दुर्वासा के शापसे सभी देवता दानव और त्रिलोकी श्रीहीन हो गयी थी। जब इतनी साधना और परिश्रमके बाद श्रीदेवी प्रकट हुई, तब भला किसे प्रसन्नता न होती ? चारों ओर कोलाहल मच गया- श्रीदेवी प्रकट हुई! श्रीदेवी प्रकट हुईं।' सभीके हृदयोंमें पहलेकी सूखी हुई आशा-लता पुनः लहलहा उठी। देव-दानव, ऋषि-मुनि सभी सतृष्ण नेत्रोंसे उन्हें देखने लगे। इन्द्रने स्वयं बड़ा सुन्दर आसन ले आकर बैठनेको दिया। नदियाँ मूर्तिमान् होकर सोनेके कलशोंमें जल ले आयीं। पृथ्वीने अभिषेकके योग्य औषधियाँ एकत्र कर लीं। गौएँ पचगव्य साथीं और ऋषियोंने विधिपूर्वक अभिषेक किया। वसन्तने अपनी ऋतु प्रकट कर दी। गन्धर्व भगवती लक्ष्मीके संगीत गाने लगे। अप्सराएँ नाचने-गाने लगीं। आकाश-मण्डलमें मृदङ्ग, वेणु, वीणा आदि बाजे बजने लगे। दिग्गजोंने कलशमें जल भर-भरकर अभिषेक किये और ब्राह्मणोंने वेदोंके मन्त्र पढ़े।
समुद्र मूर्तिमान् होकर पवित्र पीताम्बर पहनने के लिये ले आया वरुणने वैजयन्तीमाला दी। उसके चारों ओर मत्त भैरे गुंजार करते हुए मंडरा रहे थे। विश्वकमनि अनेकों प्रकारके दिव्य आभूषण दिये। सरस्वतीने हार पहनाया। ब्रह्माने कमल दिया और नागराजने 'कुण्डल उपस्थित किये हाथमें कमल लेकर जब लक्ष्मीदेवीने लोगोंकी ओर देखा, तब उनके मनोहर रूप, उदारता, शरीरकी छबि, गौर वर्ण और अनुपम महिमासे सभी लोग आकर्षित हो गये। भला कौन चाहता है कि हमें लक्ष्मी न मिलें सभी सतृष्ण ने उनकी ओर देख रहे थे।
परंतु लक्ष्मी सबको थोड़े ही मिलती है। अभी होनेवाले समुद्र मन्थनमें जिनका प्रधान हाथ है, जो उपदेश करनेवाले, मन्दराचल लानेवाले, उसे धारण करनेवाले और दबानेवाले, देवता एवं दैत्योंमें शक्ति संचार करनेवाले तथा स्वयं मथनेवाले हैं; उन परम पुरुषार्थस्वरूप भगवान्को छोड़कर लक्ष्मी और किसीको कब वरण करने लगी? इतना ही नहीं, लक्ष्मी उनकी नित्य संगिनी हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं वे जा ही नहीं सकतीं। जब जन्म-जन्मान्तरमें या इस जन्ममें महान् पुण्य करके भगवान्को प्रसन्न किया जाता है, तब वे प्रसन्न होकर कुछ क्षणके लिये लक्ष्मीको कृपा करदेनेके लिये प्रेरित कर देते हैं। बिना उनकी कृपाके लक्ष्मीका पाना असम्भव है और वह चाहे जैसे हो, कुछ क्षणोंके लिये ही होता है और बहुत कम होता है। यद्यपि भगवान् की कृपाका यही लक्षण नहीं है, तथापि लोगोंकी याच्छाके अनुसार की हुई भगवानको कृपाका नमूना अवश्य है। भगवान्के अतिरिक्त सम्पूर्ण लक्ष्मी न और किसीके पास रहती है, न रह सकती है। परंतु कामनाओंका क्या अन्त! एक बार सभीको उनके चक्करमें आना पड़ता है।
भगवती लक्ष्मीने एक लीला रची। मानो वे स्वयं किसीको वरण करना चाहती हों। हाथमें कमलकी दिव्य माला ली और एक-एकको देखने लगीं। वहाँ उस समय देव-दानव, ऋषि-मुनि, शंकर-ब्रह्मा सभी उपस्थित थे। वे सबको देखती हुई जा रही थीं। सबको देख चुकनेपर उन्होंने कहा-'मैंने सबको देख लिया। एक-एकको अलग-अलग पहचान लिया। कोई-कोई सज्जन बड़े तपस्वी हैं, मैं उनकी तपस्याकी प्रशंसा करती हूँ। ये हमारे पूजनीय हैं परंतु इतनेसे ही उन्हें सर्वगुणसम्पन्न नहीं कहा जा सकता। बड़े-बड़े तपस्वियों में क्रोधकी पर्याप्त मात्रा पायी जाती है और वे ज्ञानसे भी वञ्चित ही हैं। किसी-किसीमें अपार ज्ञान है, वे सारे वेद-वेदाङ्गोंको कण्ठस्थ किये हुए हैं; परंतु वे सङ्गदोष अथवा आसक्तिके पंजेसे मुक्त नहीं हैं। जिन्हें ज्ञान है, सङ्गपर विजय प्राप्त है, वे भी कामसे हारे हुए हैं; और जो किसीके अधीन है, वह भी किसीका स्वामी हो सकता है? कहीं-कहीं धर्मकी स्थिति भी अच्छी देखी जाती है, परंतु वे भी समस्त प्राणियोंके प्रति दयाका भाव नहीं रखते। कहीं-कहीं बड़ा विकट त्याग है परंतु वास्तव ज्ञानसे दूर ही है।'
