अनन्त ज्ञान हो, अपार शक्ति हो परंतु दया न हो तो हमलोगोंके लिये उसका क्या उपयोग है? हम दयाहीन ईश्वरकी कल्पना भी नहीं कर सकते। हमसंसारके पाप-ताप-ग्रस्त जीव यह तो कभी सोच ही नहीं सकते कि हम अपने बलपर दुःखोंसे छुटकारा और सुखकी प्राप्ति कर सकेंगे हमारी मनोवृत्ति न जाने कबसे दूसरोंका आश्रय दे रही है. ती ही रहती है। रुपयेका आश्रय, मनुष्यका आश्रय, पशु-पक्षियोंका आश्रय जहाँ देखें, वहाँ आश्रय-ही-आश्रय दीखता है। बिना आश्रयके हमारा एक क्षण भी नहीं बीतता और न तो बीत ही सकता है। निराश्रय तो केवल भगवान् हैं परंतु इन आश्रयको सुननेमें हमसे बड़ी गलती होती है। ये संसारके पदार्थ, संसारके जीव स्वयं दूसरोंके आश्रित हैं, हमें आश्रय क्या दे सकेंगे? इसीसे जब हम बुद्धिपूर्वक सोच-विचारकर संतोंकी सम्मतिसे अपना आप चुनते हैं, तब भगवान्को ही चुनते हैं कि वे परम दयालु हैं हमें दुःखमें छटपटाते देखकर वे द्रवित हो जायँगे। अधिकारी न होनेपर भी वे हमें परम सुख देंगे। वास्तवमें हमारी ईश्वर-भावना अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्तिपर नहीं, बहुत कुछ दयालुतापर ही अवलम्बित है।
भगवान् शंकर परम दयालु हैं। वे दयाकी साक्षात् मूर्ति हैं। वे हमें हमें नहीं देख सकते जब त्रिलोकीको संकटमें देखा तब उनसे न रहा गया। उन्होंने भगवतीसे कहा-'देनि देखी, आज हमारी पर हमारे नन्हे नन्हे शिशुओंपर कितना संकट है! क्षीरसागरके मन्यनसे निकले हुए कालकूटकी ज्वालासे दिशाओंमें प्रचण्ड अग्रि धधक रही है। आज वायुकी प्राणशक्ति नष्ट-सी हो गयी है, जलकी जीवनी-शक्ति लापता हो गयी है, औषधि वनस्पतियाँ झुलस गयी हैं और जीवोंके प्राण पखेरू निकलना ही चाहते हैं। ऐसी अवस्थामें यदि मैं इनकी रक्षा न करूँ, इन्हें इस आपत्ति बचाऊँ तो मेरी शक्तिका मेरे ऐश्वर्या और मेरे महादेव होनेका और क्या उपयोग हो सकता है ? उसी शक्तिमानको शक्ति, शक्ति है जिसकी शक्ति दोनोंकी, दुखियोंकी रक्षामें पालन-पोषण में लगती है। अबतकके महात्माओंने, साधु-पुरुषोंने अपने इन क्षणभंगुर प्राणों और जीवनका यही सदुपयोग किया है। इसमें जीवनकी सफलता बतलायी है कि विश्वभगवान्की सेवामें इसे समर्पित कर दिया जाय। बड़ा भारी ब्रह्मज्ञानी हो, बड़ा भारी भक्त हो और बड़ा भारी कर्मयोगी होपरंतु यदि वह दोनोंकी उपेक्षा करता है, उनकी रक्षा नहीं करता तो उसका ज्ञान नष्ट हो जाता है, उसकी भक्ति विफल हो जाती है और कर्मयोग अपूर्ण रह जाता है। 'भगवान् सर्वात्मा हैं। इस जगत्के एक-एक अणु एक-एक जीव उनके ही स्वरूप हैं, उनके ही अंश हैं। इनकी सेवा भगवान्की सेवा है और ऐसा करनेसे वे बहुत प्रसन्न होते हैं। उनकी प्रसन्नता और मेरी प्रसन्नता दो वस्तु नहीं हैं; क्योंकि हम दोनों दो नहीं, एक ही हैं। उनकी प्रसन्नतामें मेरी प्रसन्नता है और मेरी प्रसन्नतामें उनकी प्रसन्नता है। देवि! तुम मेरा अनुमोदन करो तुम गृहस्वामिनी हो मुझे आज्ञा दो। मैं इस विषको पीकर सारी प्रजाका कल्याण करूँ।'
