एक-दूसरेको अपने अधीन कर लेना चाहते हैं, अपनी ही प्रधानता स्थापित करना चाहते हैं। इसलिये सृष्टिकी दशामें इन तीनोंका संग्राम निरन्तर चलता रहता है। यदि रजोगुणकी प्रधानता हुई तो वह तमोगुणकी ओर ले जाता है और सत्त्वगुणकी प्रधानता हुई तो वह भगवान् की ओर ले जाता है। रजोगुणकी प्रधानता भी यदि भगवान् के आश्रयसे हो तो थोड़े ही दिनोंमें वह सत्त्वगुणका रूप धारण कर लेती है। इस सृष्टिमें और जीवनमें सर्वदा यह युद्ध चला करता है। इसी कारण अनादि कालसे देवासुर संग्राम होताचला आया है। देवता भगवान्के बलपर लड़ते हैं, उनका अपना बल कुछ नहीं है, इसलिये उन्हें अच्छा कहा गया है और दैत्य अपने बलपर अहंकार अभिमानके बलपर लड़ते हैं; इसलिये उन्हें बुरा बतलाया गया है। जब देवता भी भगवान्का आश्रय छोड़कर अपने बलपर युद्ध करते हैं, तब वे हार जाते हैं और दुःख भोगते हैं; परंतु सत्त्वमूर्ति भगवान्‌को सत्त्वगुण अधिक प्रिय है। वे तमोगुणका साम्राज्य नहीं देखना चाहते, इसीसे सत्त्वगुणी देवताओंकी सहायता किया करते हैं और अपनी ओर न आनेवाले दानवोंकी सहायता नहीं करते।

यहाँ यदि देवताका अर्थ दैवी सम्पत्तियोंका प्रेमी कर लिया जाय और दैत्यका अर्थ आसुरी सम्पत्तियोंका प्रेमी कर लिया जाय तो भी बात ठीक बैठ जाती है; परंतु यह केवल रूपक ही नहीं है, इसके साथ एक महान् ऐतिहासिक सत्य जुड़ा हुआ है। देवताऔर दैत्योंका संग्राम होता है, बार-बार होता है, उनके लोक हैं, उनमें राजा प्रजा आदिके व्यवहार यथावत् चलते हैं और आज भी चलते हैं जैसे स्थूल जगत् हमलोग व्यवहार करते हैं, आध्यात्मिक जगत्में मन बुद्धि आदिका व्यवहार होता है, वैसे ही आधिदैविक जगत्में देवता और दैत्योंका व्यवहार होता है उन्हें हम देख सकते हैं, उनके यहाँ जा सकते हैं और उनसे सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। इसके लिये एक विशेष मार्ग है, एक विशेष प्रकारकी उपासना पद्धति है। अस्तु आये दिन देवता और दैत्योंमें युद्ध छिड़ा ही रहता था। उन दिनों अर्थात् छठे चाक्षुष मन्वन्तरमें देवता और दानवोंका पारस्परिक वैमनस्य चरम सीमातक पहुँच गया था। ऐसा कोई दिन नहीं बीतता, जब छिट फुट आक्रमण न हों। देवता जर्जरित हो गये थे। सारे स्वर्ग में त्राहि-त्राहि मची हुई थी उन्हीं दिनों एक और घटना ऐसी घट गयी, जिसके कारण सभी देवता भयभीत हो गये।

