शिव-सनकादि भगवान्की रूप-माधुरीका अपलक दृगोंसे पान कर रहे थे। बाहर-भीतरका कुछ ज्ञान नहीं था। जितना ही पीते, उतनी ही अधिक अतृप्ति बढ़ती जाती। यही तो भगवान्के रूप-रसकी विशेषता है। वह नित्य नूतन है। पीजिये और पीते ही जाइये। न कभीसमाप्ति होगी, न कभी तृप्ति होगी। देवतालोग एकटक | देख रहे थे। उन्हें बोलनेका साहस ही नहीं होता था। अन्तमें ब्रह्माने अपना मौन भङ्ग किया। उन्होंने कहा 'भगवन्! आप अन्तर्यामी हैं। आपसे कोई बात छिपी । नहीं है। आपसे क्या कहें और क्या न कहें? आपकी | दयालुता देखकर हमसे कुछ कहा नहीं जाता। आपके । दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हैं। बड़े-बड़े यज्ञ-यागादि साधन करनेपर भी क्षणमात्रके लिये आपकी झाँकी मिलनी | कठिन है। कहाँ हम संसारमें भूले हुए और संसारमें लगे हुए विषयासक्त प्राणी और कहाँ आपका परम विरक्त ज्ञानि जनोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ दर्शन! परंतु आपने कृपा करके हमें दर्शन दिया है, अतः आपकी यह कृपा ही हमें कुछ निवेदन करनेकी दिटाई करने के लिये उत्साहित करती है।'
'अन्तर्यामिन्! आप जानते ही हैं कि इस समय सृष्टिकी स्थितिका अवसर है। यदि इस समय दैवी सम्पत्ति और देवताओंकी रक्षा और अभिवृद्धि न हुई तो सारी सृष्टि तमोगुणी हो जायगी। फिर तो सृष्टिका यह उद्देश्य कि लोग स्वतन्त्रतासे अपने कल्याणका साधन करें और भगवान्को प्राप्त करें, केवल उद्देश्यमात्र ही रह जायगा। काम, क्रोध, लोभ, मोह, प्रमाद, आलस्य आदिके कारण सभी जीव पाप-तापकी महान् ज्वालामें जलने लगेंगे। क्या आपकी यही इच्छा है? नहीं, नाथ! आपकी ऐसी इच्छा कदापि नहीं है। आप तो सब जीवोंको अपने पास बुलाना चाहते हैं और इसीके लिये आपने यह सृष्टिका प्रपञ्च रचा है। ये सभी देवता और हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। आपके चरणों में नमस्कार करते हैं। जैसे जगत्का कल्याण हो, वैसा कीजिये।'
भगवान्ने दयादृष्टिसे निहारते हुए प्रेमभरी वाणी से कहा - 'ब्रह्मा, शिव तथा देवताओ! आपलोगोंकी विपत्ति गुझसे छिपी नहीं है। मैं सभी बातें जानता हूँ आपके साथ मेरी हार्दिक सहानुभूति है। परंतु किया क्या जाय, इस सृष्टिका एक नियम है। इसकी एक व्यवस्था है।। इसमें पुरुषार्थ करनेवाला विजयी होता है। मैं सदाचारियोंका | है। मैं सात्त्विक पुरुषोंका मित्र परंतु सदाचार और सात्त्विकताका यह अर्थ तो नहीं है न कि । मेरे भरोसे हाथ-पर-हाथ रखकर बैठा जाय? तुम्हारेपास जितनी शक्ति है, जितना बल है, तुम जो कुछ और जितना कर सकते हो, सचाई और साहसके साथ उतना करो। जब इतनेपर भी तुम्हारा काम होता न दीखे तो मुझे पुकारो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं सचाईसे पुकारनेवाली चींटीकी भी आवाज सुनता हूँ; क्योंकि सचाईका निवासस्थान मेरे अत्यन्त निकट है।
'सारा संसार मेरा है। देवता और दैत्य दोनों ही मेरे हैं। मैं किसीके प्रति पक्षपातका भाव नहीं रखता। जो सच्चे हृदयसे मुझे पुकारता है, मैं उसकी सहायता करता हूँ। परंतु संचाईके साथ मुझे पुकारनेवालेके हृदयमें आसुर भाव रह ही नहीं सकते। वह देवता हो जाता है। देवता और असुरोंका यही मुख्य भेद है कि देवता मुझे पुकारते हैं और असुर नहीं पुकारते। पुकारनेवालेके पास जाना और न पुकारनेवालेके पास रहकर भी प्रकट न होना, यह समदर्शिताको भंग नहीं करता। मैं समदर्शी ही नहीं, स्वयं सम हूँ।
