जहाँ भगवान्की संनिधि है, सभी वस्तुएँ भगवान् की
हैं और हम स्वयं भगवान्के हैं, वहाँ सुख ही सुख है। वहाँ दुःखकी पहुँच हो ही नहीं सकती। परंतु जहाँ अभिमान है, यह मैं हूँ, यह मेरा है-इस प्रकारकी मोह-ममताका साम्राज्य है, वहाँ दुःख ही दुःख है। दुःखका कारण अत्यन्त स्थूल है। स्थूल जगत्से सम्बन्ध होनेके कारण ही यह सूक्ष्म जगत्तक पहुँचता है। शरीर और शरीरके सम्बन्धी व्यक्तियों अथवा पदार्थोंसे अहंता-ममताका भाव ही दुःखजनक है। यदि इनसे सम्बन्ध छोड़ दिया जाय, इनके रहते हुए तथा इनके साथ व्यवहार करते हुए भी अहंता-ममताका सम्बन्ध भगवान् के साथ ही रखा जाय तो दुःख नहीं हो सकता और इनसे व्यवहार न करके भी इनसे अलग रहकर भी तथा इनके नष्ट हो जानेपर भी यदि इनके साथ सम्बन्धका भाव बना रहा तो ये महान् कष्ट देनेवाले बन जाते हैं।
शरीरके साथ सम्बन्ध ही अर्थात् यह मैं हूँ, यह मेरा है - इस प्रकारका भाव ही साधारण जीवोंकी प्रधान दुर्बलता है। इसीसे जब कभी शरीर और शरीरके सम्बन्धियोंका विच्छेद होता है, तब उन्हें बड़ा कष्ट होता है।
यह बात उस समयकी है, जब वाराह भगवान्ने हिरण्याक्षका वध कर डाला था। उसकी माता दिति, उसकी पत्नी भानुमती, उसके भाई हिरण्यकशिपु और समस्त परिवार बड़ा दुःखी था। चारों ओर कुहराम मचा हुआ था। कोई शोकसे पागल होकर रो-पीट रहा था, किसीकी घिग्घी बँधी थी। उसकी पत्नी भानुमती तो सती होनेके लिये चिताके पास जानेको उद्यत थी। दिति किंकर्तव्यविमूढ़ थी। एक ओर माताका वात्सल्यपूर्ण हृदय पुत्र-शोकमें व्याकुल हो रहा था, दूसरी ओरअधिक व्याकुलता प्रकट करनेसे बहूके सती हो जानेका भय था, उसको समझानेमें अड़चन पड़ती थी। हिरण्यकशिपुके हृदयमें द्वेष और क्रोधकी आग धधक उठी थी। उसने सबको रोक दिया। उसने कहा- 'मेरे वीर भाईकी अन्त्येष्टि क्रिया साधारण लोगोंकी भाँति नहीं होगी। सम्पूर्ण देवताओंको स्वर्गसे मार भगानेके पश्चात् वीर पुरुषोंको जैसा कर्म करना चाहिये, वैसा ही किया जायगा।' उसने दैत्योंको सम्बोधन करके कहा- 'वीर दैत्यो! शत्रुओंने अवसर पाकर विष्णुकी सहायतासे हमें नीचा दिखाया है, हमारे भाईको मार डाला है। देर मत करो। अभी धावा बोल दो। मैं अपने भाईके हत्यारेको मारकर शत्रुके खूनसे उसका तर्पण करूँगा। यदि मेरे भाईका हत्यारा मार डाला जाय तो सभी देवताओंको मरा हुआ ही समझो, परंतु वह तो छिपा रहता है। उसका मिलना कठिन है; किंतु उसको मारनेका एक उपाय है। तुमलोग पृथ्वीमें जाकर द्विजातियोंकी तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानको नष्ट कर दो। जहाँ-जहाँ ब्राह्मण, गौ, वेद, वर्णाश्रम आदि हों, वहाँ-वहाँ आग लगा दो, उन देशोंको नष्ट-भ्रष्ट कर दो; क्योंकि इन्हींके आधारपर देवताओं और मेरे उस मायावी शत्रुका जीवन है। इनके नष्ट हो जानेपर वे स्वयं नष्ट हो जायँगे।'