बात यह हुई कि देवराज इन्द्र अपने ऐरावत हाथीपर सवार होकर कहीं बाहर जा रहे थे। रास्तेमें दुर्वासाजी महाराज स्वर्गकी ही और आते हुए मिल गये। इन्द्रने उन्हें सादर प्रणाम किया और महर्षि दुर्वासाने प्रसन्न होकर अपने हाथमें पहलेसे ही ले रखी हुई माला उन्हें पहना दी। वह माला बहुत सुन्दर थीं। उसके दिव्य पुष्प कभी कुम्हलानेवाले नहीं थे उसको पहननेवाले कभी दुखी नहीं होते थे, परंतु उस समय इन्द्र असावधान थे। दुर्वासाके स्वभावका ध्यान न रहनेके कारण उनसे कुछ प्रमाद बन गया। उन्होंने "वह माला अपने गलेसे निकालकर हाथीको पहना दी और हाथीने अपने सूँड़से खींचकर उसे तोड़ डाला और पैरोंतले डालकर मसल दिया। यह सब एक ही क्षणमेंदुसाके देखते देखते हो गया। रुद्रावतार दुर्वासाके क्रोधकी सीमा न रही। उनका चेहरा तमतमा उठा। शरीर काँपने लगा और उनके मुँहसे निकल पड़ा 'इन्द्र ! तुझे अपने राज्यका इतना घमंड है। तू इतना मदमत्त हो गया है। जिस मालाको जीवनभर अपने गले में धारण करना चाहिये, उसका इतना अपमान! जा, अपने कियेका फल भोग! तेरी यह श्री न रहेगी। तू और तेरा राज्य श्रीहीन हो जायगा।' इन्द्रने उन्हें प्रसन्नकरने की चेष्टा की, परंतु सफल न हुए। एक ओर दैत्योंके आक्रमण पर आक्रमण और दूसरी ओर दुर्वासाका यह भीषण शाप देवतालोग घबरा गये। उनकी सभा हुई। सबने अपने-अपने दुःख कह सुनाये। अन्तमें सर्वसम्मति से यह निश्चय हुआ कि 'ब्रह्माके पास चलें। वे हमारे पितामह हैं, वृद्ध हैं, अनुभवी हैं। उनके मुँहसे स्वभावतः ही वेदवाणी निकलती रहती है। उनके पास गये बिना हमारे सुख एवं शान्तिका उपाय नहीं मालूम हो सकता।' वास्तवमे वृद्धोंकी वाणी वेदवाणी ही होती है।

सब मिलकर ब्रह्माकी सभायें गये। ब्रह्माकी सभा दिव्य स्वर्णमय सुमेरु पर्वतके ऊंचे शिखरपर बनी हुई है संसारको उत्तम से उत्तम वस्तुएँ वहीं रहती हैं। उससे बढ़कर सुन्दरता संसारमें और कहीं नहीं है। सृष्टिका यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है। वहाँ शान्तनु गय, भीष्म आदि राजर्षि और वसिष्ठ, विश्वामित्र आदि ब्रह्मर्षि तथा नारदादि देवर्षि एवं सनकादि परमर्षि सभासदके रूपमें उपस्थित रहते हैं। सबकी सम्मतिसे सारे काम होते हैं और ब्रह्मा अपने चारों मुखोंसे वेदवाणीके बहाने निरन्तर भगवान्के गुणोंका दिव्य संगीत गाया करते हैं।

देवताओंने जाकर लोकपितामह ब्रह्माको आदर और श्रद्धाके साथ प्रणाम किया तथा उनकी आज्ञासे वे यथास्थान बैठ गये। ब्रह्माके पूछनेपर देवताओंने अपने समाचार कह सुनाये और ब्रह्माने स्वयं देखा भी कि देवताओंके शरीरपर कान्ति नहीं है, वे शक्तिहीन हो गये हैं। इनके हृदयमें शान्ति नहीं है। अत: उन्होंने निश्चय किया कि इनकी सहायता करनी चाहिये। सोचते-सोचते वे तल्लीन हो गये। थोड़ी देर बाद भगवान्का स्मरण करते हुए प्रसन्नमुखसे उन्होंने कहा-

'देवताओ! स्वयं मैं, देवाधिदेव शंकर और तुमलोग; इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और परमाणु-परमाणु जिनकी शक्तिसे, जिनके संकल्पमात्रसे उत्पन्न हुए हैं, हैं और रहेंगे, उन भगवान्‌के चरणोंकी शरण ग्रहण करनेके अतिरिक्त सुख-शान्तिका और कोई दूसरा साधन नहीं है। यद्यपि उनके लिये कोई अनिवार्य कर्तव्य नहीं है, उन्हें किसी कामके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता, वे सबके स्वामी हैं, ईश्वर हैं, उनका न कोई शत्रु है न मित्र, न वे किसीकी उपेक्षा करतेहैं और न अपेक्षा। फिर भी लोगोंकी रक्षा, मर्यादा एवं नियन्त्रणके लिये वे समय-समयपर रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुणको स्वीकार करके अवतार ग्रहण करते हैं और अपने लोगोंका कल्याण करते हैं। यह समय संसारकी रक्षाका है। इसका पालन करनेके लिये इस समय वे सत्त्वगुणको स्वीकार किये हुए हैं। हमलोग उन्हीं जगद्गुरुकी शरणमें चलें। वे ही हम सबका हित करेंगे।' इतना कहकर ब्रह्मा चुप हो गये।