कुछ रुककर लक्ष्मीने और कहा- 'कहीं-कहीं बड़े दीर्घजीवियोंके दर्शन हुए हैं, परंतु उनका शील स्वभाव मङ्गलमय नहीं है। जहाँ शील स्वभाव अच्छा है, वहाँ आयुका कुछ ठिकाना ही नहीं है। जहाँ आयु और शील स्वभाव दोनों ही अच्छे हैं, वहाँ भी सूक्ष्म दृष्टिसे देखनेपर कुछ-न-कुछ त्रुटि निकल ही जाती है मैं खूब गौरसे देख चुकी, सम्पूर्ण गुणोंसे युक्त कोई मिला नहीं।'
इतनेमें उनकी दृष्टि विष्णु भगवानूपर पड़ी ये एक ओर उदासीनकी भाँति बैठे हुए थे मानो लक्ष्मीकेप्रकट होनेसे न उन्हें कोई कुतूहल हुआ है और न वे इन्हें चाहते हैं ! लक्ष्मीने कुछ लजाते हुए मुँह नीचे करके कहा-' और जिनमें सारे गुण हैं, जिन्हें मैं चाहती है वे मुझसे उदासीन हैं, मुझे चाहते ही नहीं। परंतु इससे क्या हुआ? मैं इन्हें ही वरण करूँगी!' उन्होंने धरिये | अपने हाथकी वरमाला जिसके चारों और सुगन्धसे मस्त भौरोंकी मण्डली मँडरा रही थी, उनके गलेमें पहना दी। भगवानके वक्षःस्थलपर अपने रहनेके स्थानको देखकर उनके मुँहपर मुसकराहट आ गयी आखें कुछ नीची हो गयीं और वे सकुचा गर्यो।
तीनों लोकोंकी जननी माँ लक्ष्मीने जगत्पिता परमात्माको जब वरण कर लिया, तब ब्रह्मा, शंकर आदि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने वेद-मन्त्रोंसे भगवानुकी अभ्यर्थना की। देवताओंने बधाई दी और भगवती लक्ष्मीने भगवान्के वक्षःस्थलपर निवास किया। उस समय दैत्य- दानव श्रीहीन हो रहे थे।
कहते हैं कि उस समय नारदजी महाराज अपनी मण्डलीके साथ कच्छपभगवान्के पास जा पहुँचे। उन्होंने स्तुति, प्रशंसा आदि करनेके बाद भगवान्से पूछा कि यह लक्ष्मी कौन हैं? इनका आपसे क्या सम्बन्ध है ? ये सबको छोड़कर आपको ही क्यों चाहती हैं?' भगवान् कहा- नारद तुम जान-बूझकर पूरी हो। लक्ष्मी मेरी अपनी ही शक्ति हैं। वे मेरी अर्द्धाङ्गिनी हैं, सर्वदा मेरे साथ ही रहती हैं। यह स्वयंवरकी लीला तो इसलिये की है कि लोग यह समझ जायें कि आश्रय लेनेयोग्य और भजन करनेयोग्य एकमात्र भगवान् ही हैं। वे प्रदिमाकी अधिष्ठात्री देवी हैं। अर्थात् संसारमें जितनी कोमलता, सुकुमारता, मधुरता, सुन्दरता आदि सद्गुण हैं, वे उन्हींके झरे परे अंश हैं। वे सबको केन्द्र हैं और मेरी सेवा किया करती हैं। जो मोक्ष चाहते हैं, भगवत्प्रेम चाहते हैं अथवा मेरा दर्शन चाहते हैं, उन्हें तो मेरा भजन करना ही चाहिये। परंतु जो सांसारिक धन, मान, कीर्ति, ऐश्वर्य, सौन्दर्य आदि चाहते हैं, उन्हें भी मेरी ही आराधना करनी चाहिये। मैं ही सबका आधार हूँ। मैं ही सबका भजनीय हूँ।' अन्तमें भगवान् कच्छपने नारदादिको यह कहकर विदा किया कि 'समुद्र मन्थन समाप्त होनेपर जब मैं रसातलमें चलूँगा और सबकी आधार-शक्ति होकर पृथ्वी तथा शेषनागादिका धारण करूँगा, तब तुमलोग आना।मैंइन बालोंका रहस्य समझाऊँगा।' नारदादि विदा हो गये।
