जैसे सूर्य भगवान् समानरूपसे सारे जगत्को प्रकाश और उष्णताका दान करते हैं। उनकी शक्तिसे, उनके प्रकाशसे लाभ उठाकर कुछ लोग संध्या-पूजा, यज्ञ दान आदि करते हैं और कुछ लोग बुरे विषयोंका दर्शन, घातक शस्त्रोंका निर्माण आदि करते हैं, परंतु सूर्य इन दोनोंसे अलग रहता है, न वह किसीका पक्षपात करता और न किसीसे द्वेष करता है। जो लोग लाभ उठाना चाहें उठावें, न उठाना चाहें न उठावें। ठीक भगवान्की भी ऐसी ही बात हैं; वे सवपर कृपा करनेको तैयार हैं, कृपा किये हुए हैं। जो लोग उसका अनुभव करते हैं, वे लाभ उठाते हैं और जो नहीं अनुभव करते वे उससे वञ्चित रह जाते हैं।
देवता उनकी कृपाका अनुभव करते हैं और उससे लाभ उठाते हैं। आज भी जब उन्होंने भगवान्का स्मरण किया, तब वे आ गये और देवताओंका बल बढ़ गया। जब उनकी जीत होने लगी, तब भगवान् अन्तर्धान हो गये; परंतु युद्ध अब भी चल ही रहा था। देवराज इन्द्रके वज्र प्रहारसे बलिके घायल होते ही दैत्य उन्हें दूसरी ओर उठा ले गये और जम्भासुर अपनी विकराल गदा लेकर इन्द्रपर टूट पड़ा। गदाकी चोटसे व्याकुल होकर ऐरावत घुटनोंके बल बैठ गया और उस समय युद्धके योग्य न रहा। मातलिने इन्द्रके सामने उनके हजार घोड़ोंवाला रथ उपस्थित किया और इन्द्र झटपट उसपर सवार होकर मैदानमें फिर उतर पड़े।
इन्द्रके वज्र प्रहारसे जम्भासुरको मृत्यु हो गयी। यह समाचार सुनते ही नमुचि, बल और पाकासुर ये तीनों उपस्थित हुए। इन लोगोंका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। अन्तमें इन्द्रने अपने शतधार वज्रसे बल और पाकासुरके सिर भी काट लिये; परंतु नमुचिपर उनका वज्र असर न कर सका। इन्द्र बड़ी चिन्तामें पड़ गये। उन्होंने सोचा कि दधीचिकी हड्डियोंसे बना हुआ यह तपस्याओंका सारस्वरूप वज्र कभी विफल नहीं हुआथा। जिससे पहले मैंने अनेक पर्वतोंकी पाँखें काट | डालीं। वृत्रासुरको मार डाला और न जाने कितने बड़े • बड़े दैत्य-दानवोंको मृत्युके घाट उतार दिया; वही वज्र आज इस छोटे-से दैत्यपर व्यर्थ हो गया ! यहाँतक कि उसके चमड़ेपर भी चोट न कर सका, अतः अब इसे लेकर मैं क्या करूँगा ?"
इन्द्रकी चिन्ताओंका अन्त नहीं था। इतनेमें ही आकाशवाणी हुई कि 'इन्द्र यह शोक करनेका अवसर नहीं है। इसने पहले घोर तपस्या करके यह वरदान प्राप्त किया है कि मैं सूखी या गीली चीजसे न मरूँ। इसीसे तुम्हारा वज्र इसपर कारगर नहीं हो सका। अपने वज्रमें समुद्रका फेन लगाकर इसपर प्रहार करो। इसकी मृत्यु हो जायगी।' इन्द्रने वैसा ही किया। क्षणभरमें नमुचिका सिर धड़से अलग हो गया।
अब दैत्योंके पैर उखड़ गये। जो बचे थे, वे भग गये, परंतु देवताओंने उनका पीछा न छोड़ा। वे उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर मारने लगे। तब ब्रह्माकी प्रेरणासे देवर्षि नारद अपनी वीणापर भगवान्के मधुर नामोंका सुन्दर स्वरसे गायन करते हुए देवताओंके पास आये और उन्होंने समझाया। नारदने कहा-'देवताओ ! तुमपर भगवान्की कृपा है। तुम भगवान्के आश्रित हो। तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो गयी। तुमने अमृत पी लिया। अब इन बेचारोंको खदेड़ खदेड़कर मारनेसे क्या लाभ है? यदि तुम्हें इसी प्रकार कोई मारता तो तुम्हें कितना दुःख होता ? जो बात अपनेको बुरी लगे, वह दूसरेके लिये भी नहीं करनी चाहिये। हिंसा स्वयं नरक है। इस नरकमें जानेके रास्ते काम, क्रोध और लोभ हैं। - परंतु मुझे तो तुम्हारे अंदर अकारण क्रोधकी ही मात्रा अधिक दीखती है।
