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श्री नृसिंह अवतार कथा (नृसिंह अवतार की कहानी)

Narasimha Avatar Katha (Narasingha Story)

भाग 7 - Part 7

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श्री नृसिंह अवतार-कथा

जीवका यह सहज दोष है, दोष नहीं स्वभाव है कि वह स्वयं जैसा होता है दूसरेको भी वैसा ही देखता है। पापीको सब पापी दीखते हैं, पुण्यात्माको सब पुण्यात्मा दीखते हैं। जिस ढंगसे वह अपना काम काज चलाता है, चाहता है कि दूसरे भी उसी ढंगसे चलावें, नहीं चलाते हैं तो चलायें, सब मेरे अनुयायी हों और वास्तवमें सब मेरी ही भाँति काम करते भी हैं। यदि स्वीकार कर लें तो मैं उनका नेता बन जाऊँ । इसे यदि असुर-भाव न कहें तो भी इसमें अभिमानका भाव तो है ही।

हिरण्यकशिपु स्वयं बड़ा शक्तिशाली था वह स्वयं माया जानता था और बड़े-बड़े मायावी उसके हाथ में थे। वह किसीमें कोई अद्भुत शक्ति देखता तो उसके मनमें यह बात आ जाती कि इसने भी तपस्याद्वारा यह शक्ति प्राप्त की होगी। मन्त्र, यन्त्र, माया आदिके अतिरिक्त भगवत्कृपासे भी ऐसा सम्भव है, यह बात उसके मनमें नहीं बैठती थी जब उसे मालूम हुआ कि प्रह्लादपर कृत्याकी भी एक न चली, तब वह सोचने लगा कि अवश्य इसने कोई मन्त्र सिद्ध कर लिया है। प्रह्लादको बुलाकर उसने पूछा- 'बेटा! तुम्हारे इस प्रभावका, चमत्कारका कारण क्या है? क्या तुमने कोई मन्त्र सिद्ध कर लिया है ? अथवा यह तुम्हारी स्वाभाविक शक्ति है?'

प्रह्लादने पिताके चरणोंमें नमस्कार करके बड़ी नम्रताके साथ कहा- 'पिताजी न तो यह मन्त्रसिद्धिका प्रभाव है और न यह मेरे लिये स्वाभाविक बात है। वास्तवमें बात यह है कि जिसके हृदयमें भगवान् विराजमान रहते हैं, उसके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। जैसे अपना अनिष्ट लोग नहीं करना चाहते, वैसे ही जो दूसरोंका भी अनिष्ट नहीं चाहता, उसके अनिष्ट होनेका कोई कारण ही नहीं है जो कर्मसे, मनसे, वाणीसे दूसरोंको कष्ट पहुँचाता है, कष्ट पहुँचानेके फलस्वरूप उसे दुःख भोगना पड़ता है। मैं न किसीका अनिष्ट करता, न चाहता और न कहता हूँ। मेरी दृष्टिमें सम्पूर्ण प्राणियोंके अंदर और बाहर भीभगवान् ही भगवान् हैं। मैं भी उनसे पृथक् नहीं हूँ। जब मेरा चित्त सर्वदा सर्वत्र आनन्दस्वरूप परमात्माके ही चिन्तनमें संलग्न रहता है, तब मुझे शारीरिक, मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख स्पर्श ही कैसे कर सकते हैं? पिताजी! मैं आपसे सत्य कहता हूँ। आपके चरणोंका स्पर्श करकेमध्ये प्रार्थना करता हूँ कि बुद्धिमानोंके लिये यहाँ उचित और परम कर्तव्य है कि वे सर्वत्र भगवान्‌का हो दर्शन करते हुए निरन्तर उनके हो प्रेममें छके रहें।

प्रह्लादकी बात सुनते-सुनते हिरण्यकशिपु क्रोधान्ध हो रहा था। उसने आज्ञा की कि 'दैत्यो! अभी-अभी इस सौ योजन ऊंची छतपरसे इस दुष्टको जमीनपर पटक दो पत्थरकी चट्टानपर गिरकर इसकी हड्डी चूर चूर हो जाय, तब यह मानेगा।' हुआ भी ऐसा ही। उस आकाश-चुम्बी राजमहलकी छतसे एक चट्टानपर प्रह्लाद पटक दिया गया। उस समय प्रह्लादको ऐसा मालूम हो रहा था कि 'पटकनेवाले भगवान् हैं, जिस चट्टानपर मैं गिरूँगा वह भगवान् है, जिस आकाशमेंसे होकर में गुजरूँगा, वह भगवान् है, सर्वत्र भगवान् ही भगवान् है, भगवान्से पृथक् किसी वस्तुका अनुभव करनेवाला मैं हो कहाँ हूँ ?' प्रह्लाद उस समय भगवत्स्वरूपमें स्थित थे। लोगोंकी दृष्टिसे प्रह्लादका शरीर चट्टानपर गिरा, परंतु उन्हें जरा भी चोट नहीं आयी। चोट लगती कैसे? भगवान्ने दौड़कर ऊपर ही ऊपर उन्हें गोदमें उठा लिया था। उनका प्यारा भक्त चट्टानपर कैसे गिर सकता था?