इधर अमृतमन्थन पुनः प्रारम्भ हुआ। इस बार वारुणीदेवी प्रकट हुईं। यह पातालमें रहनेवाले जलाधिपतिकी पुत्री हैं। इनमें लोगोंको मत कर देनेकी शक्ति है। इनके सेवनसे जीव कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान भूल जाता हैं। इसीसे दैवी सम्पत्तिके प्रेमी अथवा देवतालोग इनकी अभिलाषा नहीं करते। दैत्य इधर कई बार कुछ नहीं पा रहे थे। उन्होंने बड़े चावसे वारुणीदेवीको अपनाया। वे वास्तवमें उन्हींके योग्य थीं। वारुणीको पाकर लक्ष्मी न पानेकी चिन्ता मिटती हुई-सी मालूम पड़ी। दैत्य प्रसन्न हो गये और फिर समुद्रका मथना चालू हुआ।
इस बार एक बड़ा ही विशाल धनुष प्रकट हुआ। उस धनुषकी उत्तमताकी सराहना तो सभीने की, परंतु उसे उठानेकी शक्ति किसमें नहीं थी। बहुत साहस करके अपनी शक्तिको परीक्षा करनी चाही पर प करते ही उन्हें ऐसा झटका लगा कि वे दूर हट गये। दैत्य तो उस धनुषके पासतक भी नहीं जा सकते थे। भगवान् विष्णुने जाकर स्वयं उस धनुषको उठा लिया। इस धनुष के टंकारमें इतनी शक्ति है कि पापी, दुराचारी उसे सुनते ही घबरा जाते हैं और भक्त तथा पुण्यात्मा जीव उसे सुनकर आनन्द और प्रसन्नतासे भर हैं।
जैसे जैसे वस्तुएँ निकलती जाती थीं, वैसे ही वैसे लोगोंकी आशा बढ़ती जाती थी। उनका अनुमान था कि अब शीघ्र ही अमृत प्रकट होनेवाला है। इतनेमें परिपूर्ण चन्द्रमा प्रकट हुए। इन सागरके पुत्र चन्द्रमाको देखकर सबकी आँखें शीतल हो गयीं। सबका मन आह्लादित हो गया। चन्द्रमा किसी एककी वस्तु होकर तो रह नहीं सकते थे। अतः उन्हें आकाशका बड़ा विस्तृत मैदान दिया गया कि वे वहाँ टहलते हुए देवता दानव दोनोंको समानरूपसे सुखी करें पीछे ताराओंसे उनका विवाह हुआ और दक्षके शापसे ये घटने बढ़नेवाले हो गये। औषधि, वनस्पति एवं ब्राह्मणोंके | राजा बनाये गये और ग्रहोंमें इन्हें स्थान मिला। ये | अमृत वर्षा करके जीवोंमें तथा ओषधि-वनस्पतियोंमें जीवन-शक्ति और आहादका संचार किया करते तथा । इनकी अमृत-शक्तिके बिना मनमें विचार करने की शक्ति रह ही नहीं सकती। ये मनके उसी प्रकारअधिष्ठातृ देवता हैं, जैसे आँखोंके सूर्य उधर देवता और दैत्य पूरी शक्ति लगाकर समुद्र मन्थन कर रहे थे। एक दिव्य शङ्ख प्रकट हुआ। उसे भगवान्ने स्वीकार किया और वे स्वयं भी इस बार बड़े मनोयोगसे समुद्र मथने लगे। भगवान्के लिये मनोयोग तो क्या कहा जाय, उनके संकल्पमात्रसे ही अमृत पैदा हो सकता था; परंतु वे बड़े कौतुकी हैं, कुछ-न-कुछ खेल खेलते ही रहते हैं।
इतने वेगसे समुद्र मन्थन हुआ कि उसका कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। जहाँ मथनेका बर्तन विशाल समुद्र, मथानी मन्दराचल, रस्सी वासुकि नाग और दूधके स्थानपर सम्पूर्ण क्षीरसागर हो और मथनेवाले हों समस्त देव-दानव तथा स्वयं भगवान्; ऐसी स्थितिमें कैसा मक्खन निकलेगा, इसकी क्या कल्पना की जा सकती है? इस प्रकार दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनोंको भगवान्के आश्रित करके सत्त्वका समुद्र मथें तो वास्तवमें अमृतत्वकी प्राप्ति होगी।
इस बार एक विलक्षण पुरुष प्रकट हुए। उनका बड़ा ही सुन्दर था। पीताम्बर पहने हुए थे। शरीर श्यामवर्ण, युवावस्था, वनमाला पहने हुए, दिव्य आभूषणोंको धारण किये हुए धन्वन्तरिभगवान्को देखकर सब-के सब चकित हो गये। उनके काले-काले लम्बे और घुँघराले चिकने केशोंकी छबि अनोखी ही थी। चौड़ी छाती और हाथोंका अमृत कलश बरबस लोगोंको अपनी ओर खींच रहा था। सब-के-सब सब अमृत कलश देखकर आनन्दनिमग्र हो गये।