'तुमलोग जानते ही हो कि आग जिस स्थानमें जलती है, पहले उसी स्थानको जलाती है। क्रोध आग ही है। यह जहाँ पैदा होता है, पहले उसीको जलाता है अपराध करनेवालेपर भी क्रोध नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्रोध स्वयं अपराध है। यदि एकके क्रोध करनेके अपराधपर दूसरा कोई क्रोध करे और दूसरेपर तीसरा करे तो सारा संसार ही क्रोधमय हो जाय। इसलिये क्रोधका बदला क्रोधसे नहीं, क्षमासे ही देना चाहिये। हिंसाका बदला हिंसासे नहीं, अहिंसासे देना चाहिये।'तुमलोग दैवी सम्पत्तिके प्रेमी हो। इस समय तुम विजयी हो। तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हुई है। इस ऊँचे पदपर बैठकर यदि तुम द्वेष करनेवालोंसे प्रेम करो, घृणा करनेवालोंका सम्मान करो और मारनेवालोंकी जीवन रक्षा करो तो तुम्हारी बड़ाई है और वास्तवमें तभी तुम्हारा कर्तव्य पूरा होता है।'
नारदकी बात सुनकर देवताओंने मार-काट बंद कर दी और वे स्वर्गमें जाकर आनन्दोपभोग करने लगे। इधर बचे-खुचे दैत्य कटे-मरे दैत्योंको उठाकर शुक्राचार्यके पास ले गये और उन्होंने अपनी मृत संजीविनी विद्यासे उन सबको जीवित कर दिया।
अब देवर्षि नारदको कच्छपभगवान्की बात याद आयी। उन्होंने कहा था कि समुद्र मन्थन समाप्त होनेपर रसातलमें फिर बातें होंगी। देवर्षि नारद अपनी मण्डलीके साथ वहाँ पहुँच गये। उन्होंने देखा कि कच्छप भगवान् सबको धारण किये हुए आधारशक्तिके रूपमें बैठे हैं। इन लोगोंने जाकर श्रद्धा-भक्तिसे प्रणाम किया, उनकी स्तुति प्रार्थना की और अनेक प्रकारके प्रश्न पूछे तथा कच्छपभगवान्ने प्रत्येक प्रश्नका विस्तारपूर्वक उत्तर दिया। वे ही प्रश्नोत्तर 'कूर्मपुराण के नामसे प्रसिद्ध हैं। आध्यात्मिक जिज्ञासुओंको उनका अध्ययन करना चाहिये। उन सबकी चर्चा करना तो यहाँ सम्भव नहीं है, परंतु संक्षेपसे कुछ बातें लिखी जाती हैं।
कच्छपभगवान्ने कहा—'ऋषियो। बहुत विस्तार न करके संक्षेपमें ही मैं तुम्हें सार-सार बता देता हूँ। इस सृष्टिमें चौरासी लाख योनियाँ हैं। उनमें मनुष्य योनिको छोड़कर सभी भोगप्रधान हैं। मनुष्य योनि कर्मप्रधान है और इसमें आकर अपनी इच्छा के अनुसार चाहे जिस योनिमें जा सकते हैं या इन योनियोंसे मुक्त हो सकते हैं। इन योनियोंके भ्रमणमें महान् कष्ट उठाना पड़ता है। जन्म, मृत्यु और जीवनकालमें इतने दुःखोंका सामना करना पड़ता है कि व्यथाका अनुभव करते-करते अनेक बार मूच्छित होना पड़ता है। शरीरके क्लेश, मनके क्लेश और लोक-लोकान्तरोंके क्लेश भोगते भोगते जीव घबरा जाता है। वह सुखकी खोजमें भटकता फिरता है, परंतु सुखके बदले दुःख ही अधिक पाता है। दूरसे मालूम होगा कि 'वहाँ जाऊँगा, वह विषय पा लूँगा और वह समय आ जायगा तो मैं सुखीहो जाऊँगा।' परंतु उनके आनेपर सुखके दर्शन नहीं होते बल्कि दुःखमें पड़ जाता है और तब फिर मालूम होता है कि अमुक स्थान, अमुक वस्तु और अमुक विषयसे सुख प्राप्त हो सकता है, किंतु यह कोरा भ्रम है। विषयोंसे सुख मिल ही नहीं सकता; क्योंकि उनमें सुख है ही नहीं।
'मायाका बन्धन बड़ा भयंकर है। एक जगह निराशा होनेपर भी दूसरी जगह आशा हो जाती है। वहाँ टूटनेपर फिर तीसरी जगह इसका ताँता टूटता ही नहीं। जैसे मारवाड़के बालूमें हरिन एक स्थानसे दूसरे स्थानपर पानी के लिये भटकते रहते हैं और उनकी आशा बनी रहती है तथा उन्हें दीखता रहता है कि 'यहाँ न सही, वहाँ तो मिल ही जायगा !'