सारी सभा उठकर अज्ञानसे, अन्धकारसे और लोकालोक पर्वतसे परे भगवान्के प्रकाशमय नित्यधामके पास पहुँची। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्रादि देवता तथा समस्त ऋषि महर्षि वहाँ जाकर दिव्य वाणी से भगवान्‌की स्तुति करने लगे। लोगोंने अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे प्रार्थना की 'प्रभो! हम आपके शरणागत हैं। न हमें अपना बल है, न और किसीका सहारा है। हम आपके हैं, आपके भरोसेपर हैं और आपकी ही शरणमें आये हुए हैं। हम अपनी आँखोंसे आपका दर्शन करनेमें भी असमर्थ हैं; क्योंकि इनमें इतनी शक्ति ही नहीं कि अपने अंदर बाहर और इनसे भी परे रहनेवाले परम पिताका दर्शन कर सकें। आप अनन्त हैं, निर्विकार हैं, निराकार हैं और विज्ञानानन्दघन हैं। हम सब मायाके चक्कर में फँसे हुए हैं और हमारे हृदय, इन्द्रिय तथा शरीर मायाके ही काम में लगे हुए हैं।'

'परंतु हम सब मायामें तो हैं न! हमारे अंदर इतनी शक्ति नहीं है कि इस मायाके पर्देको फाड़ डालें। इसके परे पहुँच जायें यह तो आपकी कृपासे ही हो सकता है और होता है। हम आपकी इच्छाके अनुसार चलने में ही अपना कल्याण समझते हैं और चलते हैं। यह देवताओंको पराजय, दैत्योंकी वृद्धि, संसारमें दैवी शक्तियों की कमी और आसुरी शक्तियोंकी अभिवृद्धि आपकी इच्छासे ही हो रही होगी, परंतु हमें संतोष कहाँ? हमारा हृदय अशान्तिसे भर गया है। हम उद्विग्र हो गये हैं। अब आपके अतिरिक्त इस दुःखसे बचानेवाला और कोई नहीं दीखता नाथ आप आइये। दर्शन दीजिये हमारे नेोंको सफल कीजिये।'

'यद्यपि आप निराकार हैं तथापि आप भक्तोंके लिये साकार हो जाते हैं। आप साकार होते हुए भी निराकार हैं। निराकार होते हुए भी साकार हैं। आपकुछ न चाहते हुए भी सब कुछ चाहते हैं और सब कुछ चाहते हुए भी कुछ नहीं चाहते। यही तो आपकी भगवत्ता है। प्रभो! आपने कहा है कि 'भक्तोंकी इच्छा ही मेरी इच्छा है।' आज हम सब आपके दर्शनके इच्छुक हैं, कृपा करके हमें दर्शन दीजिये। आप अवश्य दर्शन देंगे, आप दर्शन दिये बिना रह नहीं सकते।'

प्रार्थना करते-करते सब-के-सब बाह्य विस्मृत हो। गये और साष्टाङ्ग जमीनपर गिर पड़े। उनकी व्याकुलता, आतुरता एवं दर्शनकी उत्सुकता देखकर भगवान्ने अपने-आपको प्रकट किया। वे तो सर्वत्र रहते ही हैं और प्रकट भी रहते हैं। जहाँ उनके दर्शनकी सच्ची इच्छा हुई, बस, दर्शन हो गये। उनके प्रकट और अप्रकट होनेकी बात तो केवल व्यावहारिक दृष्टिसे है।

भगवान् की उस अनुपम रूपराशिको देखकर देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे उन्हें देख न सके। कुछ क्षणोंमें सँभलकर उन्होंने देखा कि अनन्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यकी राशि उनके सामने मूर्तिमान् होकर खड़ी है और उसकी मन्द मन्द मुसकान सबके चित्तको चुरा रही है।

कैसी अद्भुत रूप-माधुरी है! स्वच्छ मरकत मणिके समान श्यामवर्णका शरीर है, कमलकी कोमल | पँखुड़ियोंके सदृश गुलाबी आँखें हैं। तपाये हुए सोनेके समान विशुद्ध पीताम्बर धारण किये हुए हैं। मुखसे आनन्द और प्रसन्नताकी धारा बह रही है। सुन्दर सुन्दर टेढ़ी-टेढ़ी भाँहोंसे अनुग्रहकी वर्षा हो रही है। चारु चितवनसे मानो सारे संसारको प्रेमके समुद्रमें डुबानेके लिये संकेत कर रहे हैं। गलेमें वनमाला, वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणि और लक्ष्मी तथा अन्यान्य सुकुमार अङ्गोंमें दिव्य आभूषण धारण किये हुए हैं और उनके अस्त्र मूर्तिमान् होकर उपासना कर रहे हैं। सभी दिव्य हैं,

अलौकिक हैं, भगवत्स्वरूप हैं। सबने सिर टेककर साष्टाङ्ग प्रणाम किया।

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