हिरण्यकशिपु पवरा गया। उसने शम्बरासुरको आज्ञा दी कि 'अपनी मायासे इसे नष्ट कर डालो।' शम्बरासुरने पूरी शक्तिसे अपनी मायाका प्रयोग किया। प्रह्लाद भगवत्स्मरणमें मस्त थे। उसने ऐसी हवा पैदा की जिससे प्रह्लादका शरीर सूख जायें। ऐसी ठंडक पैदा की जिससे प्रह्लाद ठिठुरकर मर जायें। ऐसी गरमी पैदा की जिससे वह जलकर राख हो जायें। बारी बारीसे उसने सबका प्रयोग किया, परंतु उसकी एक न चली। भगवान्का चक्र सुदर्शन उसकी मायाका नाश कर रहा था स्वयं मायापति भगवान् प्रह्लादके हृदयमें बैठे हुए हँस-हँसकर उनसे बातें कर रहे थे तब भला शम्बरासुरको माया कैसे चलती ? उसकी हजारों चालें नष्ट हो गयीं। वह अपना सा मुँह लेकर चला गया।इस प्रकार भिन्न-भिन्न उपायोंसे प्रह्लादको मारने की चेष्टा की गयी, परंतु किसीमें सफलता नहीं मिली। अन्तमें हिरण्यकशिपुने आज्ञा दी कि 'दैत्यो! इस दुष्ट बालकको नागपाशमें बाँधकर समुद्रमें डाल दो और उसपर हजार-हजार पहाड़ चुन दो। यदि यह जीता भी रहेगा तो कोई आपत्तिकी बात न होगी।' दैत्योंने वैसा ही किया। क्षार समुद्रके भयंकर तरंगोंके बीचमें प्रह्लाद डाल दिये गये और उनपर अनेक पर्वत चुन दिये गये। वे नाग पाशमें बँधे हुए हाथ-पैर न हिला सकनेपर भी भगवान्के चिन्तनमें लगे हुए थे भगवचिन्तनके लिये हाथ-पैरकी आवश्यकता भी क्या है? प्रह्लादको बड़ी प्रसन्नता हुई। जगत्के जंजालसे छूटकर निरन्तर भगवच्चिन्तनका अवसर तो मिलेगा।

परंतु समुद्र प्रह्लादको अपने अंदर नहीं रख सका वह अपना किनारा छोड़कर सारी धरतीको अपने अंदर डुबा लेनेकी चेष्टा करने लगा। उसके क्षोभसे हिरण्यकशिपुका आसन डगमगा उठा। उसने आज्ञा की कि 'दैत्यो! पर्वतोंको ला- लाकर ऐसा बाँध बनाओ कि समुद्र जहाँ का तहाँ रह जाय। आग, साँप, शस्त्र, विष और माया आदिये तो उस दुरात्माको मृत्यु होती नहीं, उसको हजारों वर्षोंतक समुद्रमें ही रखना पड़ेगा। दूसरा कोई उपाय नहीं है।' दैत्योंने आज्ञापालन किया।

समय होनेपर प्रह्लाद भगवान्की स्तुति करने लगे- 'कमलनयन ! पुरुषोत्तम! तुम्हारे चरणोंमें कोटि कोटि नमस्कार है। तुम संसारके हितके लिये बार-बार अवतार लेते हो। तुम्हीं ब्रह्मा हो, तुम्हीं विष्णु हो, तुम्हीं शिव हो। देव, दैत्य, यक्ष, राक्षस, चींटी, मनुष्य, पशु, पञ्चभूत और पञ्चतन्मात्रा आदि-आदि सब कुछ तुम्हीं हो। तुम्हारे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं तुममें ही यह संसार ओतप्रोत है। तुम्हीं सबके आधार हो, तुम्हीं सब हो जब तुम्हीं सब हो, तब मैं भी तुम्हारा स्वरूप ही हूँ। मुझसे ही सब है, मैं ही सब हूँ और मुझमें ही सब है। मैं अविनाशी हूँ। मैं ब्रह्म हूँ, मैं ही मैं हूँ। मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं है।'