'अब तुमलोगोंको मुझे याद रखते हुए पुरुषार्थ करना होगा। पुरुषार्थ भी केवल अकेले नहीं, सबको मिलकर करना होगा। तुमलोग बलिके पास जाओ। वह तुम्हारा शत्रु है तो क्या जब तुमलोग शस्त्रास्त्रका त्याग करके नम्रताके साथ उसके पास जाओगे, तब वह बड़े सम्मानके साथ तुम्हारी मित्रता स्वीकार करेगा।
'शत्रुको नम्र देखकर बड़े से बड़ा शत्रु भी नम्र हो जाता है और लाभके अवसरपर शत्रुको मित्र बनाने से हिचकना हानिकर है। इस समय तुमलोग बलिको श्रेष्ठ स्वीकार कर लो और उन्हें ही अपना नेता बनाओ। उनसे सलाह करके समुद्र मथनेकी तैयारी करो। पृथ्वीकी समस्त औषधि वनस्पतियोंको समुद्रमें डालकर मन्दराचलकी मथानी बनाकर वासुकि नागकी रस्सीसे मथो । समुद्रसे बड़े सुन्दर सुन्दर रन निकलेंगे। लोभ नहीं करना। संतोष रखना। बलिकी इच्छा पूर्ण होने देना। अन्तमें अमृत निकलेगा, जिसको पान करनेके बाद तुमलोग अमर हो जाओगे तुम्हारे सामने जब कोई अड़चन आवे, मुझे याद करना। मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगा। आलस्य मत करो। उठो, जागो और अपने कर्तव्यमें लग जाओ। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो सच्ची लगन और सत्साहससे प्राप्त नहीं हो सकती। आग में कूद पड़ो। जो अपने जीवनमें जोखिम नहीं उठाता, वहकिसी महत्त्वपूर्ण लाभकी आशा नहीं कर सकता।'
देवताओंको इस प्रकारकी आज्ञा देकर उनके देखते-देखते भगवान् अन्तर्धान हो गये। ब्रह्मा और शंकरने भी भगवान्को साष्टाङ्ग प्रणाम करके उनके दिव्य गुणोंका स्मरण- चिन्तन करते हुए अपने-अपने दिव्य धामकी यात्रा की और देवताओंने बिना शस्त्रास्त्रके, बिना कवचके बड़ी नम्रताके साथ बलिके पास प्रस्थान किया।
दैत्योंने देखा कि आज देवतालोग यों ही चले आ रहे हैं। कइयोंके मनमें यह इच्छा हुई कि आज बड़ा अच्छा अवसर मिला है, इन लोगोंको छकाया जाय। बहुतोंने अपने हथियार सँभाले कि आज युग-युगका बदला ले लिया जायगा। कइयोंके मनमें उन्हें कैद कर लेने की बात आयी। कुछ समझदारोंने कहा कि देवतालोग इस प्रकार आ नहीं सकते। इसमें कोई-न-कोई चाल होगी। इन्द्र सबका रुख देखते हुए भी कुछ बोले नहीं। बड़ी नम्रतासे बलिके पास पहुँचे। बलि अपनी सभा में अपने सभासदोंके साथ बैठकर नीति शास्त्रका विचार कर रहे थे। कोई कह रहा था, इस प्रकारका उपाय करनेसे देवतालोग सदाके लिये वशमें हो सकते हैं और कोई कह रहा था कि ऐसा करनेसे हमलोगोंका राज्य अचल हो जायगा। इतनेमें ही इन्द्रने सूचना देकर बलिके सभा भवनमें प्रवेश किया।
शत्रुओंको इस प्रकार आया हुआ देखकर वलिने बड़ा स्वागत-सत्कार किया और कुरुख रखनेवाले असभ्य दैत्योंको डाँटकर देवताओंसे उनके आनेका कारण पूछा। इन्द्रने बड़े विस्तारसे समझाया कि समुद्र में अनेक रत्न हैं और यदि हमलोग एक साथ होकर समुद्र मथें तो वे हमें मिल सकते हैं। उन्हें पाकर वास्तवमें हम संसारकी सर्वश्रेष्ठ वस्तु पा लेंगे। मन्दरकी मथानी, वासुकिकी रस्सी और भगवान्के सहायक होनेकी बात भी उन्होंने कही। बलि और उसके सभासदोंने हृदयसे इन्द्रकी बातोंका अनुमोदन किया और दोनों दल मिलकर समुद्र मन्थन करें, यह बात निश्चित हो गयी।