देवीने कहा- 'स्वामिन्! आपकी इच्छा ही मेरी इच्छा है। जब अपनी ही संतान इतने संकटमें हैं, तब विलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है। विष आपसे पृथक् थोड़े ही है। स्वयं विष भी आपका ही एक स्वरूप है। आप ही उसे पचा सकते हैं। विलम्ब मत कीजिये। अपने बच्चोंका दुःख छुड़ाइये।'
भगवान् शंकरने अपने हाथ फैलाकर संकल्पमात्रसे उस व्यापक विषको एकत्रित कर लिया और पी गये! भगवान् शंकरके लिये, जो कि प्रलयके समय अपने तीसरे नेत्रकी अग्रिसे सारे संसारको जला डालते हैं, संसारके एक तुच्छ अंश उस विषको समेट लेना क्या बड़ी बात थी? परंतु भगवान्की ऐसी ही लीला थी। उस विषके प्रभावसे शंकरका कण्ठ नीला पड़ गया! मानो जगत्के कल्याणके लिये किये गये इस महान् कर्मकी साक्षिता देनेके लिये वह उनके गलेमें बैठ गया। लोग कहते हैं कि भगवान् शंकर परम पुरुष परमात्माका हृदयमें निरन्तर ध्यान किया करते हैं, वह भयंकर कालकूट विष कहीं उनके सुकोमल, सुकुमार श्यामल शरीरपर न पहुँच जाय, इसलिये जान-बूझकर उन्होंने स्वयं ही उसे अपने गलेमें रख लिया।
महापुरुषोंकी यही बान है, सहज स्वभाव है कि अपने लिये कोई कर्तव्य शेष न रहनेपर भी, कोई कष्ट, ताप, संताप न रहनेपर भी लोगोंके लिये वे कर्मोमें लगे रहते हैं और कष्ट सहन किया करते हैं; क्योंकि भगवान्की यह सबसे बड़ी आराधना है, इससे भगवान् परम प्रसन्न होते हैं, और भसके लिये भगवान्की प्रसन्नतासे बढ़कर और कोई बात है ही नहीं। आजशंकर अपने प्रियतम भगवान्की प्रसन्नताके लिये | नीलकण्ठ हो गये और यह लोकोपकारके लिये | स्वीकार की हुई कालिमा ही अनन्त कालतक उनकी कीर्तिका गायन करती रहेगी। पीते समय जो कुछ विषके कण छिटक गये थे, वे ही बिच्छ, साँप आदिको मिले और बच्छ-नाग, संखिया आदिके रूपमें हुए।
विष पी लेनेके पश्चात् देवता, दानव तथा समस्त जीवोंको बड़ी प्रसन्नता मिली। देवता-दानव अधिकाधिक उत्साहसे समुद्र मन्थन करने लगे। भगवान् उनके सहायक थे, मन्दराचलके घूमनेसे उठी हुई हर-हर ध्वनि महादेवके विषपानका महान् संदेश गा-गाकर त्रिलोकीको सुना रही थी समुद्रकी तरंगें उछल उछलकर आकाशको चूम आती थीं। भगवान्के हाथोंका स्पर्श प्राप्त होते रहने से वासुकि नाग को और सुख हो प्राप्त हो रहा था। मन्थन जारी रहा।
थोड़ी ही देरमें कामधेनु प्रकट हुई समुद्रके इस महान् रत्नको देखकर सभीको बड़ा आनन्द हुआ। कामधेनुका अर्थ है उनसे जो कामना की जाय, उसे वे तुरंत पूरी कर दें उनसे जो चाहें, दुह लें। मुद्रा प्रथम रत्न विष तो जगद्गुरु भगवान् शंकरके हिस्से पड़ा। दूसरा रत्न जंगलमें रहकर नित्य यज्ञ-यागादि करनेवाले ब्राह्मणोंको मिलना चाहिये यह बात सर्वसम्मति निश्चित हुई। ऋषियोंने उसे स्वीकार किया। उन्हें अग्निहोत्रके लिये पवित्र हविष्यकी आवश्यकता थी और आज कामधेनुके द्वारा वह पूरी हो गयी।
