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श्री नृसिंह अवतार कथा (नृसिंह अवतार की कहानी)

Narasimha Avatar Katha (Narasingha Story)

भाग 4 - Part 4

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श्री नृसिंह अवतार-कथा

संसार द्वन्द्वमय है। सुख-दुःख, राग-द्वेष, हानि लाभ, जीवन-भरण, जय-पराजय, यश-अपयश यही सब इसके स्वरूप हैं। इसमें ऐसी एक भी वस्तु नहीं, जो आकर्षण - विकर्षणसे शून्य हो। इसका कुछ दूसरा अर्थ नहीं है। मेरी समझमें इसका सीधा अर्थ है खींचा-तानी । एक ही वस्तु दो ओर खिंची जा रही है, कभी इधर चली जाती हैं, कभी उधर । वह स्थिर नहीं रह सकती। यह अस्थिरता ही संसारका स्वरूप है। रागके अंदर विराग, भोगके अंदर त्याग अथवा विरागके अंदर राग और त्यागके अंदर भोग दार्शनिक सत्य हैं। ऐसा होता आया है और ऐसा ही होता रहेगा ।

एक ओर तो हिरण्यकशिपुके प्रबल प्रताप और | शासनसे भगवद्भक्तोंकी साँसत हो रही है, दूसरी ओर उसीकी राजधानीमें उसीके महलमें और उसीकी अर्धाङ्गिनी कयाधूकी कोखमें एक परम भगवद्भक्त पनप रहा है। आज हिरण्यकशिपुके अत्याचारके सामने भगवद्भक्ति दबी हुई है तो एक दिन इसी गर्भस्थ बालकके प्रतापसे हिरण्यकशिपु और उसके अत्याचार भगवद्भक्तिके सामने दब जायँगे। अब वह समय दूर नहीं है।

उस दिन प्रकृतिने अपनेको सजाया था । भक्तोंके हृदय प्रसन्न थे, देवताओंके दाहिने अङ्ग फड़क रहेथे। पशु-पक्षी भी जान-बूझकर शुभ शकुनकी सूचना दे रहे थे। दैत्योंकी राजधानी हिरण्यपुरी कलश-तोरण आदिसे सजी हुई थी। घर-घर मङ्गल-बधा बन रहे है। स्त्रियाँ मङ्गलाचार कर रही थीं सोहरकी ध्वनिसे राजमहल भी गूंज उठा था। देव-दानव, साधु-असाधु सभी प्रसन्न थे। ऐसा क्यों था, भक्तराज प्रह्लादने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके घर जन्म ग्रहण किया है। वे सम हैं, उनके जन्मकी प्रसन्नता भी सम है।

कितना सुन्दर बालक था, लोग उसे देखते-देखते ही रह जाते थे क्यों न हो, जो गर्भमें ही श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करता रहा हो, उसका इतना आकर्षक होना स्वाभाविक ही है। वह शुक्लपक्षके चन्द्रमाको भाँति बढ़ने लगा, उसका पुष्ट और कोमल शरीर, सुन्दर मुखाकृति, घुँघराले बाल और जन्मसे दो ओठोंको हिला-हिलाकर हँसते रहना, सबको बरबस विवश कर लेता था। वह कभी रोया नहीं, सबसे हँसता, सबकी गोदमें जाता और सबसे खेलता। धीरे-धीरे वह बैठने लगा, घुटनों चलने लगा और थोड़े ही दिनोंमें अपनी माँकी अंगुली पकड़कर टहलने लगा। जब पहले-पहल उसका मुँह खुला तब भगवान्का नाम ही निकला। माता आश्चर्यचकित हो गयी। अब उसकी समझमें आया कि न बोलनेपर भी इसके ओठ क्यों हिला करते थे!

उस दिन नन्हेसे प्रह्लाद महलकी ही छोटी-सी बगीचीमें खेल रहे थे। खेल क्या रहे थे, अपनी तोतली आवाजसे भगवान् से कुछ कह रहे थे वहाँ कोई न या केवल कयाधू एक लताकुञ्जकी आसे सब कुछ देख रही थी। प्रह्लाद कभी गम्भीर हो जाता, कभी हँसने लगता, कभी आँखोंसे आँसू निकलने लगते। कभी हाथ जोड़कर वह प्रार्थना करता कभी जोर जोरसे भगवान् के नाम लेने लगता, कभी कुछ बातचीत करता और कभी ध्यानमग्न हो जाता। घंटों बीत गये, न खाने-पीने की सुध, न माँकी याद और न सूनेपनकी चिंता !

