भगवान् बड़े लीलाप्रिय हैं। वे समुद्रके मथनेके लिये स्वयं ही मन्दराचल उठा ले आये। एक ओर लगकर स्वयं मथने जा रहे हैं, विघ्र बाधाकी कोई। सम्भावना ही नहीं है। जिनके नाम-स्मरणसे, लीला गायनसे और स्मरणमात्रसे अनेक विघ्न-बाधाओंके पहाड़ टल जाते हैं, जिनका नाम लेनेमात्रसे समुद्रमें बड़े-बड़े पहाड़ तैरने लगते हैं, उनकी उपस्थितिमें और उनके ही द्वारा होनेवाले काममें कोई विघ्न पड़े, यह उनकी लीलाके अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। परंतु उनकी लीला केवल लीला ही नहीं होती। उसके द्वारा हमें मार्गपर चलनेका उपदेश भी प्राप्त होता है। विघ्नेश्वर गणेशकी पूजाका भी यही रहस्य था । वृद्धोंद्वारा सम्मानित मर्यादाका, परम्परागत शिष्टाचारका उल्लङ्घन नहीं होना चाहिये। उनका पालन क्यों किया जाय इस दृष्टिसे नहीं; उनका पालन क्यों न किया जाय, इस दृष्टिसे विचार करना चाहिये । यदि हम अपनी बुद्धिमानीके घमंडसे, शारीरिक बलके मदसे अथवा आलस्य प्रमादसे वैसा नहीं करते तो अपराध करते हैं; क्योंकि ये सब स्वयं अपराध हैं और यदि यह बात नहीं है तो न करनेका कोई कारण नहीं है। वे तो पहले से ही हमारे सामने कर्तव्यरूपसे उपस्थित हैं। उन्हें करनेमें कर्तव्य-अकर्तव्यका तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। भगवान्की इस लीलाका एक यह भी भाव था। उधर गणेशजीकी पूजा हो रही थी, इधर भगवान्ने कच्छपरूप धारण किया। सबके देखते-देखते मन्दराचलऊपर उठ आया और मथनेके योग्य हो गया। भगवान् सत्यसंकल्प है। उन्होंने अपना वही रूप जो नित्य शाश्वत और आधार शक्तिके रूपमें पृथ्वी और पृथ्वीको भी धारण करनेवाले शेषनागको धारण करता है, प्रकट किया। उनकी हजारों योजन लम्बी-चौड़ी एवं कठोर पीठपर मन्दराचल एक तिनकेकी भाँति प्रतीत हो रहा था। जब देवता और दानवोंने मन्थन प्रारम्भ किया, तब जिस मन्दराचलको खींचने में देवता और दानवोंकी सम्पूर्ण शक्ति लग रही थी, उसका घूमना कच्छपभगवान्को ऐसा मालूम होता, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा है। मन्दराचलके निरन्तर भ्रमणसे सारा समुद्र खलबला उठा, बड़ी ऊँची ऊँची तरंगें उठने लगीं, जीव-जन्तु घबराकर प्रलयका अनुमान करने लगे, पर्वत और समुद्रके आघातसे उठनेवाला शब्द सारे ब्रह्माण्डमें फैल गया। बड़े वेगसे समुद्र मन्थन जारी रहा।
भगवान् कच्छपरूपसे मन्दराचलको धारण किये हुए थे, विष्णुरूपसे देवताओंके साथ मध रहे थे। एक तीसरा रूप भी धारण करके मन्दराचलको अपने हाथोंसे दबाये हुए थे कि कहीं उछल न जाय। जब मयते मचते सब लोग थक गये तब भगवान्ने देखा कि अब तो इनका उत्साह ठंढा पड़ने लगा, इस प्रकार काम नहीं चलेगा। इन लोगोंके अंदर शक्ति-संचार करना चाहिये। बस फिर क्या था। सोचनेभरकी तो देर थी, सभी सौ गुने, हजार गुने उत्साहसे अपने काममें लग गये।
यद्यपि सबके अंदर भगवान्की ही शक्ति काम कर रही थी, फिर भी उस समय दैत्योंकी बुरी हालत थी। एक ओर समुद्रका घनघोर गर्जन कान फाड़े डालता था, दूसरी ओर सारी शक्ति लगाकर मन्दराचलको खींचना पड़ता था और तीसरी ओर वासुकि नागके हजारों मुखों, हजारों आँखों और हजारों नाकोंसे उनकी जीभकी ही तरह लपलपाती हुई विषकी लपटें निकल रही थीं और उनकी तीव्र ज्वालासे दैत्योंका शरीर जल-भुन रहा था। मानो भगवान्की आज्ञा न मानने और अपने बड़प्पनके घमंडका प्रत्यक्ष फल मिल रहा था।