"जीवोंका यह भटकना तबतक बंद नहीं हो सकता, जबतक वे मनुष्य योनिमें आकर विवेक बुद्धिसे सोच-विचारकर अपने धर्मकी शरण नहीं लेते। मनुष्योंमें भी अधिकांश तो भोगप्रधान ही होते हैं। वे अपने पिछले जीवनों अर्थात् पशु-पक्षियोंके समान ही आचरण करते हैं और निद्रा, भोजन, विषयभोग आदिमें ही लगे रहते हैं। उन्हें पुनः भोगयोनियोंमें ही लौट जाना पड़ता है। परंतु जो लोग भारतवर्षमें पैदा हुए हैं और अपने वर्णाश्रमधर्मके अनुसार रहकर मेरे भजनमें लगे हुए हैं, वे इस चौरासीके चक्करसे छुटकारा पा जाते हैं। बड़े-बड़े देवतालोग भोगोंसे ऊबकर भारतवर्षमें जन्म ग्रहण करना चाहते हैं वहाँका वायुमण्डल आध्यात्मिकता प्रधान है। वहाँ बड़े-बड़े ऋषि तपस्वी आदि वर्तमान हैं। उनके उच्चारण किये हुए मन्त्र, उपदेश आदि वहाँके कण-कणमें फैले हुए हैं। भारतवर्षमें पैदा होकर जिस मनुष्यने अपना कल्याण साधन नहीं किया, उसने अपने हाथमें आयी हुई एक अमूल्य वस्तुको खो दिया।
'चार वर्ण हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये वर्ण हैं। इनमें ब्राह्मण मेरे मुखसे पैदा हुए हैं। समाजके शिरोभाग होनेके कारण इनके कार्य भी शीर्षस्थानीय ही हैं ये अपनी बुद्धिसे दिन-रात सबका हित सोचते रहते हैं। वेदोंका स्वाध्याय, यज्ञ, दान इनके मुख्य कर्म है ये जीविकाकी चिन्ता न करके निरन्तर इन्द्रियोंके निग्रह, मनकी एकाग्रता और परम शान्तिके साथ मेरे स्मरणमें लगे रहें, यही इनका कर्तव्य है। यदिजीविकाकी आवश्यकता जान पड़े तो अध्यापन करना, यज्ञ कराना और दान लेना-इनके लिये उत्तम है। परंतु अध्यापनकी अपेक्षा याजन कनिष्ठ है और याजनकी अपेक्षा दान लेना कनिष्ठ है। यद्यपि औरोंका कल्याण तो इसमें है कि वे ब्राह्मणोंको दान दें. परंतु ब्राह्मणोंके लिये यह वृत्ति अत्यन्त निन्दित है।
'मेरी बाहुऑसे क्षत्रियोंकी उत्पत्ति हुई है। उनका मुख्य कार्य भी बाहुस्थानीय है। वे सबकी रक्षा-दीक्षा में तत्पर रहें, यही उनका मुख्य कर्तव्य है। वेदोंका अध्ययन, यज्ञ, दान, आस्तिकता, वीरता-ये सब उनके लिये उपादेय हैं। एक वीर क्षत्रियमें इन बातोंका रहना अनिवार्य है। वह सब कुछ करता हुआ भी मेरा स्मरण रखता है और किसीके कष्टकी बात सुनकर अपने कष्ट - जैसा ही उसका अनुभव करता है। इसकी वृत्तिके लिये प्रजा पालन आदि हैं। इसे दान लेने आदिका अधिकार नहीं है।
'वैश्य मेरी जाँघोंसे पैदा हुए हैं। इनका काम सारे शरीरका वहन करना है। सबको समयपर भोजन मिल जाय, इसकी जिम्मेवारी वैश्योंपर ही है कोई आपत्ति आनेपर क्षत्रिय उसे दूर करते हैं। इन्हें अध्ययन, यज्ञ और दान अवश्य करने चाहिये। जीविकाके लिये कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य इन्हें करने चाहिये। ये यदि न्याय, सत्य और भगवदर्पण - बुद्धिके साथ अपने कर्तव्यका पालन करें तो बड़ी ही सुगमतासे इनका उद्धार हो सकता है।
'शूद्र मेरे चरणोंसे उत्पन्न हुए हैं। इनका कर्तव्य है, इन तीनों वर्णोंकी सेवा। इसीसे इनका पारमार्थिक कल्याण सधता है और लौकिक जीविकाके लिये भी यहीं है। जो गति ब्राह्मणादिकोंको बड़ी-बड़ी तपस्या, यज्ञ, अध्ययन आदिके द्वारा प्राप्त होती है, वही शूद्रोंको केवल सेवाके द्वारा प्राप्त होती है।