मौका वात्सल्य स्नेह उमड़ पड़ा। दौड़कर उसने गोद में उठा लिया और छातीसे सटाकर प्यार करने लगी। कयाधूने कहा—'बेटा! तुम क्या करते हो? तुम अपने पिता के शत्रुसे प्यार करते हो। तुम्हारे पिता सुनेंगे वो अप्रसन्न होंगे। बेटा। ऐसा मत किया करो।' प्रह्लादनेकहा- 'माँ! तू क्या कहती है। भला भगवान्से भी कोई शत्रुता कर सकता है? वे तो सबके हृदयमें रहते हैं। सबके अपने हैं। मेरे पिताजीको किसीने भुलवा दिया होगा। उन्होंने उन्हें देखा नहीं होगा। इसीसे नाराज होंगे। नहीं तो, भगवान् तो प्यार करनेकी वस्तु हैं, उनसे भला कोई शत्रुता काहेको करेगा ?' माताने कहा- 'बेटा! उन्होंने तुम्हारे चाचाको मार डाला है, इसीसे तुम्हारे पिता उनपर नाराज हैं। उन्हें मारनेके लिये ढूँढ़ते रहते हैं, उनके भक्तोंको सताते हैं और उनके सिर कटवा लेते हैं। बच्चा! तुम उनका नाम न लिया करो।' प्रह्लादने कहा- 'नहीं अम्बा ! वे बिना अपराधके किसीको दण्ड नहीं देते। दण्ड तो देते ही नहीं। मेरे चाचाजीको अपने पास ले गये होंगे, प्रेमसे रखते होंगे। वे बड़े प्रेमी हैं। मेरे पिताजी उन्हें मारनेके लिये ढूंढ़ा करते हैं। यह कैसी बात है?' वे तो उनके हृदयमें भी रहते हैं। जब वे उन्हें मारनेके लिये ढूँढ़ते समय छटपटाते होंगे, तब मेरे प्यारे भगवान् उनके हृदयमें बैठे-बैठे ताली बजाकर हँसते होंगे। परंतु माताजी! अब तो मैं भक्तोंको नहीं सताने दूँगा, हठ करूँगा, पिताजीसे रोऊँगा, मचल पहुँगा। वे मेरे रहते-रहते भक्तोंको कैसे सतायेंगे ?'

माँने देखा कि इस समय मना करनेसे बच्चेकी जिद बढ़ जायगी। वह पुचकारती हुई कुछ खिलानेके लिये ले चली। वह कह रही थी कि 'तू बड़ा पगला है, इतना दिन आ गया, अभी कुछ खाया-पीया नहीं। अभी तो खाने पीनेकी उम्र है। खूब खा-पी खेल कूद।' प्रह्लाद माँके प्यारमें भगवान्‌का ही प्यार देखते और उनका स्मरण करते हुए प्रसाद समझकर कुछ खा-पी लेते।

मन्त्रियोंके, मुसाहिबोंके दूसरे बच्चे खेलनेके लिये बुलाने आते तो प्रह्लाद किसी तरह टरका देते। बहुत आग्रह करनेपर चलते भी तो हँसकर ऐसा मुँह बनाते कि वे इन्हें छोड़कर चले जाते। उनके स्वभावसे इनका स्वभाव भिन्न था। वे भी केवल इनके सौन्दर्य और महत्त्वकी दृष्टिसे ही इनके पास आते, नहीं तो अलग ही खेलते रहते, क्योंकि उन दैत्य बालकोंको चींटी मारनेमें, पशु-पक्षियोंको सतानेमें, गरीबोंको पीस देने में आनन्द आता था और प्रह्लादके रहनेपर यह सब वे कर नहीं पाते थे। ऐसे अवसरोंपर उनकी जिद कोई टाल नहीं सकता था।हिरण्यकशिपु भी प्रह्लादपर बड़ा स्नेह रखता था। यों तो प्रह्लादसे बड़े-बड़े पुत्र थे परंतु जब ये गर्भमें थे तब कयाधूको बड़ा कष्ट भोगना पड़ा था, इसलिये उसको प्रसन्न करनेकी दृष्टिसे तथा प्रह्लादके सौन्दर्यसे आकर्षित होनेके कारण वह इन्हें बहुत मानता था। कभी-कभी किसी देवताको, साधुको दण्ड देते समय यदि प्रह्लाद आ जाते तो फिर उन्हें छोड़ देना पड़ता अथवा उस समय उस बातको टाल देना पड़ता। कभी कभी तो उन्हें बचानेके लिये प्रह्लाद उपवास तक कर बैठते थे। जब हिरण्यकशिपु पूछता कि 'बेटा! तुम इनके लिये उपवास क्यों करते हो? क्या मुझपर दबाव डालकर अभीसे मुझे अपने वशमें करना चाहते हो ? जब मैं बुड्डा हो जाऊँगा तब तुम राजा होना और जैसी इच्छा हो, करना।' प्रह्लाद कहते कि 'पिताजी! मैं आपपर कभी दबाव डालना नहीं चाहता। उन्हें दण्ड भोगते देखकर मुझे बड़ा कष्ट होता है। कभी-कभी तो मेरे मनमें आता है कि इनके स्थानपर मुझे ही दण्ड दिया जाता तो बड़ा अच्छा होता। पिताजी! मैं आपके सामने रोता है, गिड़गिड़ाता है यदि मेरे पूर्वजन्मके पुण्य जगे रहते हैं, मेरा अन्तःकरण शुद्ध रहता है, मैं सचाईके साथ आपसे प्रार्थना करता हूँ तो आप छोड़ देते हैं। यदि मेरे पुण्य जगे नहीं हुए, मेरा अन्तःकरण शुद्ध नहीं रहा और मैं सचाईसे प्रार्थना नहीं कर सका तो आप नहीं छोड़ते। मैं इसलिये उपवास नहीं करता कि आपपर कोई दबाव पड़े, मैं शासन करूँ। उपवास इसलिये करता हूँ कि मेरे पाप नष्ट हो जायँ, मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो। मैं गरीबों के लिये सचाईसे प्रार्थना कर सकूँ। सच्ची प्रार्थना अवश्य सफल होती है।'