दूसरी ओर देवताओंमें प्रतिक्षण नवीन स्फूर्ति, नवीन बल और नवीन उत्साह बढ़ता जाता था। कारण उनके साथ स्वयं भगवान् मथ रहे थे। वे क्षण-क्षणपरभगवान्के दिव्य सौन्दर्यामृतका पान करके निहाल हो रहे थे और उन्हें देख देखकर मस्त हो रहे थे। यदि कुछ थकावट होती भी तो भगवान्की प्रेमभरी दृष्टिके पड़ते ही मिट जाती थी। उधर वासुकि नागके शासकी गरमीसे बादल बन बनकर देवताओंकी ओर चले आते, उनपर छाया करके, उनपर छोटी-छोटी बूँदें बरसाकर उन्हें सुखी कर रहे थे। वास्तवमें बात यह है कि काम करते समय यदि भगवान्को स्मृति बनी रहे, उनकी समीपताका अनुभव होता रहे और आँखें उन्हींकी परम मनोहर श्यामसुन्दर छबिको देख-देखकर अपना जीवन सफल करती रहें तो अशान्ति और दुःख पास आ ही नहीं सकते। आज देवताओंके परम सौभाग्यका दिन है। न केवल देवताओंके साथ, प्रत्येक काम करने और न करनेवालेके साथ भगवान् रहते हैं। उसके कष्टमें कष्ट उठाते हैं और परिश्रम करते हैं। जो लोग उस समय उन्हें देखते रहते हैं, उनका जीवन धन्य है और वास्तवमें वे ही जीवनका लाभ ले रहे हैं।
मथते मथते बहुत देर हो गयी, परंतु अमृत न निकला। अब भगवान्ने सहस्रबाहु होकर स्वयं ही दोनों ओरसे मथना शुरू किया। उस समय भगवान्की बड़ी विलक्षण शोभा थी। वर्षाकालीन मेघके समान साँवला रंग, मुख मण्डलसे सहलों सूयोंके समान किंतु सहस्रों चन्द्रमाके समान शीतल प्रकाशकी धारा, कानोंमें बिजलीके समान चमकते हुए शरीर हिलनेके कारण चञ्चल कुण्डल, सिरपर बिखरे बाल, गलेकी वनमाला अस्त व्यस्त, आँखें लाल-लाल और अपने विजयी हाथोंसे वासुकि नागको पकड़कर समुद्र मथ रहे हैं! कैसी अपूर्व शोभा है! कितना अद्भुत रूप है। भक्तोंके लिये भगवान्की दयालुताका कितना सुन्दर निदर्शन है। ब्रह्मा शिव, सनकादि आकाश मण्डलसे पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। उन लोगोंकी ध्वनिमें ध्वनि मिलाकर समुद्र भी भगवान्का जय-जयकार कर रहा है।
इसी समय हालाहल विष प्रकट हुआ। जबतक समुद्रमें विष भरा हुआ था, तबतक अमृत कहाँसे निकलता ? आखिर भगवान्ने अपने हाथों विष निकाल ही दिया! अब यह विष कहाँ जाय। सारे संसारमें कोलाहल मच गया ! पशु, पक्षी, मनुष्य व्याकुल हो गये। समुद्रके जीव-जन्तु मछली, मगर आदि बेहोशहोने लगे। प्रजापतियोंने अपनी प्रजापर आपत्ति देखकर सदाशिव भगवान्की शरण ली।
इधर देवता और दानवोंकी व्याकुलताका ठिकाना नहीं था। चले थे अमृतके लिये और मिला विष ! भगवानूपर | विश्वास न रखनेवाले दानवोंके मनमें बड़ी निराशा हुई। वे विषादग्रस्त होकर गिर पड़े। उन्हें तो पहले अच्छी | लगनेवाली वस्तु चाहिये। पीछेसे चाहे वह जितनी बरी हो जाय। पहलेके दुःखसे पीछे होनेवाले सुखका उन्हें पता नहीं था। वे घबरा गये। देवतालोगोंको यह विश्वास तो था कि 'भगवान्की आज्ञासे ही हम यह काम कर रहे हैं और वे साथ ही रहकर हमारी सहायता भी कर रहे हैं, अन्तमें हमारा भला ही होगा।' परंतु विषकी गरमीसे वे भी व्याकुल हो गये जब उनकी बुद्धिने जबाव दे दिया, तब उन्होंने भगवान्की शरण ली।