मित्रता हो गयी। समुद्र मन्थनकी बात पक्की हो गयी। अब केवल मन्दराचलके लानेकी देर रही। तुरंत सब देव-दानव मिलकर मन्दराचलके पास गये और उन्होंने बड़े वेग से उसे उखाड़ डाला। विशाल बावालेबलशाली दैत्य और देवताओंने उसे उखाड़कर बड़े जोरकी आवाज करते हुए उसको लेकर समुद्रकी ओर यात्रा की। परंतु वहांसे समुद्र निकट नहीं था, बहुत दूर था। चलते-चलते उनकी शक्ति क्षीण हो गयी और विवश होकर बलि तथा इन्द्रने उसे छोड़ दिया। उस बड़े भारी पहाड़के गिरनेके कारण अनेक दैत्य और 'देवताओंके शरीर चूर-चूर हो गये। कइयोंके हाथ टूट गये, कइयोंके पैर टूट गये और बहुतोंकी कमर सरक गयी। दोनों दलोंमें तहलका मच गया। उनका उत्साह ठंढा पड़ गया।
इसी समय देवताओंने भगवान्की याद की। भगवान् कहीं दूर थोड़े ही थे। उन्हें तो केवल पुकारने भरकी देर थी। जबतक इन लोगोंको अपने बलका भरोसा था, घमंड था, तबतक भगवान् अपने-आप क्यों आने लगे? जब घमंड चूर-चूर हो गया, तब पुकारते ही वे प्रकट हो गये। अपनी अमृतवर्षिणी दृष्टिसे मरे हुए देव-दानवोंको उन्होंने जीवित किया, जिनके अन भङ्ग हो गये थे, उनके शरीर पूर्ववत् ठीक किये। सबके अन्तःकरणमें बल और साहसका संचार कर दिया। अपने बायें हाथसे मुसकराते मुसकराते मन्दराचलको उठाया और देखते देखते क्षणभरमें उसे गरूडपर रखकर समुद्रतटपर पहुँचा दिया। भगवान्ने अब गरुडको विदा कर दिया और स्वयं वहीं रह गये।
तत्पश्चात् देवता और दानवोंने वासुकि नाग प्रार्थना की कि 'तुम समुद्र मधनेमें हमारी सहायता करो हम तुम्हें फलमें अपने बराबर ही हिस्सा देंगे।' वासुकिने स्वीकार कर लिया और उन्होंने वासुकि नागसे लपेटकर मन्दराचलको समुद्रमें डाल दिया। वासुकि नागके मुखकी ओर देवताओंके साथ भगवान्ने पकड़ा और पूँछकी तरफ दैत्योंको पकड़नेके लिये कहा। परंतु दैत्योंने यह बात स्वीकार नहीं की। उन्होंने कहा कि 'हम देवताओंके बड़े भाई हैं, बली हैं और किसी प्रकार कम नहीं हैं। ऐसी हालतमें हमलोग पूँछ कभी नहीं पकड़ सकते हम तो मुँहकी ओर रहेंगे।' भगवान् दैत्योंकी यह बात मान ली और उन्हें मुँहकी ओर पकड़ाकर स्वयं देवताओंके साथ पूँछकी ओर चले आये। कभी-कभी आत्माभिमानके कारण बड़ा कष्ट | उठाना पड़ता है। दैत्यलोग मुँहकी ओर क्या गये मुँहकोखा गये! आगे उन्हें इसका फल मालूम होगा। अब दोनों दल दही मथनेकी भाँति मन्दराचलसे समुद्र मथने लगे। परंतु सबसे पहला विघ्न यह उपस्थित हुआ कि मन्दराचल स्थिररूपसे रहता ही नहीं था। वह समुद्रमें डूबने लगा। देव-दानवोंने अपनी ओरसे बहुत चेष्टा की परंतु उनकी एक न चली। निराश होकर उन्होंने भगवान्का सहारा लिया। भगवान् तो सब जानते ही थे। उन्होंने हँसकर कहा-'सब कार्योंके प्रारम्भमें गणेशकी पूजा करनी चाहिये। सो तो हमलोगोंने बिलकुल भुला दिया। बिना उनकी पूजाके कार्य सिद्ध होता नहीं दीखता। अब उन्हींकी पूजा करनी चाहिये।' गणेशकी विधिपूर्वक पूजा की गयी।