अपने स्वामी हिरण्यकशिपुकी आज्ञा पाकर झुंड के झुंड दैत्य पृथ्वीपर आकर उत्पात मचाने लगे, देवताओंने स्वर्ग छोड़ दिया, सर्वत्र असुर-भावका बोलबाला हो गया, हिरण्यकशिपुने अपने भाईकी अन्त्येष्टि क्रिया की अबतक माताने समझा-बुझाकर इस बातपर भानुमतीको तैयार कर लिया था कि वह अपने शत्रुओं और उनके अनुयायियोंकी दुर्दशा देखनेके लिये जीवित रहे, परंतु अभी दिति और भानुमती दोनोंका ही शोक मिटा नहीं था। वे दोनों विषादमें हीअपना समय व्यतीत करती थीं। हिरण्यकशिपुने उन्हें समझाया और खूब समझाया।
आसुरभावके लोग ऐसे ही अवसरोंपर वेदान्तका उपयोग किया करते हैं। उनका अपना जीवन तो घोर भौतिकतासे सना हुआ होता है, परंतु दूसरोंके लिये वे अपनी विद्या बुद्धिका बहुत अधिक उपयोग करते हैं। हिरण्यकशिपुने कहा- 'माँ और बहू मेरे वीर भाईके लिये इतना शोक करनेकी आवश्यकता नहीं है। बड़े-बड़े वीर जैसी अवस्थामें मरनेकी कामना किया करते हैं, वैसी ही मृत्यु उन्हें प्राप्त हुई है। यह शरीर अनित्य है, किसीका कोई साथी नहीं है। जैसे चौराहे के चौसरेपर चारों ओरसे लोग आकर इकट्ठे हो जाते हैं, घड़ी दो घड़ी बात-चीत कर ली, फिर अपना रास्ता ले लेते हैं, वैसे ही अपने कर्मोंके अनुसार लोग कुछ दिनोंतक पिता-पुत्र-पति आदिके रूपमें रह लेते हैं और समय आनेपर चले जाते हैं जैसे पानीकी चलतासे उसमें पड़ी हुई वृक्षकी छाया भी चञ्चल मालूम होती है, जैसे आँखोंकी चञ्चलतासे सारी दुनिया चञ्चल दीखती है; वैसे ही शरीरकी चञ्चलतासे आत्मा भी चञ्चल-सी जान पड़ती है मनके सुख-दुःख व्यर्थ ही आत्मापर डाल दिये जाते हैं और इसीसे लोगोंको शोक-मोहके पंजेमें आना पड़ता हैं। वास्तवमें आत्मा शुद्ध है, जन्म-मरणसे रहित है।' हिरण्यकशिपुने समझानेके सिलसिले में एक दृष्टान्त देते हुए कहा—''माँ! थोड़े दिनोंकी बात है, उशीनर देशमें सुयज्ञ नामका एक बड़ा यशस्वी राजा था, युद्ध में शत्रुओंके हाथों उसको भौत हो गयी, उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर खड़े हो गये, कलका राजा आज जमीनमें पड़ा हुआ है, उसका शरीर खूनसे लथपथ है, बाल बिखरे हुए हैं, आँखें उलट गयी हैं, दाँतोंसे ओंठ दबा हुआ है, हाथ कट गये हैं, उसकी स्त्रियाँ, उसको माताएँ छाती पीट-पीटकर 'हा नाथ!' 'हा बेटा' कहती हुई ये रही हैं। उनके विलाप और विषादको सीमा नहीं है। वे कह रही थीं—'ब्रह्मा ! तुम बड़े निठुर हो। हमारे प्राणप्रिय स्वामीको इस हालत में पहुंचा दिया। हमारा बेटा आज जमीनपर पड़ा हुआ है। राजन्। तुम तो हमसे बड़ा प्रेम करते थे, आज एकाएक छोड़कर कहाँ चले गये? आओ, हमसे बोलो, अपने हाथोंसे हमारे आँसू
पोंछी।'
'सूर्यास्त हो गया, परंतु वे सब सुग्रहके शक्केपास छाती पीट-पीटकर रोते ही रहे। अब यमराजसे नहीं देखा गया, वे एक पाँच वर्षके बालकका वेष धारण करके उनके पास आये। उन्होंने कहा- 'अरे! तुमलोगोंकी अवस्था तो बहुत बड़ी है, परंतु तुम्हारी बुद्धि मुझ बालक-जितनी भी नहीं है। रोज-रोज देखते हो, सभी तो मर रहे हैं, अमर कौन है? फिर इतना रोने-धोनेकी क्या जरूरत है? देखो, मैं नन्हा- सा बालक हूँ, मेरे माँ-बापने इस घोर जंगलमें मुझे छोड़ दिया है। शेर, भेड़िया आदि मेरी ओर देखतक नहीं सकते, क्योंकि जो गर्भमें रक्षा करता