इस प्रकार अभेद-भावनासे भगवान्का चिन्तन करते-करते प्रह्लादकी समाधि लग गयी और वे सब कुछ भूल गये। अपने-आपमें स्थित हो गये। ऐसी स्थितिमें नागपाश स्वयं टूट गया, पहाड़ हट गये और समुद्रने उन्हें ऊपर उठा दिया। उनकी आँखें खुलीं औरभगवान् उनके सामने प्रकट हुए। उन्होंने श्रद्धा-भक्तिसे प्रणाम किया, स्तुति की और उनकी अनन्त कृपाका अनुभव करते हुए उनकी ओर एकटक देखते रहे। भगवान्ने कहा-'प्रहाद मैं तुम्हारी अनन्य भक्तिसे प्रसन्न हूँ। जो चाहो, माँग लो।' प्रह्लादने कहा- 'भगवन्! भले ही मुझे हजारों योनियोंमें जाना पड़े परंतु तुम्हारे चरणोंकी भक्ति न छूटे, वह अविचल बनी रहे। प्रभो! संसारासक मूर्खलोग विषयोंसे जितना प्रेम करते हैं, उतना ही प्रेम, वैसा ही अनन्य प्रेम आपके चरणोंमें बना रहे।' भगवान्ने कहा-'प्रह्लाद तुम्हारे हृदयमें तो हमारी भक्ति है ही और रहेगी भी कोई दूसरा वर माँगो'

प्रह्लादने कहा - 'नाथ ! एक वर और माँगना है। तुमसे प्रेम करनेके कारण पिताजी मुझपर रुष्ट रहते हैं। उन्होंने अपनी ओरसे मुझे कष्ट पहुँचाने की चेष्टा भी की है। यदि उनके इस कृत्यसे उन्हें पाप हुआ हो तो वह नष्ट हो जाय। मेरे पिता मुक्त हो जायँ ।' भगवान् ने कहा- 'यह सब ठीक है, तुम्हारे पिताका कल्याण होगा। तुम और माँगो' प्रह्लादने कहा 'भगवन्! जिसे तुम्हारी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसे और क्या चाहिये ? उसे धर्म, अर्थ, कामका प्रयोजन नहीं, मोक्ष उसकी मुद्री है और वह भक्ति मुझे प्राप्त हो गयी है और मुझे कुछ नहीं चाहिये।' प्रह्लादकी यह निःस्पृहता देखकर भगवान्ने उन्हें परम निर्वाणका वरदान दिया और अन्तर्धान हो गये। प्रह्लाद बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने पिताके पास लौट आये। इस बार प्रह्लादमें कुछ ऐसा आकर्षण आ गया था कि हिरण्यकशिपु उनका विरोध करनेमें हिचकता था। दूसरी ओर प्रह्लादकी माता कयाधूका भी बड़ा आग्रह था कि अब बहुत हो गया, जाने दो, आखिर अपना ही लड़का है न। जैसे रहे, वैसे रहने दो! कयाधूका वह ज्ञान, जो नारदजीसे प्राप्त हुआ था, भूल गया था। असुरोंकी सङ्गतियों आकर उसका हृदय बहुत कुछ कर हो गया था। फिर भी माताका ही हृदय था न ! वह | अपत्यस्नेहके कारण व्यथित रहती थी। उसने प्रह्लादको 1 भी कई बार समझाया, पिताके अनुकूल होकर रहनेकी सलाह दी. परंतु प्रह्लाद अपनी धुनके पक्के थे, वे भजनके विपरीत किसीकी सलाह नहीं सुनते थे। आखिर हारकर कयाधूने हिरण्यकशिपुको समझाया जाने दो, उपेक्षा कर दो, उसकी जैसी मौज हो, कि वैसेरहे हिरण्यकशिपुने भी मान लिया। स्त्रीका हठ था, कुछ-कुछ विवशता भी थी। और करता ही क्या ? प्रह्लादसे शिष्टतापूर्ण व्यवहार करने लगा ।

उधर प्रह्लादका अपना काम जारी था। उनकी महिमा बढ़ गयी थी । ऐसी आपत्तियोंसे वे बेदाग लौट आये थे । सब लोग उनकी बात मानने लगे थे। उनके सहपाठी छात्र जो कि अब घर आ गये थे, उनकी बातोंपर बड़ी श्रद्धा करते थे। प्रह्लादके प्रभावसे हिरण्यपुरीमें भक्तिका खूब प्रचार हुआ। पहले लोग मन-मनमें भगवान्का ध्यान करते, एक-एक करके मूर्तिपूजा शुरू हुई और धीरे-धीरे सामूहिक संकीर्तनका नंबर आया प्रह्लादके हमजोली शहरमें घूम-घूमकर कीर्तन करने लगे। राजकुमार प्रह्लादके अदबसे पहले तो लोग हिरण्यकशिपुसे कहते नहीं थे, परंतु यह बात कितने दिनोंतक छिपती, एक दिन हिरण्यकशिपुको मालूम हो ही गयी।

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