इसके बाद पुनः मन्थन प्रारम्भ हुआ। भगवान् कच्छप शान्तिसे बैठे हुए अपने पीउपर मन्दराचल के घूमने कुछ-कुछ खुजलाने का सुख अनुभव कर रहे थे। अबकी बार उच्चैःश्रवा नामका अत्यन्त सुन्दर और बलिष्ठ घोड़ा प्रकट हुआ। दैत्योंने कहा- 'अब हमारी बारी है, क्योंकि हम देवताओंसे श्रेष्ठ है इसलिये हमें पहले मिलना चाहिये।' देवताओंको तो भगवान्ने पहले ही सिखा दिया था कि लोभ मत करना, घबराना मत, संतोष रखना, सब भला होगा। अतः वे कुछ न बोले, उन्होंने एक प्रकारसे उनकी बात मान ली। वह घोड़ा दैत्योंको मिला।
इस बार और भी उत्साहसे समुद्र मथा गया। थोड़ी ही देरमें ऐरावत नामका एक महान् हाथी निकला। उसेदेखकर दैत्योंको लोभ तो हुआ पर वे बोल नहीं सकते । थे। उन्हें अपनी उतावलीपर मन-ही-मन क्रोध भी हुआ, परंतु अब वे क्या करते। बात हाथसे निकल। चुकी थी। वह ऐरावत हाथी देवताओंके राजा इन्द्रको मिला। चार दाँत और बर्फके पहाड़की भाँति उसका श्वेत शरीर देखकर देवताओंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे | फूले न समाते थे। उन्हें संतोषका फल प्रत्यक्ष हो गया।
समुद्र-मन्थन चलता ही रहा। इस बार पद्मरागके समान दिव्य, अत्यन्त मनोहर, चिन्मय कौस्तुभमणि | प्रकट हुई। उसको देखते ही किसीका मन काबूमें न रहा। सभी चाह रहे थे कि यह हमको मिले। सम्भव कि इसके लिये युद्ध हो जाता, परंतु भगवान्को अभी युद्धका होना अभीष्ट नहीं था। उन्होंने उसे अपने हाथों उठाकर अपने गलेमें पहन लिया। देवताओंकी प्रसन्नताका ठिकाना न रहा। दैत्योंके मनमें तो कुछ-कुछ लाइट हुई, परंतु इस समय ये भी भगवान्को अप्रसन्न करना नहीं चाहते थे।
अबकी बार सौगुने उत्साहसे मन्थनका काम चलने लगा। जितना ही अधिक समुद्र मन्थन होता, उतनी ही अधिक अमृत निकलनेकी आशा बढ़ती जाती। इस बार कल्पवृक्ष प्रकट हुआ। कल्पवृक्षमें यह विशेषता है कि उसके नीचे जाकर चाहे जो कामना की जाय, पूरी हो जाती है। वह दैत्योंके पास रह ही नहीं सकता था, बिना किसीकी अपेक्षा किये स्वर्गमें चला गया और वहींका आभूषण हुआ। उसकी स्वतन्त्रतामें बाधा डालना ठीक 2. नहीं समझा गया। यही कल्पवृक्ष एक बार सत्यभामाके आग्रहसे भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा द्वारकामें लाया गया था। यह बड़ा ही पवित्र वृक्ष है।
कल्पवृक्षके बाद अप्सराएँ निकलीं। वे भी स्वभावतः किसीके बन्धनमें नहीं रहना चाहती थीं। वे सुन्दर वस्त्र ह और नाना प्रकारके आभूषण धारण करके नाना प्रकारके भावसे स्वर्गमें रहनेवालों और सुखियोंका मन मोहित करने लगीं, चाहे वह कोई भी हों।
तत्पश्चात् समुद्र मन्थन करते-करते देवता और पु दैत्योंने देखा कि महान् प्रकाश हो गया। मानो एक स्थिर | बिजली उनके सामने आ गयी हो और उनकी आँखें चौंधिया गयी हों! सँभलनेके बाद मालूम हुआ कि यह तो साक्षात् लक्ष्मी है।