भगवान्ने कहा- 'भाई! यह विषका मामला तो बड़ा टेढ़ा है। पहले इससे बचनेका उपाय अवश्य होना चाहिये। यहाँ तो कोई दूसरा उपाय दीखता नहीं सब लोग मिलकर देवाधिदेव महादेवकी प्रार्थना करें तो वे अवश्य इसका निवारण कर सकते हैं। वे औढरदानी हैं, आशुतोष हैं उनके सामने दीन होकर प्रार्थना की | जाय तो चाहे जितना कठिन काम हो, वे उसे कर ही डालते हैं अतः सब लोग मिलकर उन्हींकी प्रार्थना करें, उन्हींकी शरणमें जायँ तो काम बन सकता है।'
प्रजापति, देवता आदि सब मिलकर भगवान् शंकरकी प्रार्थना करने लगे। उन्होंने कहा-'देवाधिदेव महादेव! हम सब आपको नमस्कार करते हैं, आपकी शरण हैं। भगवन्! आपकी महिमा अनन्त है आपकी 1 दयालुता प्रसिद्ध है। सारे जगत्के आप ही स्वामी हैं। सारे संसारको मोक्ष देनेवाले ज्ञानका उपदेश करनेवाले आप ही जगद्गुरु हैं। आपके दरबारसे कोई निराश नहीं लौटा। अबतक के समस्त ज्ञानियोंने आपकी पूजा अर्चा की है और आगे भी करते रहेंगे। भगवन्! आप ब्रह्म हैं, निर्गुण हैं, निराकार हैं। अपनी त्रिगुणमयी शक्तिसे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लपके लिये आप ही ब्रह्मा, विष्णु और रूद्रका रूप धारण करते हैं। इन रूपोंमें होनेपर भी आप आत्मामें स्थित रहते। हैं। आपमें कोई विकार नहीं होता। आप स्वयं आत्मा हैं। स्वयं प्रकाश हैं। संसारमें जो कुछ दीख रहा है।या परिणाम है। आपका खिलवाड़ है। वह माया भी आपसे भिन्न नहीं, आपका ही स्वरूप है। आप मायासे परे है। परंतु माया आपके अंदर है। माकीट आप है और आपकी दृष्टिसे भागा अभिन्न है। प्रभो! ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो आपसे अलग हो। सुख दुःख, पाप-पुण्य, भला-बुरा, महात्मा दुरात्मा और आत्मा-अनात्मा सब कुछ आप ही हैं। आपके लिये। अपना पराया कुछ नहीं है।
'सर्वज्ञ! क्या आपसे यह बात छिपी है कि आज हालाहल विषके कारण सारे संसार में त्राहि-त्राहि मची हुई है। पशु-पक्षी, मनुष्य-देवता सभी महान् संकट पड़े हुए हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उस भयंकर जिसकी आगसे अकालमें हो त्रिलोकीका प्रसव होनेवाला है। आपके सिवा ऐसा और कोई नहीं दीखता जो इससे जगत्की रक्षा करे। हम आपके चरणोंमें बार-बार नमस्कार करते हैं।' इतना कहकर प्रजापति और देवता भगवान् शंकरके चरणोंमें साष्टांग लोट गये।
भगवान् शंकर अबतक भगवान्के चिन्तनमें अथवा स्वरूप समाधिमें लीन थे। जब उन्होंने सुना कि जगत्पर महान् संकट आया हुआ है, तब अपनी समाधि तोड़ दी। विश्वके हित के लिये समाधितक छोड़कर लग ना उनकी दयालुताके अनुरूप ही है। वे विष पीने जा ही रहे थे कि सामने जगदम्बा भगवती पार्वतीके दर्शन हुए। उन्हें देखकर भगवान् शंकरने उनसे सलाह से सेना उचित समझा। ये तो भगवान्की अङ्गिनी हो हैं। भगवान् शंकरकी इच्छा ही उनकी इच्छा है। अथवा यो कहें कि शंकरकी इच्छा ही भगवती पार्वतीका स्वरूप है। वे कब अस्वीकार कर सकती थीं। जगत्पर संकट हो, अपने बच्चोंपर आपत्ति आयी हो, पिता उसे नष्ट करनेके लिये उद्यत हो और माँ- दयामयी माँ सम्मति न दे, यह असम्भव है। परंतु कौटुम्बिक दृष्टिसे सम्मति लेना उचित है, यह बात शंकरने स्पष्ट कर दी। वे पार्वतीसे कहने लगे।