'इन चारों वर्णोंमें नीच ऊँचका भेद नहीं है। सभी मेरे अङ्ग हैं, सभी मेरे अपने हैं ये सब अपने अपने कामोंद्वारा मेरी ही आराधना करते हैं। समाजमें सबका ही यथोचित स्थान है। इन वर्णोंकी सृष्टि गुण और कर्मके भेदसे स्वयं मैंने ही की है। जो मेरी आज्ञाके अनुसार अपने वर्णधर्मका पालन करता है, उसपर मैं प्रसन्न होता हूँ और उसको अभिलाषा पूर्ण करता हूँ । यदि वर्णधर्मके द्वारा चाहे तो सभी प्रकारकेलौकिक तथा पारलौकिक सुख प्राप्त हो सकते हैं। यदि कुछ पाना न चाहे तो अल्पकालमें ही अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और मेरे अखण्ड ज्ञान तथा अविचल प्रेमकी प्राप्ति होती है।
'मेरे स्वरूपका ज्ञान अथवा मेरे प्रति भक्ति इस मायाके प्रपञ्चसे पार करनेवाली है। अपने-अपने वर्णोंके अनुसार आचरण किये बिना इनकी प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः कल्याणका सीधा मार्ग यह है कि अपने धर्मका आचरण करके इन्हें प्राप्त किया जाय। मैं जीवोंको अपने पास बुलानेके लिये उत्सुक रहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि वे विषयोंके चक्करमें न पड़े, परम सुख तथा परम शान्तिका अनुभव करें। इसीलिये मैं समय- समयपर अवतार भी ग्रहण किया करता हूँ। मैं घोषणा करता हूँ कि धर्मात्मा और मेरे भक्तका कभी नाश नहीं हो सकता। आ जाओ, सब-के-सब मेरी शरणमें आ जाओ। तुम्हारी जिम्मेवारी मुझपर है। मैं तुम्हें सब पाप-तापसे मुक्त करके अपने में मिला लूंगा। अपने हृदयसे लगा लूँगा ।'
भगवान्कच्छप अब भी हैं और आधार शक्तिके रूपमें हम सबको धारण किये हुए हैं। यदि उनके उपदेशके अनुसार हमारा जीवन बन जाय तो हमारा कल्याण हो जाय। अन्य अवतारोंके मन्त्रोंकी भाँति कच्छपभगवान्की उपासनाके भी बहुत से मन्त्र हैं। उन सबकी चर्चा तो यहाँ प्रासङ्गिक नहीं होगी, केवल एक मन्त्र और उनके ध्यानका स्वरूप लिखा जाता है। भगवान् कच्छपका मन्त्र है - ॐ नमो भगवते कुं कूर्माय धराधरधुरन्धराय नमः । इस मन्त्रके कश्यप ऋषि हैं, प्रकृति छन्द है और स्वयं कच्छपभगवान् देवता हैं। 'धराधरधुरन्धर' शक्ति है और 'कुं' बीज है तथा अपने सम्पूर्ण अभीष्टोंकी सिद्धिमें इसका विनियोग होता है। इनका ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है
*******************शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
पीताम्बरं कूर्मपृष्ठे लसल्लाङ्गूलशोभितम् ।
दीर्घग्रीव महाग्राहं गिरन्तं रक्तलोचनम् ॥
(26) भगवान्कच्छप अपने चारों हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। पीताम्बर पहने हुए हैं। पीठ कछुएकी पीठके समान है। बड़ी ही सुन्दर पूँछ पीछेकी ओर शोभायमान है। गला बड़ा लंबा है।संसाररूपी महाग्राहको नष्ट कर रहे हैं और उनकी आँखें लाल-लाल हैं। कच्छपभगवान्का ध्यान करता हुआ जो साधक उपर्युक्त मन्त्रका विधिपूर्वक जप करताहै, उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं। उसपर भगवान्की कृपा प्रकट होती है। बोलो भगवान् कच्छपकी जय !