है, वह इस समय भी रक्षा करनेके लिये मौजूद है। भाई! तुमलोग क्यों इतना रोते हो? हम सब तो किसीके खिलौने हैं। जब मौज होती है, बना देता है और चाहे जब बिगाड़कर सब बराबर कर देता है। अपने कर्मके अनुसार सभी चक्कर काट रहे हैं, इन्हें कोई रोक नहीं सकता जो होनेवाला है, वह होकर ही रहेगा। देखो, अभी कलकी बात है, मैंने अपनी आँखों देखा था, चिड़ियोंकी एक जोड़ी बड़े सुन्दर पेपर पॉसला बनाकर रहती थी। उनमें आपसमें बड़ा प्रेम था। मस्तीके साथ चरते-चुगते थे। एक बहेलिया आया उसने अपना जाल फैला दिया। उस समय पति था नहीं, पत्नी लालचमें पड़कर जालमें फँस गयी। जब पति आया और अपनी पत्नीको जालमें पड़ी देखा तो शोकाकुल होकर रोने लगा। तबतक बहेलियेने उसे भी अपने काबूमें कर लिया।
"उस बालकने अपनी ओर उन रोनेवालोंको आकर्षित करते हुए कहा-'हम सब कालके जालमें फँसे ही हुए हैं। न जाने कब हमें चबा जायगा। अपनी अपनी चिन्ता करें। हम मरनेके पहिले सावधान हो जायें। चलो, क्रिया-कर्म करो। अब शोक करनेका समय नहीं है।"
हिरण्यकशिपुने अपनी माँ दिति और बहू भानुमतीको सम्बोधित करते हुए कहा- 'उस बालककी बात सुनकर सब लोगोंने शोक छोड़ दिया और वे क्रिया कर्ममें लग गये। इस जगत्की यही गति है। जो हो गया, सो हो गया। अब शोक करनेसे मेरा भाई लौट नहीं सकता।"
हिरण्यकशिपुकी बात सुनकर उन्हें कुछ बा हुआ। वे घरके काम-काजमें कुछ-कुछ योग देने लगीं।कहते हैं कि भानुमतीने किसी वैष्णवका कटा हुआ सिर देखे बिना भोजन नहीं करती थी और क्रूर दैत्य हिरण्यकशिपुने इसका प्रबन्ध कर रखा था। राज्य तो उसका हो ही गया था, सब दैत्य उसकी आज्ञा भी मानते थे, उसके सामने कोई पड़ता भी न था; परंतु हिरण्यकशिपुके अन्तःकरणमें एक प्रकारका भय सर्वदा ही बना रहता था। वह सोचता कि मेरा भाई तो मुझसे भी बलवान् था, जब विष्णुके हाथोंसे वह भी नहीं बच सका तो मेरा क्या ठिकाना ? पता नहीं, वह कब आक्रमण कर दे! उसका चेहरा उदास रहता ।
एक दिन हिरण्यकशिपुकी पत्नी कयाधूने बड़ा हठ किया, तब कहीं उसने अपने मनकी बात बतायी। दोनोंमें सलाह हुई कि तपस्या करनी चाहिये। तपस्या करके ऐसी शक्ति प्राप्त की जाय कि त्रिलोकीका राज्य निष्कण्टक हो जाय और हम अमर हो जायँ । निश्चय होनेके बाद हिरण्यकशिपु तपस्या करनेके लिये चला गया। उन दिनों कयाधू गर्भवती थी।
किसी-किसी पुराण में ऐसी कथा आती है कि जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने लगा, तब इन्द्रकी प्रेरणासे दो ऋषि पक्षीका वेश धारण करके उसके पास आये और 'नमो नारायणाय' का उच्चारण करने लगे। दो तीन बारतक सहन करनेके पश्चात् उसे क्रोध आ गया और वह धनुष-बाण उठाकर उन्हें मारने दौड़ा। वे तो मिले नहीं, परंतु तपस्यामें विघ्न पड़ गया। हिरण्यकशिपु लौटकर घर आया और अपनी पत्नीसे वह समाचार कह रहा था कि इतनेमें ही 'नारायण' मन्त्रका उच्चारण करते समय कयाधूको गर्भ रह गया। इसी मन्त्रके प्रभावसे प्रह्लाद जैसे भक्त उसके गर्भमें आये। पत्नीकी प्रेरणासे हिरण्यकशिपु पुनः तप करनेचला गया।