इस नन्हे से बालककी ऐसी बात सुनकर हिरण्यकशिपु चकित हो जाता! वह सोचने लगता कि यह दैत्यवंशके विपरीत क्यों बोल रहा है? इसने ये बातें कहाँसे सीख? क्या कोई इसे सिखा जाता है ?

परंतु फिर उसके मनमें यह बात आती कि ''अभी तो यह बच्चा है, इसे कोई क्या सिखा सकता है ? अब इसको ऐसे मार्गपर लगाया जाय कि इधरसे इसका मन ही हट जाय।' वह उस समय प्रह्लादकी बात मान लेता इस कोमल शिशुके संसर्ग उस क्रूर हिरण्यकशिपुमें भी कुछ कोमलता आ गयी। उसकीकठोरता बहुत कुछ शिथिल पड़ गयी। परंतु अपने बच्चेको सुधारनेकी चिन्ता बढ़ती ही गयी। एक दिन हिरण्यकशिपुने कयाधूसे कहा- 'प्राणप्रिये!

मैं त्रिलोकीका राजा हूँ, सभी मेरी आज्ञा मानते हैं, मेरे पास असीम ऐश्वर्य है, तुम्हारे समान अर्द्धाङ्गिनी है, किसी वस्तुकी मुझे कमी नहीं, कोई अभाव नहीं । जो कुछ चाहिये, जो कुछ मिल सकता है, सब मुझे मिल चुका है, फिर भी मैं चिन्तित हूँ। मुझे दो बातोंकी चिन्ता है - एक तो अपने भाईको मारनेवाले विष्णुसे बदला नहीं ले सका, दूसरे, प्रह्लादका रुख भी मुझे उलटा ही जान पड़ता है। तुम प्रह्लादकी चिन्ता करो, किसी तरह उसे मार्गपर लाओ, मैं विष्णुकी खोज करता हूँ।'

कयाधूने कहा- 'प्राणनाथ! आप कहते तो ठीक हैं, परंतु इन्हीं दोनों बातोंका भय मुझे भी जान पड़ता है। प्रह्लाद तो अब उपनयन करने योग्य हुआ । उसका संस्कार करवाकर गुरुकुलमें भेज दें, वहाँ | दैत्यबालकोंके साथ मिल-जुलकर तथा अपने कुलके अनुसार शिक्षा पाकर वह बदल जायगा। मैं तो अपनी ओरसे चेष्टा करते-करते हार चुकी हूँ। आगे जैसी आपकी आज्ञा !'

कयाधूकी बात हिरण्यकशिपुको जँच गयी। उन दिनों उसके कुलपुरोहित शुक्राचार्य तीर्थयात्रा कर रहे थे। उनके दोनों पुत्र षण्ड और अमर्क गुरुकुलके अध्यक्ष थे। उन्हें बुलवाया गया, विधिपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार हुआ और प्रह्लाद उनके साथ गुरुकुलमें भेज दिये गये।

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